Sunday, October 23, 2011

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आँखों की आभा जा बसी नीलकमलों में*: वरवर राव

वरवर राव

छत्तीसगढ़ में 5 जुलाई को एक आदिवासी लड़की को चंदो नामक गाँव के पास एनकाउंटर में मारा गया था। इसको लेकर लिखा तेलुगु के जनकवि वरवर राव का लेख दैनिक ‘आंध्राज्योती’ में प्रकाशित हुआ। तेलुगु से हिन्‍दी में इसका अनुवाद आर. शांता सुंदरी ने किया है-

घने जंगल में अपने घर के चारों ओर छाए नीरव निश्शब्द में चहकते हुए हालचाल पूछनेवाले परिंदों को तरह-तरह के नाम देना मीना खल्को को पसन्द था। न जाने कितने अनगिनत घण्टे वह इसी तरह गुज़ार देती थी। कभी-कभार दिख पड़ने वाले जानवरों को भी वह इसी तरह नाम दे देती थी।

वह सोलह साल की थी। उसने पाँचवीं तक पढा़ई करके पाठशाला जाना बन्द कर दिया। जंगल में मवेशियों के साथ घूमने की इच्छा से पढ़ाई छोड़ दी थी उसने। उरान आदिवासी जाति के बुद्धेश्‍वेरी खल्को और गुतियारी के दो लडकियां थीं। मीना बड़ी थी और चौदह साल की सजंति छोटी थी। उनके पास पाँच बकरियाँ थीं। उन्हीं के सहारे उस परिवार का गुजारा चलता था। मीना माँ के साथ बकरियाँ चराते दिनभर जंगल में घूमती रहती थी। घर पर रहती तो भी सारा वक्त पशु-पक्षियों के संग ही बिताती थी। उसने अपनी पाँचों बकरियों के नाम भी रखे- सुखिनि, सुक्ता, सुराइला, भूट्नी और लधगुड्नी।

मीना के घर का आसपास बड़ा सुन्दर था, बस उनकी झोपड़ी ही जर्जर थी। घर के पास ही एक तालाब था। तालाब के किनारे पहाड़ थे। हरीभरी घास के मैदान पेडों की कतार जैसे एक-दूसरे के हाथ पकड़े खडे़ हों। झारखण्ड के जंगलों को छत्तीसगढ़ से जोड़ते से चुनचुना पहाड़, उन पहाड़ों से कूदते झरने।

बिजली की बात छोडि़ये वहां अबतक आधुनिकता का पदार्पण ही नहीं हुआ। जुलाई 5 तारीख को मीना अपनी सहेली से मिलने जंगल में गई। कर्चा से दो-तीन किलोमिटर दूर स्थित चंदो नामक गाँव के पास वह एक एनकांउटर में फंस गई।

‘‘तड़के तीन बजे के करीब हमने तीन बार गोलियाँ चलने की आवा़ज सुनी। डर के मारे घर से बाहर नहीं निकले। छः बजे जाकर देखा तो बाहर पुलिस वाले दिखाई दिये।’’ एनकांउटर जहाँ किया गया था, उसके सामनेवाले घर में रहनेवाली विमला भगत ने बताया। पुलिस ने उन्हें चेतावनी दी कि उस घटना के बारे में किसी से भी कुछ न कहें। चंदो और बलरामपुर के पुलिसवाले यह नहीं मान रहे हैं कि सिर्फ तीन बार गोलियों की आवाज सुनाई दी, पर उससे ज़्यादा गोलियाँ चलने के निशान वहाँ नहीं मिले। ‘एनकाउंटर कहां हुआ था? किसी भी एनकाउंटर में दोनों तरफ से कम से कम पचास-साठ राउंड चलते हैं। यहाँ सिर्फ तीन गोलियाँ चलाई गईं। उनमें से दो मीना के शरीर के पार हो गईं।’ ये बातें सिर्फ चंदो गांव के सरपंच ही नहीं, वहाँ के लोग भी कह रहे हैं।

छत्तीसगढ़ के गृह मंत्री नानकीराम कंवर का कहना है कि मीना का इतनी रात गए जंगल में दिखाई देना ही यह सिद्ध करता है कि उसके माओवादियों से सम्बन्ध बने हुए हैं। वह एक घना बीहड जंगल है इसलिए वहाँ माओवादियों के होने की बात कही जा रही है। लेकिन पुलिस इस बात का सबूत पेश नहीं कर पा रही है कि वहाँ सचमुच माओवादी गुट छुपे हैं। अधिकारिक घोषणा के अनुसार एनकाउंटर तड़के तीन बजे हुआ था। कुछ घण्टे बाद मीना का घायल शरीर वहाँ पड़ा मिला। बलरामपुर का एस.पी. जितेन्द्र का कहना है कि बाकी नक्सलवादी भाग गए होंगे। उसका कहना है, ‘एनकाउंटर रात के अन्धेरे में किया गया था। पुलिसवालों ने सुबह छः बजे तलाशना शुरू किया, तब वह घायल स्थिति में उन्हें वहाँ दिखाई दी। उसने अपने कुछ नक्सलाइट साथियों के नाम भी बताए।’

एनकाउंटर जहाँ हुआ था उस जगह से चंदों पुलिस स्टेशन चार किलोमीटर दूर है। वह खुली जगह है जहाँ किसी तरह की ओट नहीं है।

‘‘नक्सलियों के साथ किसी के सम्‍बन्‍ध हों तो पडोसियों को ही नहीं दूर के रिश्तेदारों तक को पता चल जाता है। वह लड़की नक्सलवादी नहीं थी।’’ अयिकुराम ने कहा। वह कर्चा से बीस किलोमीटर दूर स्थित एक सरकारी पाठशाला में अध्यापक है।

इस एनकाउंटर के विरुद्ध सरगुजा के आसपास उमडे़ आन्‍दोलन के आगे छत्तीसगढ़ की सरकार को घुटने टेकने ही पडे़ । उसने मजिस्टीरियल जाँच कराने का आदेश दिया (छत्तीसगढ़ में एनकाउंटरों पर मजिस्टीरियल तहकीकत नहीं होती। कई बार पोस्टमार्टम भी नही होता। लाश को रिश्तेदारों के हवाले भी नहीं किया जाता)। केस सीआइडी को सौंप दिया गया। चंदों पुलिस स्टेशन के सभी पुलिस अधिकारियों को अंबिकापुर पुलिस लाइन्स में भेज दिया गया। मीना के परिवारवालों को दो लाख रुपये हर्जाना दिया गया। इस एनकाउंटर से किसी तरह का नाता न होने पर भी उसी वक्त मीना के भाई रवीन्द्र खल्को की चंदो बालिका हॉस्टल में नौकरी लग गई। पुलिस परोक्ष रूप से इसे झूठा एनकाउंटर स्वीकार कर चुकी है। यह सिद्ध करने के लिए चंदो के सरपंच ने कहा, ‘‘क्या आपने कभी नक्सलियों के भाइयों को सरकारी नौकरी मिलने की बात सुनी है।’’ जि़ला कलक्टर जी.एस. धनुंजय ने कहा, ‘‘यह नौकरी मुख्यमंत्री रमण सिंह के कहने पर ही दी गई थी। वे (खल्को जनजाति) आदिवासियों में सबसे गरीब हैं। इन्सानियत के नाते उस लडके को नौकरी दी हमने। हॉस्टल में चपरासी की जरूरत थी। योग्यता न होने के बावजूद दिहाडी पर उसे नौकरी दी। वह दसवीं पास कर लेगा तो स्थाई नौकरी मिल जाएगी। फिलहाल उसे चार हज़ार रुपये मिल रहे हैं।’’

अगर मीना के एनकाउंटर के बाद अपनी गलती सुधारने की बात पर यह किस्सा यहीं खतम हो जाती तो यह पूरी कहानी नहीं बनती। और न ही हमारे ‘हिन्‍दू’ देश में पुरुषों के नजरिये को समझने में इससे मदद मिल सकती। कहीं इस पुरुष स्वभाव को अपनी गलती मानना खल रहा था। अपमान की भावना जाग रही थी। राज्‍य सरकार, वह भी बी.जे.पी. सरकार को छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के विद्रोह को कुचल देने के लिए विपक्ष कांग्रेस और केन्द्र में कांग्रेस सरकार का समर्थन हमेशा से मिलता रहा है। केन्द्र आर्थिक और फौजी सहायता भी पहुँचा रहा है। जंगल में पूरे रूप से नक्सलियों का प्रभाव है, यह बात सारा संसार जानता है। वहाँ आदिवासी रहते हैं…अत्‍यंत निर्धन आदिवासी जनजातियाँ रहती हैं। और मीना ठहरी अति निर्धन आदिवासी जनजाति की लड़की। कितने ही तरह के अधिकार एक तरफ और कुचले जाने की कई योग्यताओं से युक्‍त एक अनाम लडकी एक तरफ। माओ ने जिन्हें चौथे जुआ का बोझ ढोने लायक कहा था, वह शायद इस तरह की स्त्री ही हों। और फिर यह तो और भी भोज डाले जाने लायक आदिवासी स्त्री थी। स्त्री भी नहीं, कुँवारी लडकी थी।

न जाने क्यों मुझे एक बारगी ‘पाथेर पांचाली’ फिल्म की दुर्गा और ‘समाप्ति’ फिल्म की मृणालिनी याद आ गई। मृणालिनी इसलिए कि उसमें भी प्रकृति के प्रति प्रेम भरा था। दुर्गा में भी यह बात थी। उसके लिए रेल एक अजूबा था। उसमें इस कदर भोलापन था कि अमीरों के आडम्‍बर और गहने-लत्‍ते देखकर अविश्वास से आँखें कमल की पंखुडियों की तरह फैल जातीं। समाज में असमानता इन्सानों पर क्या प्रभाव डालती है? दोनों पक्षों के इन्सानों को इन्सान न समझना सिखाती है। अमीरों के पास सबकुछ है। न्याय, नीति, पवित्रता, अधिकार…। अभावग्रस्त लोग चोर हैं, अपराधी हैं, पतित हैं, भ्रष्ट हैं। ये मापदण्ड कौन तय करता है? अमीर ही। जिनके पास शिक्षा है, जिनके पास अधिकार नहीं है, उनसे अधिकार प्राप्त करके वे अभावग्रस्तों के लिए एक अपराध से भरे संसार की सृष्टि करनेवाली दण्‍ड संहिता की रचना करते हैं।

मीना के एनकाउंटर होने के दो महीने बाद गृह मंत्री नानकीराम कंवर ने कहा, ‘‘मीना व्यभिचारिणी थी। ट्रक ड्राइवरों के साथ उसके नाजायज संबंध थे।’’ एनकाउंटर हुआ तब वह घर से दूर थी इसका कारण नक्सलियों से उसका संबंध है। इस बात की पुष्टि होती है, यह ज्ञान भी उस पुरुष सत्तात्मक पुलिस मंत्री के दिमाग में कौंध उठा। कुछ पुलिसवालों को भी यह विश्वास करने योग्य अभियोग लगा। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में ‘मूत्र नली में छेद हो गए, गर्भाशय का ऊपरी भाग चिर गया’, इस तरह के लैंगिक अत्याचार को सूचित करनेवाली बातें जोडी़ गईं। एक अधिकारी का कहना था कि चंदो पुलिस स्टेशन से पूरी टुकडी को दूसरी जगह बदलने के बाद इस तरह की पोस्टमार्टम रिपोर्ट पेश करना बडी़ हैरानी की बात है। ‘रिपोर्ट में सिर्फ घावों के बारे में और मौत की वजह के बारे में लिखा जाना चाहिए था’, यह उसका कहना था। गाँव वालों का कहना था कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मीना के शराबी होने की बात बाद में जोड़ दी होगी।

बलरामपुर के एस.पी. ने कहा कि मीना की योनि के अंश फोरेन्सिक लेब में भेजे गए हैं और नतीजे आने अभी बाकी हैं। लेकिन गृह मंत्री ने फैसला सुना दिया कि मीना बदचलन थी। सरपंच ने दुःख व्यक्त किया कि भले ही सभी गाँववाले खल्को परिवार का साथ दे रहे हों, फिर भी यह दाग उस परिवार का जीना दूभर कर देगा। क्या मीना नक्सल थी? बदचलन थी? उसकी मौत का राज़ उसके दोस्त जंगल के दिल को मालूम था। ‘‘उसपर पहले उन्होंने (पुलिस) अत्याचार किया। फिर उसे मार डाला। पहले मेरी बच्ची को उन लोगों ने नक्सल कहा। अब कहते हैं कि वह बदचलन थी। यही आरोप मुझे सबसे ज़्यादा दुःख पहुँचा रहा है’’, मौन तोड़कर बडी़ वेदना से भरी मीना की माँ बुद्धेश्वरी देवी कह रही हैं। मीना की छोटी बहन सजंति सोलह साल की अपनी बहन की पासपोर्ट साइज तसवीर हमेशा अपने पास रखती है और जो भी मिलने आता उसे दिखाती रहती है।

जुलाई छः तारीख को मीना की लाश को कन्हर नदी तट पर दफनाने के बाद उसका नेलपालिश, हेयरक्लिप, फ्राॅक और किताबों से भरी उसकी छोटी-सी संदूकची को उसके परिवार ने उसी नदी में बहा दिया। दुर्गा के (चोरी करके) छिपाये कण्‍ठहार को आँसू बहाते हुए जिस तरह अपू ने तालाब के पानी में छोड़ दिया था, उसी तरह इस बोझ को ढोनेवाली व्यवस्था से सजंति और उसके माँ-बाप कब मुक्त होंगे?

*तेलुगु के महाकवि गुरजाड अप्पाराव की कविता की एक पंक्ति
-Translated by R.Santha Sundari

Thursday, October 6, 2011

गुमशुदा
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वहां कोई भी आराम और चैन से नहीं रहता
चढनेवाले,उतरनेवाले,राह देखनेवाले
बहुत शोर रहता है
वहां खडा दिखाई देता है बस स्टेंड
पर असल में ऐसा खडा होता नहीं वह बिल्कुल.

बस से उतरकर थका मांदा निकला था बाहर मैं
तो बगल की दीवार ने हाय यह क्या किया!
मेरी नज़रों को खींच लिया अपनी तरफ
इश्तहारों से हक्काबक्का वह दीवार
गुमशुदा लोगों की तस्वीरों से भरी वह दीवार
बच्चों युवाओं बूढों की तस्वीरों से अटी वह दीवार
पर गुमाशुदा होने केलिए उम्र क्या
तस्वीरों के नीचे विवरण उनकी पहचान के
नाम, गांव, कद- काठी
भाषा,वेश भूषा,रंग- रूप
अंत में...
कहीं दिख जाने पर खबर कर देने की
आंसू भरी विनती!
क्या राह भूलने से गुमशुदा हुए थे ये
या चले गए अपनी अलग राह तलाशते
या कोई राह न पाकर दुनिया छोड गए
अपमान,आक्रोश,आवेश?
नादानी,नासमझी,बेचैनी?
क्यों चले गए होंगे?
अब कहां होंगे
किस छांव में
किस धूप में
किस खेमे में
किस चौखट पर
किस नदी में
किस शहर की चकाचौंध से भरी रेगिस्तान में
इनके गांव में इनके घर
राह तकते होंगे इनकी उदास आंखों से
इस खालीपन का बखान कैसे करे कोई!
आदमी के खो जाने से घेर लेता है जो खालीपन
क्या कोई नाप सकता है उसे?
इस नाप तोल से परे हैं
विषाद से भीगे वे घर-
घरों के दरवाज़ों और खिडकियों में
खुला रहता है विश्वास
सही रास्ता पकडकर
कभी न कभी वापस ज़रूर आएंगे
अपने साथ खुशी का राग ज़रूर लाएंगे!

पर कुछ ही दिनों में
ये इश्तहार फीके पड सकते हैं
इनकी जगह नई तस्वीरें नए नारे
ताज़े झूठे विज्ञापनों के महा आफर
दिखाई दे सकते हैं
या इस दीवार को तोडकर
एक माल ही खाडा हो जाए कौन जाने!
कुछ दिन बाद
इनसानों की पहचान ही बदल जाए
कौन कह सकता है!
इन पहचानों के बूते पर
कैसे पहचान पाएंगे
कब पहुंचेगा फिर
उन घरों में खुशी का राग?

चारों तरफ नज़र दौडाई मैंने
कुछ भी नहीं चल रहा था.
चाल तो जैसे रह ही नहीं गई
भागदौड,शोर,मुखौटे,धक्कामुक्की
हर कोई ऐसा चल रहा था
मानो खो गया हो
इस मायाजाल से भरे समय में
किसका पता किसको है
कौन किसे तलाश सकता है
सब के सब पागल हैं!
इश्तहारों पर यकीन करते हैं
कौन इन पहचानों को साथ लेकर जाएगा
इन्सान तो इन्सान
आगे बढ जाने की हठीली दौड में
देश तक हो रहे हैं गुमशुदा
पर यह तो बताइए-
कहां लगाएंगे गुमशुदा देशों की तस्वीरें?
मेरे अंदर उलझे विचारों की आंधियां हैं
इन आंधियों में
क्या मैं भी गुमशुदा हो रहा हूं
या पहले से ही गुमशुदा था?
इस दीवार को फिर एक बार
देख रहा हूं गौर से
क्या मेरी भी तस्वीर है यहां?
नहीं है
पर फिर भी
मुझे जन्म देनेवाला मेरा गांव
न जाने कहां चिपकाता होगा मेरी तस्वीर
अपने मिट्टी सने हाथों से!

मैं गुमशुदा नहीं हूं
इस मिट्टी की बात बताने को
कल ही अपने गांव जाऊंगा
बस में चढकर!

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मूल तेलुगु कविता : दर्भशयनं श्रीनिवासाचार्या

अनुवाद :आर.शांता सुंदरी
टिहिली का ब्याह
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दो पहाडियों के बीच रिश्ता बना.बाजे गाजे बजने लगे.गांव शहनाई और ढोलक के सुरों में भीग गया.पूरा गांव ’धिंसा’नाचने लगा तो रात रंगीन हो गई.हर एक पेड हाथ हिलाते हुए फूल बरसाने लगा.धरती पर चांदनी रुपहले धागों से बुनी चूनर सजाने लगी ...टिहिली के ब्याह में!

पहाडी देवताओं का ध्यान करते हुए,गाते हुए जोडी को आसीस देने की प्रार्थना करने लगा था पुरोहित.उसने दूल्हे को मंडप में लाने को कहा.लोग दूल्हे को ढूंढने लगे...घर में देखा...गली में ढूंढा.गांव का चक्कर लगाकर आए.

इस बीच एक लडका भागता आया और चिल्लाने लगा कि दूल्हा धर्मू,कहीं भी नहीं मिला.

सब उतावले होने लगे.लोग समझने लगे कि टिहिली को चिढाने केलिए कहीं जाकर छिप गया होगा.गांव का पंडित दीसरी उंगलियों पर कुछ गिनते हुए आसमान में सितारों को देखने लगा.मुहूरत में अब कुछ ही समय बाकी रह गया था,तो सब के दिलों में तरह तरह के संदेह और सवाल उठने लगे.

धर्मू के घर के सामने हरे पत्तों का चांदोवा बना था,उसके नीचे एक चारपाई थी.उसपर एक मूसल,रस्सी और अनाज मापने का एक बर्तन थे.घर के द्वार के सामने ताज़ा खोदी गई नाली थी.चांदोवा के नीचे जंगली फूलों की महक फैली थी.नई नवेली दुल्हन टिहिली ने परंपरागत विधि से साडी बांधी थी.उसकी आंखों में हल्की सी नमी थी...

शाम तक शादी की रस्मों में शरीक होता रहा था धर्मू...द्वार के सामने बनी नाली पर खडॆ होकर पुरोहित के आसीस पानेवाला धर्मू...दोनों के पैरों के बीच आग में सुगंधित धूप डालकर,उस धुएं को नाली के पार कराते वक्त,दोनों के पैरों के बीच मुर्गे की बलि देकर उस खून को नाली में बहाते वक्त...टिहिली को गिरने से बचाने केलिए उसकी कमर में हाथ डालकर गुदगुदी पैदा करनेवाला धर्मू...कहां गया?चारपाई पर बैठकर,उल्टे बर्तन पर हल्के से टिहिली के पैरों को अपने पैरों से दबानेवाला धर्मू...रिश्ते नातेदारों से जंगली फूल और पत्ते अक्षत के रूप में स्वीकार करनेवाला धर्मू...मूसल को हाथों से घेरकर टिहिली के गले में हल्दी से रंगा धागा(मंगलसूत्र)बांधने के ऐन वक्त पर वह कहां चला गया?

"मैंने पहले ही कहा ना था? वह पढा लिखा है,उसपर हम कैसे यकीन कर सकते हैं?"किसीने टिप्पणी की.

"चुप कर तू.वह ऐसा नहीं है.पता नहीं उसके साथ कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई?"

तरह तरह के सवाल,शंकाएं सर उठाने लगीं.वहां की हवा इस वजह से गरम हो गई.खुशबू बिखेरनेवाली हवा थम गई.टिहिली की आंखों से आंसुओं की बूंदें एक एक कर गिरने लगीं...

जब धर्मू डिग्री के दूसरे साल में था,तब उसके मेडम ने उसे टिहिली के पास यह कहकर भेजा था कि,इससे बात करके देख लो,तुम्हारे शोध कार्य केलिए शायद कुछ विषय मिल जाए.

धर्मू आदिवासी बस्ती में गया और टिहिली को अपना परिचय देते हुए कहा,"मेरा नाम धर्मू है.केंपस से आ रहा हूं.आदिवासी कलाओं के बारे में शोध कार्य कर रहा हूं."

"टिहिली को संकोच करते देखा तो फिर कहा,"आप इतमीनान रखिए.बस मुझे आपसे सिर्फ कुछ जानकारी लेनी है,बस."धर्मू उसे केंटीन की ओर ले गया.बातों बातों में मालूम हुआ कि धर्मू के मां बाप गुज़र गए और वह रिश्तेदारों के घर में रहकर बडा हुआ.किसी सज्जन की मदद से यहां तक पढाई कर सका,और उन्हीं के प्रोत्साहन से अब यह शोध कार्य भी शुरू किया.यह भी पता चला कि धर्मू भी आदिवासी परिवार से ही है.

"आदिवासी होकर हम इस तरह अपना रहन सहन,वेश भूषा,अपनी भाषा संस्कृति भूल रहे हैं.यह बडे दुःख की बात है,है ना?"उसने चाय की घूंट भरते हुए कहा.

टिहिली ने सिर हिलाकर हामी भरी.

उसके बाद अक्सर दोनों कालेज में मिलने लगे.त्योहारों के बारे में,आजकल गांवों की हालत के बारे में,किसी न किसी बात पर बोलता रहता था धर्मू.उसके रूममेट माज़ाक करते तो भी वह हमेशा गंभीर बना रहता.कभी सीमा नहीं पार करता था.

"टिहिली!"एक दिन उसने नाम लेकर लडकी को पुकारा.

टिहिली ने आंख उठाकर देखा.

"आपका नाम बडा अजीब है!"

टिहिली आंखों से हंसी.

"आपका नाम पुकारता हूं तो लगता है कोई जंगली चिडिया उड रही है...या जंगली फूल हवा में हल्के से झूम रहा है!"धर्मू ने कहा तो टिहिली शरमा गई.

गरमियों की छुट्टियों में...

गांव से दूर पहाड पर टिहिली काम कर रही थी,तभी एक आदिवासी गीत सुनाई दिया...

’आलिरोदूता पहाड पर
कंद मूल उग आए
पत्ते पर लिख भेजा संदेश
बांस की टहनी पर चढ आऊंगी!’

गीत पुराना था.लगता था कोई आदि मानव खुले गले से गा रहा है.पर आवाज़ जाना पहचाना लगा...कहां सुना था? टिहिली सोच में पड गई.

सिर उठाकर देखा ...धर्मू कुदाल लेकर मिट्टी खोद रहा था.वहां अचानक वह दिख गया तो मन के किसी कोने में छुपी खुशी बाहर प्रकट हो गई.अनायास कदम उसकी ओर चल पडे.

पहाड की चोटी...गांव बहुत दूर था.नीला आसमान,हरे भरे पेड,डालियों पर चहचहाते पंछी ,इन्हें छोडकर आसपास कोई नहीं था.

"तुम मेरी देखभाल कर सकोगे?"टिहिली ने पूछा.

"खुद परख लो,मालूम हो जाएगा!"अपने मज़बूत हाथ दिखाते हुए धर्मू ने कहा.

"इतनी दूर क्यों आए?"

"तुम्हारे लिए इन पहाडों को पार करके आ गया."

"खाना खिला सकोगे मुझे?"

"आटे का पसावन बनाकर खिलाऊंगा."

"और क्या करोगे?"

"हाट में लाल चोली का कपडा खरीद दूंगा.बस में फिल्म देखने ले जाऊंगा."

"और?"

"तुम्हें बुखार हो जाए तो दवा देकर सेवा करूंगा."

"और?"

"काले आसमान के नीचे बांहों में भींच लूंगा!"

वह शरमा गई...जैसे लाल लाल ढाक के फूल चारों ओर बिखर गए!

वह हंस पडा,जैसे हवा का झोंका बह गया...जब तक हवा का झोंका चलता रहा,ढाक के फूल गिरते रहे.


* * *



’जेके गांव की लडकी बालों में चमेली के फूल लगा आई
यहां चारपई बिछाकर किस ओर चली गई?’

हवा के साथ यह गीत कानों तक आ रहा था.पहाड,नदियां पार कर,डाली डाली से बतियाते हुए चला आ रहा था वह गीत.वह जमाई सास को संबॊधित करके गानेवाला गीत है.ब्याह से पहले रिश्ता मांगने केलिए आनेवाला यह गीत गाता चला आता है.

दीसरी जानता था कि वे शुभ दिन थे.उसने आसमान की ओर देखा. सूरज सिर के ऊपर चढ आया.ये घडियां भी अच्छी हैं.किसी गांव से लडकेवाले लडकी का हाथ मांगने आ रहे हैं.गाना पास आ गया.सामने वह युवक था.उसके साथ बुज़ुर्ग भी थे.सब अपरिचित.सीधे उसके घर की तरफ आने लगे तो वह हडबडाकर उठा और पीने केलिए पानी देकर चारपई डाली.

"कैसे हैं?कब निकले थे घर से?"दीसरी ने यह जानने के लिए पूछा कि वे किस गांव से आ रहे हैं.

"सुबह सुबह निकल गए थे संदुबडि से."

"अच्छा इसी लिए तो...ओडीशा के पहाडों के पार है ना आपका गांव?तभी कहूं पहचाने नहीं लग रहे हैं!"

देहलीज़ पर साडी और चूडियां रखीं.गिलास में शराब डाली.दीसरी समझ गया कि वे उसकी बेटी का हाथ मांगने आए हैं.

"दूल्हा कौन है?"दीसरी ने पूछा

धर्मू मुस्कुराया.दरवाज़े के पीछे से झांकती टिहिली शरमाकर अंदर भाग गई.दीसरी ने गौर किया.उस दिन पहाड पर धर्मू का गाना और उसके बाद टिहिली के सवालों के बारे में वह सुन चुका था.आदमी का गाना सुनकर औरत जवाब दे तो समझना चाहिए कि उसे आदमी पसंद है.

"आप किस जात के हैं?"दीसरी ने पूछा

"आरिकोलु,और क्या?"

दीसरी ने मन ही मन हिसाब लगाया कि इस जात में पहले कितने लोगों के साथ उसके पुरखों ने ब्याह रचाए थे.

गांव के बडे बुज़ुर्ग एक एक करके आने लगे.लडके को एक नज़र देखकर बैठने लगे.सहेलियां चिढाने लगीं तो टिहिली शरम से लाल होने लगी.दीसरी और बुज़ुर्गों के मन में एक ही सवाल हलचल मचा रहा था,कौन है यह जवान?

मौका पाकर धर्मू ने टिहिली को पकडा और पूछा,"सच बताना,क्या तुम मुझे नहीं पहचानती?"

"मैं तो जानती हूं...पर बाबूजी और गांव के बडे,उन्हें भी तो मालूम होना ज़रूरी है ना?"टिहिली ने उदास होकर कहा.दोनों जानते थे कि उस रोज़ धर्मू के बारे में सब समाचार मालूम न होने की वजह से ही दीसरी ने साडी और चूडियों को छूने नहीं दिया था.शराब को भी हाथ नहीं लगाया था.

टिहिली का बाप उस गांव का मुखिया था.सबको भला बुरा समझानेवाला वही गलत काम करे तो फिर गांव बिगड जाएगा,वहां के नीति नियम खराब हो जाएंगे!इन बातों के अलावा,धर्मू पर शक करने का असली कारण था,जब वह रिश्ता मांगने उनके गांव आया तब...उस दिन...

सारा गांव चांदनी की रोशनी में,ढोलकों के धम धम के बीच उत्सव मनाते हुए नाच रहा था...उसी रात,सोमेसु,उर्फ चम्द्रन्ना ने गांव में कदम रखा.उसके पीछे एक युवती भी थी.ढोलकों की धम धम थमने तक गांव के लोग समझ गए कि वे दोनों पुलिस के आगे आत्मसमर्पण कर चुके हैं,दोनों में प्यार हो गया था और इसलिए गुट में रहकर काम करना मुश्किल हो गया था.आम लोगों जैसा जीवन बिताने का फैसला कर लिया था.यह खबर अगले दिन अखबारों में भी छप गई.

अगले दिन गांव में पुलिस के सिपाही आ गए.एस पी के सामने दोनों ने एक दूसरे को वरमालाएं पहनाईं.एस पी साहब ने दोनों को नये कपडे और आशीश दिए,और कहा"इन्हीं की तरह बाकी लोग भी गुट को छोडकर समाज में आकर मिल जाएं,यही हमारी इच्छा है!"

तभी रिश्ता मांगने आए धर्मू पुलिसवालों से बात करते हुए सबको दिखाई दिया.उस दिन भी उनके मन में यही सवाल उठा,’कौन है यह?’इसके गांव में कदम रखते ही यह आत्मसमर्पण करनेवाले अचानक कैसे आ धमके?फौरन पुलिस,पत्रकार...! किसका आदमी है यह?सब के दिलों में डर,संदेह उठने लगे.

शादी का मंडप सुनसान हो गया...हर तरफ खामोशी छा गई.सब अपने अपने काम में मशगूल हो गए .तरह तरह की बातें करने लगे..."ब्याह में माइक सेट का होना ज़रूरी है.बेंड होना चाहिए,यह क्या है भाई पुराने ज़माने का ब्याह लगता है?"एक युवक झुंझला उठा.

"कहीं पुलिस ने तो कुछ नहीं किया...?"किसीने कहा.अचानक उस बात से मंडप में फैली खामोशी टूट गई.

"अरे क्या बात करते हो भाई?उन्हें इससे क्या लेनादेना?"धर्मू के एक दोस्त ने कहा.

"क्या जाने?हमारे गांव में वही एक पढालिखा बंदा है.बात बात पर टाउन जाता रहता है.इसी बात से कहीं उसपर उन्हें शक हो गया हो...?"

"अरे बेकार की बातें करके हमको भी डरा रहे हो...छोड ना...!"कहने को तो कह दिया पर उस आदमी के मन में भी डर घर करने लगा....कहीं यही सच ना हो...

टिहिली का दिल ज़ोरों से धडकने लगा.उसकी आंखें भर आईं.मंडप में हो रही बातें और पुरानी यादें मिलकर उसके मन में खलबली मचाने लगीं...

’सास से कहकर पिटवाया
ससुर से कहकर पिटवाया
सासू मां कहो तुम्हारी बेटी से बाहर आए
मैं फूल देकर चला जाऊंगा’

कुवी बोली में दूल्हा धर्मू गाते हुए नाचने लगा.उसके पीछे पहाड चलकर आएगा ,उसपर बहता झरना चलकर आएगा.सारे पत्ते मिलकर उसके गीत में ताल दे रहे हैं.

फिर एक दिन...

साडी और चोली देहलीज़ पर रखीं.गिलास में शराब डालकर रखा.

दीसरी ने बेटी की ओर देखा.उसके चेहरे पर उदासी थी.वह बाप की इजाज़त का इंतज़ार कर रही थी.नहीं माना तो...? आधी रात को उसके साथ...!तब वह क्या कर सकेगा?बेटी ने जो इज़्ज़त दी उसे बनाए रखना ही ठीक होगा.बिन मां की बच्ची है.उसके मन मुताबिक शादी करना ही ठीक है,यह मेरे लिए भी खुशी की बात होगी.दीसरी सोचने लगा.सब उसके फैसले के इंतज़ार में थे.

उसने सिर हिलाया...’हां’ कहा.शराब का गिलास उठाया,दो चार बूंद मुंह में डालकर दूल्हे के बाप को दिया.टिहिली की आंखों से चांदनी झरने लगी.उसकी हंसी सुनकर गली के छोर पर ढोल बज उठा.सब लोगों ने शराब पी.साडी और चूडियों की तरफ टिहिली ने प्यार से देखा.शहनाई के सुरों में सारी गलियां भीग गईं.जंगल पर से गुज़रकर वह खुशबू धर्मू के दिल को छू गई.सारा गांव पंक्तिबद्ध होकर धिंसा नाचने लगा.

बेटी के ब्याह का महूरत निश्चय किया दीसरी ने.उस धूमधाम के बीच वापस लौटते वक्त एक युवक ने आकर धर्मू के कान में कुछ कह दिया.धर्मू के चेहरे का रंग बदल गया.

"इस वक्त?"धर्मू ने पूछा.

"हां,अभी...गांव के बाहर हैं वे"युवक ने बताया.

"चल..."धर्मू उसके साथ हो लिया.

गांव के सिवानों में,सडक से दस कदम दूर पेड के नीचे एक सेंट्री खडा था.उसके पीछे भारी बैग और हाथियार लिए चट्टानों पर बैठे थे कुछ लोग...काले सायों की तरह.जंगल के अंदर कहीं एक तीतर बोलने लगा.चांद को एक बादल का टुकडे मे ढंक दिया.

"अब तुम जा सकते हो,"यह सुनते ही धर्मू वापस लौट आया.

दीसरी ने जो महूरत निशित किया वह घडी आ गई.दूल्हे का परिवार दुल्हन के घर पहुंच गया.ढोलकों का शोर,शहनाई के सुर पहाडों में गूंजने लगे.पुरोहित सभी पहाडी देवताओं का स्मरण करते हुए प्रार्थना करने लगा कि लडकी को सभी भूत प्रेतों से बचाए,वह खूब बच्चे पैदा करे और सुखी रहे.उसके बच्चे पहाड पर कामकाज करने की हालत में तंदुरुस्त रहें इस बात का आशीर्वाद देने लगा.

नई लुंगी में चावल बांधकर,मुर्गे को देवता के आगे रखकर फिर दूल्हे को पकडाया.घडियां गिनने के बाद कहा,"अब निकल पडो!"

" यह लडकी हमारे संग खेली थी
साथ मिलकर काम करती रही
अब तेरे संग चल पडी
डाल की कली कहीं मिट्टी में न गिर जाए
फूल बने
फल बने
बीज बन फिर उगे..."

अपनी बोली में, सारा गांव, यह गीत बनकर,टिहिली और धर्मू को विदा करने सिवानों तक साथ चला.नई कोंपल से भरे ढाक के पेड सी थी टिहिली.जंगल की समूची सुंदरता उसके चेहरे में रौनक पैदा कर रही थी.लोगों ने उसके सिर पर फूलों की छतरी पकडी.उसके ऊपर साडी को फैलाकर पकडा.फूल जैसी लडकी पर कोई भी फूल ना गिरे...इमली का फूल तो बिल्कुल भी ना गिरे...ऐसे उमंग से भरे गीत गाते हुए चलने लगे.

"आपकी लडकी हमारे घर का दीया होगी
सुख हो या दुःख हमारे संग रहेगी
यह हमारे घर की देवी है
इसकी आंखों को कभी भीगने नहीं देंगे हम"

दूल्हे का मामा टिहिली को कंधे पर उठाकर आगे बढा.पत्थरों पर चलते वक्त कहीं उसके पैरों का महावर बिखर न जाए इस बात का ध्यान रख रहे हैं.रास्ते भर जंगली फूलों की महक चलने के श्रम को भुला रही है.पहाड,नदियां,मेंड पार करते हुए चांदनी की धारा में आगे बढते जा रहे हैं.

बारात के मंडप में पहुंचने तक जंगल पर चांदनी छाई रही.पुरोहित और दीसरी मिलकर आधी रस्में पूरी कर चुके थे.इतने में यह खबर मिली.

टिहिली सोचने लगी...

न जाने कहां गया?किस ओर गया?
क्या मुझे धोखा देना चाहता है?
नहीं,धर्मू आएगा...ज़रूर मेरे लिए आएगा.बाकी शादी की रस्में भी पूरी होंगी.धर्मू तब मेरा अपना हो जाएगा.महूरत की घडियों के खत्म होने से पहले आ जाएगा.

ब्याह होगा.सुबह होगी.गांव छोडकर गाजे बाजे के साथ बिदा हो जाऊंगी.बहती धारा में वह मेरी कमर पर हाथ डाले मेरे पीछे खडा हो जाएगा.दोनों के पैरों के बीच पुरोहित मुर्गा रखकर उसे काटेगा.लाल रंग का पानी हमारे पैरों के बीच से होकर बहेगा.पुरोहित दोनों को आशीश देगा.धर्मू मुझपर पानी डालेगा.मैं भी डालूंगी.भीगे ,हल्दी से पीले कपडों में उसके स्पर्श से मैं सराबोर हो जाऊंगी.फिर दोनों तरफ के रिश्तेदार एक दूसरे पर नदिया का पानी छिडकेंगे.नदिया रंगों से भर जाएगी.भीगे कपडों में उसका गांव पहुंच जाएंगे.एक हरे भरे पेड के नीचे दूल्हे की बहनों और बहनोइयों को मैं हल्दी मिले पानी से स्नान कराऊंगी.

उसके बाद...

बुज़ुर्ग लेन देन की बात करेंगे.धर्मू वचन देगा कि वह मेरी अच्छी देखभाल करेगा.वचन तोडने पर जुर्माना भरने का भी वादा करेगा...

उसके खयालों में अडचन पैदा करते हुए अचानक मंडप में हलचल मच गई.

एक लडका दौडता आया.वह तेज़ दौडने से हांफ रहा था."अरे क्या बात है? क्या हुआ?"पूछते हुए सब उसके पास पहुंच गए.

"वहां...नदिया के किनारे...धर्मू बेहोश पडा है...!"उसने बताया.

सब चिंतित हो गए,घबरा गए..."कहां? बता...किधर?"वे परेशान होकर पूछने लगे.

उस लडके ने रास्ता दिखाया.उसके पीछे लोग मशाल और टार्च लेकर दौड पडे...

नदिया के किनारे...घाटी में...खून से लथपथ...शादी के कपडों में बेहोश पडा था धर्मू.उसे उठाकर बाहर लाए.पानी छिडक कर होश में लाने की कोशिश करने लगे.

ज़रा सी हरकत हुई...उसने आंखें खोलीं.उसे घेरे खडे थे उसके अपने.उनके सिरों के ऊपर घने पेडों की छतरी थी....उससे परे था नीला आसमां.आस्मान में तारे टिमटिमा रहे थे.

तारों को देखते हुए धर्मू ने पूछा,"महूरत निकल गई या अभी वक्त बाकी है?"

"अभी वक्त है बेटा...पर तू यहां कैसे गिर गया रे?क्या हुआ था?"धर्मू के रिश्तेदारों में से ऎक बुज़ुर्ग ने रुअंसे स्वर में पूछा.

"टिहिली कहां है?"धर्मू ने पूछा.

टिहिली दौडती आई.सब लोग हट गए और उसे रास्ता दिया.

धर्मू के हाथों में अधमरा खरगोश था. उसे टिहिली के आगे किया धर्मू ने.उसने कहा,"शादी से पहले अकेले शिकार करने का रिवाज है ना?"

"अरे,कमाल है बेटा...हम तो घबरा गए थे.पर आजकल यह रिवाज कहां रह गया है रे?यह तो अब पुरानी बात हो गई,सब छोड चुके हैं!"

"रिवाज तो ज़रूरी है!निभाना ही पडता है ना?"

"ठीक है...अब उठो...शुभ घडी निकल जाएगी.उससे पहले यह बांध दे,"कहकर हल्दी लगा धागा उसके हाथ में दिया पुरोहित ने.

ढोलक् बज उठा.मंजीरे ने भी साथ दिया.साथ ही धिंसा नाच भी शुरू हो गया.पहाड गूंज उठे.जंगल खुशी से झूम उठा.

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मूल कहानी : मल्लिपुरम जगदीश

अनुवाद : आर.शांता सुंदरी
फिर एक बार
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रोज़ जाता हूं उसी रास्ते से
फिर भी आंखों से
कुछ ओझल होने का अनुभव
कटे पपीते के पेड की बची निशानी
शरीर में मीठा अहसास भर देती है

वहां एक दीवार पर
नाचते थे भित्तिचित्र
उन्हें रूप देनेवाले हाथ
पागलों की तरह भटक भटककर राहों पर
देह को मिट्टी के हवाले कर गए अचानक

कभी न पसीजने वाले दिलों को
अर्थी को कंधा देते देख
गगन अपने जलदेह से उतर आया
और मानवता को गले लगाया...

खुद गाना बन दसों दिशाओं से बतियानेवाला तानपूरा
उस घर के आगे रुक गया अचानक
तानपूरे के तार टूटकर बिखर गए
लाखों आवाज़ें बन
गायक को खो देना क्या है
यह समझ लेना
उसे सिर पर बिठाना ही तो है

बीच रास्ते में रुक जाए तो
कौन कर सकता है बरदाश्त...?
आवाज़ तो चली गई
पर कहीं से एक मीठा सुर
लगातार जागाती ही रही.

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मूल कविता : पायला मुरलीकृष्णा

अनुवाद :आर शांता सुंदरी

Thursday, June 16, 2011


अफ्रीका में भाषा और साहित्य की राजनीति को लेकर न्गूगी वा थियांगो के विचार 
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अधिकतर अफ्रीकी साहित्य मौखिक रूप में उपलब्ध है.उसमें कहानियां,लोकोक्तियां,और कथनों के अलावा,पहेलियां भी होती हैं.अपनी पुस्तक,डीकोलोनैज़िंग द मैंड ,में न्गूगी अपने बचपन के दिनों में मिले मौखिक साहित्य के महत्व पर प्रकाश डालते हैं.उनका कहना है,"शामों में आग के चारों ओर बैठकर कहानियां सुनते और कहते थे.उन दिनों की याद अभी भी मेरे मन में ताज़ी है.ज़्यादातर बडे ही बच्चों को कहानियां सुनाते थे,पर उस कार्यक्रम में सब लोग सम्मिलित होते थे और दिलचस्पी लेते थे.हम बच्चे खेतों में काम करनेवाले दूसरे बच्चों को वही कहानियां सुनाते."

अधिकतर कहानियों में जानवर होते थे.न्गूगी कहते हैं,"खरगोश शरीर से कमज़ोर ज़रूर था पर उसकी चतुराई गौर करने योग्य थी.वही हमारा हीरो था.परभक्षी जानवर,शेर,चीता,और लकडबग्घा जैसे जानवरों से लडनेवाले खरगोश हमें अपना लगता था.उसकी जीत हमारी जीत थी.और हमने सीखा कि कमज़ोर कहलाने वाले भी बलवानों पर विजय प्राप्त कर सकतेहैं."

न्गूगी के अनुसार,अफ्रीकी साहित्य को पढने केलिए उनकी विशेष संस्कृति,मौखिक साहित्य को सीखना अत्यंत आवश्यक है.उसीसे अफ्रीकी लेखक ,कथावस्तु,शैली और रूपक ग्रहण करते हैं.

आब प्रश्न यह उठता है कि अफ्रीकी साहित्य क्या है? न्गूगी को इसमे कुछ उलझन दिखाई देती है.वे कहते हैं,"इस विषय पर बहस करते हुए हमारे सामने कुछ प्रश्न आकर खडे हो जाते हैं...हम अफ्रीका के बारे में लिखे गये साहित्य की बात कर रहे हैं या अफ्रीकी अनुभवों के बारे में?क्या यह साहित्य अफ्रीकी लेखकों द्वारा लिखा गया है?अगर कोई अफ्रीकी लेखक ग्रीनलेंड को घटनास्थल बनाकर लिखता है तो क्या उसे अफ्रीकी साहित्य माना जा सकता है?" ये सब अच्छे सवाल हैं,पर न्गूगी कहते हैं कि ये सब सवाल उस सभा में उठाए गए थे जहां सिर्फ अंग्रेज़ी में लिखनेवाले अफ्रीकी लेखक उपस्थित थे.जो लेखक आफ्रीकी भाषा में लिखते थे,उन्हें निमंत्रण नहीं दिया गया था.

स्वदेशी स्वर के प्रति उपनिवेशन का इस प्रकार आंख मूंद लेने की प्रवृत्ति को न्गूगी ने प्रत्यक्ष अपमान माना था.उनका कहना है कि उपनिवेशन के दौरान मिशनरी और उपनिवेशी प्रशासकों ने प्रकाशन संस्थाओं को और शिक्षा संबंधी पुस्तकों को अपने अधीन रखा था.इसका मतलब था उन्हीं पुस्तकों और कहानियों को अहमियत और प्रचार मिलता था,जो धार्मिक थीं और कहानियों को चुनते वक्त ध्यान रखा जाता था कि अफ्रीकी जनता को अपनी वर्तमान स्थिति पर कोई भी सवाल उठाने का अवसर न दिया जाए.उन्हें यूरोप की भाषा  बोलने केलिए विवश करके उन्हें अपने अधीन रखने की कोशिश की जती थी.बच्चों को (भविष्य की पीढी) यह सिखाने की कोशिश की जाती कि अंग्रेज़ी में बोलना अच्छा है और स्वदेशी भाषा बोलना बुरा.भाषा को एक ऐसा वक्र माध्यम बनाया जाता कि बच्चों को अपने ही इतिहास से अलग किया जाता था.वे अपनी विरासत को सिर्फ घर में ही परिवार के साथ बांटते थे,यानी अपनी मातृभाषा में बोलते थे.पाठशाला में उन्हें बता दिया जाता कि आगे बढना हो तो सिर्फ उपनिवेशी भाषा में लिखे गये इतिहास को पढकर.उनकी पढाई लिखाई में से उनकी अपनी मातृभाषा को हटा देने से वे अपने इतिहास से अलग कर दिए जाते और उसके स्थान पर यूरोप के इतिहास और भाषा सीखने लग जाते.इस तरह अफ्रीकी लोग उपनेवेशियों के और मज़बूती से अधीन हो जाते.

न्गूगी का कहना है कि उपनिवेशन केवल शारीरिक शक्ति दिखाने की प्रक्रिया ही नहीं,बल्कि "बंदूक की गोली शारीरिक रूप से अधीनस्थ बनाने का तरीका थी.भाषा का उपयोग आत्मा की दासता का तरीका था."
केन्या में उपनिवेशन ने अंग्रेज़ी को शिक्षा का माध्यम बनाकर उसका खूब प्रचार प्रसार किया, जिसके फलस्वरूप केन्या की भाषा में बोलचाल मुरझा गयी.इससे अफ्रीकी साहित्य नष्टभ्रष्ट हो गया.इसके बारे में न्गूगी लिखते हैं,"भाषा संस्कृति को लेकर चलती है,और संस्कृति(विशेशकर भाषण और साहित्य के द्वारा)समस्त मूल्यों को अपने साथ लेकार चलती है,जिनकी मदद से हम स्वयं को और समस्त संसार को देखते हैं."अतः,एक अफ्रीकी व्यक्ति जिसे महसूस करता है,उसे किसी दूसरी भाषा में कैसे अभिव्यक्त किया जा सकता है?

न्गूगी कहते हैं कि अफ्रीकी भाषा में लिखना सांस्कृतिक पहचान केलिए उठाये जाने लायक एक आवश्यक कदम है.सदियों से यूरोप द्वारा किए जा रहे शोषण के विरुद्ध ऐसा कदम उठाकर ही स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है.

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अनुवाद : आर.शांता सुंदरी.

न्गूगी कॆ कुछ कथन
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१. हम अफ्रीकी लेखक् इतने कमज़ोर कैसे पद गए कि हम दूसरी भाषाओं पर अपना अधिकार जमाना चाहते हैम्>.. खासकर, उपनिवेशन की भाषा पर?

२. १८८४ का बर्लिन तलवार और गोली से प्रभावित था.पर तलवार और गोली की रात के बाद खडिया और ब्लेकबोर्ड की सुबह आई.युद्धक्षेत्र की शारीरिक हिंसा कक्षा की मानसिक हिंसा में तब्दील हो गई.मेरी दृष्टि में भाषा ही वह महत्वपूर्ण वाहिका थी जिसके द्वारा वह अधिकार बच्चों को अचंभित और उनकी आत्मा को बंदी बना सका.मैं अपनी ही शिक्षा के अनुभवों से कुछ उदाहरण देकर इस बात की पुष्टि करना चाहूंगा.

३. हम घर में और बाहर भी गिकुयु भाषा बोलते थे(यही केन्या में अधिकतर लोगों की भाषा है)हम सर्दियों में आग जलाकर उसके चारों ओर बैठ जाते और अपनी भाषा में कहानियां सुनते.फिर उन्हें उन बच्चों को जाकर सुनाते जो यूरोप और अफ्रीकी ज़मींदारों के खेतों  बागीचों में और चाय के बागानों में  काम करते थे.

४. इन कहानियों की विषयवस्तु हमेशा ही सहकारिता और समूह की भलाई हुआ करती थी.(उन्होंने कहानी को बेहतरीन तरीके से कहने और गडबड करके कहने के फर्क को समझाया.)इस तरह हमें शब्दों की अहमियत और भावों की सूक्ष्मता का आभास मिलता था.भाषा का अर्थ केवल शब्दों की लडी नहीं है.शब्दों से परे उसकी एक गूढार्थ भी होता है.पहेलियों,लोकोक्तियों,अक्षरों को इधर उधर करके अर्थ बदल देना,ऐसे खेलों से हमें भाषा के जादू का मर्म समझ में आ जाता था.कभी कभी अर्थहीन शब्दों से संगीत का सृजन करने का खेल भी हम खेलते थे.पाठशाला में सीखने की भाषा,हमारे समाज में बोली जानेवाली भाषा और खेतों में काम करते वक्त बोली जाने वाली भाषा एक होती थी.

५. उसके बाद मैं पाठशाला गया,एक उपनिवेशी स्कूल,तब यह तालमेल में बाधा आई.मेरी शिक्षा जिस भाषा में होने लगी वह मेरी संस्कृति की भाषा नहीं थी.मेरी श्क्षा का माध्यं अंग्रेज़ी हो गया.केन्या में अंग्रेज़ी एक भाषा से भी बढकर थी: वही एकमात्र भाषा रह गई और सबको उसके सामने आदर से सिर झुकाना पड गया.

६. सबसे अपमानजनक संदर्भ वह होता था जब किसी बच्चे को स्कूल के आहाते के अंदर गिकुयू बोलते हुए पकड लिया जाता.अपराधी को कडी सज़ा दी जाती थी...तीन से पांच तक बेम्तों की मार नंगे पुट्ठों पर...या गर्दन पर एक लोहे का तख्ता लटका दिया जाता था जिसपर लिखा होता था’ मैं मूर्ख हूं ’ अथवा ’ मैं एक गधा हूं ’.कभी कभी तो अपराधी को पैसे भरने पडते जो वह भर नहीं पाता.और अध्यापक अपराधियों को पकडते कैसे थे? किसी एक विद्यार्थी को एक बटन दिया जाता और बताया जाता कि कोई भी विद्यार्थी अपनी मातृभाषा में बात करता दिख जाए उसे वह बटन थमा दे.स्कूल खतम होते वक्त जिसके पास वह बटन मिल जाता वह यह बता देता कि किसने उसे वह बटन दिया है.इस सिलसिले में वे सभी विद्यार्थी पकड लिए जाते जिन्हों ने अपनी मातृभाषा में बात की.इस तरह बच्चों को अपनों के विरुद्ध जासूसी करना सिखाया जाता था.और इस दौरान अपनों के प्रति विद्रोह करने से मिलने वाले लाभ के बारे में भी अवगत किया जाता था.

७. पर अंग्रेज़ी भाषा के प्रति उनका व्यवहार इसके बिल्कुल विपरीत था:अंग्रेज़ी बोलने या लिखने में ज़रा भी कुशलता हासिल की जाती तो पुरस्कार मिलते.अगर अंग्रेज़ी में अनुत्तीर्ण हो गए तो फिर वह सभी परीक्षाओं में अनुत्तीर्ण समझा जाता,चाहे दूसरे विषयों में उसने कितना भी बेहतरीन काम क्यों न किया हो.उपनिवेशी संभ्रांतता प्राप्त करने केलिए अंग्रेज़ी को ही वाहन और जादुई सिद्धांत माना जाता था.

८. सत्रह साल आफ्रो- यूरोपीय( मेरे संदर्भ में आफ्रो-अंग्रेज़ी) साहित्य से जुडे रहने के पश्चात, मैंने १९७७ में गिकुयी भाषा में लिखना शुरू किया था.मेरा गिकुयू में ...एक केन्याई भाषा में...एक अफ्रीकी भाषा में...लिखना साम्राज्यवाद के विरुद्ध केन्या और अफ्रीकी जनता के द्वारा किए गए संघर्ष का ही एक भाग मानता हूं.स्कूलों और विश्वविद्यालयों में हमारी केन्याई भाषा को , पिछडापन,विकास का अभाव ,अपमान और दंड का प्रतीक माना गया था.उस स्कूली शिक्षा से गुज़रकर हमें अपने ही लोगों से,अपनी ही भाषा से और अपनी ही संस्कृति से नफरत करना सीखना था.वर्ना हम अपमानित और दंडित हो जाते.मैं नहीं चाहता कि केन्या के बच्चे,अपने ही समुदाय और इतिहास द्वारा संपर्क केलिए बनाए गए उपकरणों से नफरत करते हुए बडे हों.मैं चाहता हूं कि वे इस उपनिवेशी अलगाव नीति से ऊपर उठें.

९. पर अपनी भाषा में लिखने मात्र से अफ्रीकी संस्कृति का पुनर्जागरण नहीं होने वाला.इसके लिए उस साहित्य में हमारी जनता का,अपनी उत्पादक शक्तियों को विदेशी चंगुल से छुडाने केलिए किए गए साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का चित्रण भी होना ज़रूरी है.साहित्य यह बताने में सक्षम हो कि मज़दूरों और किसानों में एकता की आवश्यकता है,ये सब मिलकर उस संपत्ति पर अपना अधिकार जमा लें जिसे वे उत्पन्न कर रहे हैं.इसकेलिए उन्हें संघर्ष करना होगा और अंदर और बाहर इसपर जडें जमाए बैठे परभक्षियों से इसे मुक्त कराना होगा.

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अनुवाद : आर.शांता सुंदरी

Wednesday, June 15, 2011


कोडवटिगंटि कुटुंबराव की तीन लघुकहानियां.(अनुवाद :आर.शांता सुंदरी)

अहिंसा
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राजा के भरे दरबार में अहिंसा के बारे में बहस छिड गई.दोनों पक्षों को लेकर दो विद्वानों के बीच वाद- विवाद होने लगा.बाकी सब चुपचाप इनकी दलीलें सुनने लगे.

दोनों विद्वानों में से एक दुबला पतला था, पर वह अहिंसा के पक्ष में नहीं बल्कि हिंसा के पक्ष में बढचढकर बोल रहा था.अहिंसा का समर्थक शरीर से बलिष्ठ था पर उसकी दलीलें कमज़ोर पडने लगीं और वह हारने लगा.

सभा में उपस्थित लोग धीरे धीरे दुबले पतले विद्वान की बातों से प्रभावित होकर उसका पक्ष लेने लगे.

बलवान का चेहरा तमतमा उठा.वह गुस्सा रोक नहीं पाया.अगले ही पल दुबले पर झपट पडा.उसकी गर्दन को दोनों हाथों से पकडकर झकझोरने लगा.

दुबले की आंखें उलटी हो गईं.अहिंसा की जीत हुई!

रचना काल :१९६४

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अन्याय को नहीं सहेंगे
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"चिन्नपल्लि में सोलह हरिजनों को ज़मींदार के गुंडों ने..."

" ओह...बेचारे !"

"पेद्दपर्रु में आठ हरिजन स्त्रियों के साथ तीन ज़मींदार..."

"हे भगवान !"

"मध्यकुंटा में हरिजनों की चार सौ झुग्गियों में आग लगा देने से पांच वृद्ध,बाईस बच्चे..."

"यह कैसा अत्याचार है भाइया !"

"-ज़मींदारों पर गंडासों से हमला करके दो ज़मींदारों को मार डाला और तीन को घायल करके..."

"उन सबको फांसी पर चढा देंगे.कुछ भी बर्दाश्त कर सकते हैं पर अन्याय को..."

रचना काल :१९७७

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फारेन कोलाबरेषन
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मैण् हैरान होकर देखने लगा.पापाराव की छ्ःओटी सी दुकान कहां गई?देसी तण्बाकू के च्रुट बेचनेवाले पापाराव को क्या बडी मछली निगल गई?उसकी दुकान के स्थान पर एक शीशॆ केए खिडकियों वाली दुकान खडी थी!मैं मन ही मन दुनिया को कोसते हुए पापाराव के प्रति सहानुभूति दिखाने लगा.तभी एक आदमी दुकान से बाहर निकला.लंबे बाल,आधिनिक लिबास में फेषनबल दिखाई दे रहा था.उसने मुझे आवाज़ दी.

अरे, यह तो पापाराव है!वंडरफुल !!छोटी मछली को बडी मछली ने निगला नहीं,बल्कि छोटी मछली खुद बडी हो गई! मैंने सोचा.

पर यह बदलाव आया कैसे?पापाराव के पास बडी पूंजी तो नहीं थी.कमाई भी कुछ खास नहीं थी.

पापाराव मुझे अंदर ले गया.मेरे हाथ में कोकाकोला की बोतल थमा दी.दुकान में कोकाकोला की बोतलें भरी पडी थीं.

"यह क्या हो गया?कैसे संभव हुआ?क्या तुम इस दुकान में नौकरी करने लगे?मैंने पूछा.

"अरे साहब, यह सब तो अमरीकन कॊलाबरेषन का कमाल है! एक अमरीकन जो खुद को पीसकोरवाला कहता था,मेरे पास आकर बोलाकि धंधा बढाओ,पैसे मैं लगाऊंगा!यह सब उसीकी मेहरबानी है.बिक्री दुगनी होने लगी है.पर सारा पैसा वह ले लेता है.ठीक तो है,दुकान उसकी है ना?मुझे थोडॆ पैसे रोज़ दे देता है जो मेरे लिए काफी होते हैं."

मैंने पापाराव की तारीफ की और उसे बधाई दी.

यह पिछले साल की बात थी.कुछ दिन पहले उस तरफ गया तो देखा कि वहां’इंडो अमरीकन कोकाकोला सेंटर"बन गया है.उस दुकान में पापाराव नहीं बल्कि कोई दूसर ही बैठा था.अमरीकन भारत छोडकर जाते समय दुकान किसी और के हाथ बेचकर चला गया.पापाराव का कोई अता पता अन्हीं मिला.क्या वह फिर से देसी तंबाखू की चुरुट बेचने लगेगा?नहीं!

अब कभी दोबारा पापाराव मुझे दिखाई नहीं देगा !


रचन काल : १९७७

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मेरे पिता,श्री कुटुंबराव , चंदामामा तेलुगु मासिक के मुख्य संपादक थे.इस पद पर उन्होंने लगभग ३० साल काम किया था.सैकडों कहानियां,एक दर्ज़न से भी अधिक उपन्यास,कुछ नाटक और   साहित्यिक,सामाजिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक विषयों पर आलेख लिखनेवाले कुटुंबराव जी ने अपने जीवनकाल में लगभग १४.१५ हज़ार पृष्ठों की रचना की थी.

जन्म : १९०९
मृत्यु : १९८०

Friday, June 3, 2011


बया का घोंसला
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आसमान में बादल युद्ध-सैनिकों की तरह भाग रहे थे.कौव्वे कांव कांव कर रहे थे.माहौल गडबडाहट से भरा था.अभी दोपहर भी नहीं हुई पर अंधेरे घिरने लगे थे.नारायण को लगा कि बाहर का वातवरण उसकी मनःस्थिति को प्रतिबिंबित कर रहा है.बहुत देर से वह एक बडी चट्टान पर उकडूं बैठा हुआ था.एक हाथ में बल्लम था.उसका मन अपने खेत के इर्दगिर्द घूमने लगा.सारी ज़िंदगी यों गुज़र गई जैसे कोई उसका पीछा कर रहा हो और वह भागता जा रहा हो.अब इस उम्र में भागना नामुमकिन जो हो गया,तो उपद्रव उसे ले डूबने को आ गया.कुछ ही देर में अधिकारी ज़मीन पर कब्ज़ा करने आनेवाले हैं.कौन रोकेगा उन्हें?कौन पूछेगा?और अगर पूछ भी लिया तो सोचने की स्थिति कहां है? वरना नारायण की यह हालत न होती.

कहीं बादल गरजा.अचानक शुरू हो गई बूंदाबांदी.गरज से डरकर बछडा रस्सी तोडकर भागा.उस आहट से छोटी सी चिडिया शोर मचाने लगी.नरायण ने मुडकर देखा.वह चिडिया बार बार बछडे के इर्दगिर्द घूमने लगी.अरे,यह तो बया है!कितने दिनों बाद देखने को मिली!नारायण की आंखों में चमक आ गई.जैसे अचानक कोई जिगरी दोस्त दिख गया हो!वह धीरे से खेत में उतरा और बछडे को पकडकर पहले की तरह बांध दिया और फिर वापस वहां पहुंच गया.

वह धीरे से कदम रखते हुए मकई के खेत में उतरा.एक एक पौधे को ज़रा झुकाकर गौर से देखा.मकई के पत्तों के बीच भी देखा.उसका अंदाज़ा सही निकला.उन पत्तों को एक साथ जोडकर सीकर बनाया गया छोटा -सा घोंसला दिखाई दिया जिसमें दो अंडे थे.चिडिया नहीं थी.



              *                                                *                                              *
नारायण को वह दिन याद आया जब पहली बार उसने बया को देखा था.खूब उग आए मकई के खेत याद आए.शाम को वह पाठशाला से लौट आते ही पिता के लिए गरम दलिया लेकर खेत में गया.पिता को दलिया देकर वह खेत में ही खेलने लगा.इतने में अचानक पास से कुछ उडकर गया.उस तरफ देखा तो मकई के पत्तों को जोडकर बनाय गया घोंसला दिखाई दिया.पास गया तो अंदर चोंच खोलकर बैठे दो नन्हे प्राणी दिखे.पहले तो उसे डर लगा ,फिर वह आश्चर्य में बदल गया.वे प्राणी बया के चूजे थे.भूख से छटपटा रहे थे.जो कुछ पल पहले उड गई वह इनकी मां थी.चिडिया वापस आ गई पर नारायण को घोंसले के पास खडा देखकर दूर पर ही चक्कर काटते हुए चिल्लाने लगी. नारायण वहां से हट गया और पिता के पास दौड गया.सबको बया और उसके बच्चों के बारे में बताया और खेत में जाकर उस घोंसले को और चूजों को देखना उसकी दिनचर्या ही बन गई!

नारयण ने किसान मज़दूर से कहकर एक बांस की टोकरी बनवाई.वह पिंजरे की तरह थी.उसने सोचा चूजे जब ज़रा बडे हो जाएंगे तो उसमें रखकर उन्हें पालेगा.पर उसके पिता को जब यह मालूम हुआ तो उन्होंने मना कर दिया,"बेटे,वे चूजे इस टोकरी में आराम से नहीं रह पाएंगे.उन्हें अपने घोंसले में ही रहने दो!"

"नहीं बाबूजी,मैं उन्हें पालूंगा...उनकी अच्छी देखभाल करूंगा...जो खाना चाहे वही खिलाऊंगा!"उसने ज़िद पकडी

"बेटा वे खुद खाना ढूंढकर ही खाते हैं,तुम्हारे खिलाने से नहीं खाएंगे.खेतों में खुले आम उडना उन्हें पसंद है."
पर उसे पिता की बातों पर यकीन नहीं आया.शायद किसी दूसरे के पास रहना चूजे पसंद न करते हों पर मेरे पास तो वे आराम से रह लेंगे! नारायण ने सोचा.

धीरे धीरे चूजों के पर निकल आए.घोंसले के बाहर झांकने लगे.मौके का फायदा उठाकर एक दिन नारायण ने उन्हें पकड लिया और एहतियात से टोकरी में रख दिया.मादा चिडिया ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगी.घबराकर इधर उधर उडने लगी.टोकरी में से चूजे भी आर्तनाद करने लगे.पर उन्हें पालने के शौक की वजह से नारायण ने उनकी बेचैनी को नज़रंदाज़ कर दिया.वह टोकरी लेकर भागता हुआ घर आ गया.अपने दोस्तों को दिखा दिखाकर खुश होने लगा.

चूजे चिल्ला चिल्लाकर थक गए.नारायण ने मकई के दाने,चावल,और गुड खिलाने की बहुत कोशिश की,पर चूजों ने उन्हें छुआ तक नहीं.नारायण ने सोचा एक दो दिन में ठीक हो जाएंगे.पर दो दिन बाद भी यही हाल रहा तो नारायण का सारा उत्साह खत्म हो गया.रोनी सी सूरत बनाकर मां को बताया.मां हंस पडी.बोली,"अगर तुझे कोई जबर्दस्ती उठाकर ले जाए और पकवान और मिठाइयां खिलाए तो तू खाएगा? मुझसे और बाबूजी से दूर रह पाएगा? रोएगा नहीं?ये भी ऐसे ही हैं बेटा!खेत में मां के पास रहकर ही खुशी मिलती है इन्हें.अपने घर में रहना ही पसंद करते हैं."

बस!

टोकरी लेकर वह खेत की ओर भागा.घोंसले के पास चूजों को छोड दिया.चूजे गिरते पडते खेत के अंदर चले गए.खुशी  से उन्हें चहचहाते देख नारायण भी बेहद खुश हुआ.

*                                                                  *                                              *

सच है... जिसे जहां जीना हो वहीं जीने की सुविधा मिले.तभी आराम से जिया जा सकता है.अपना घर बार छोडकर किसी दूसरी जगह पर दोबारा बसना कितना मुश्किल है,यह नारायण भली बांति जानता है.जब वह बारह साल का था,उसने वह तकलीफ खुद झेली थी.

१९६८ में विशाख ज़िले की तांडव नदी पर सरकार ने बांध बनाने का निर्णय लिया था.लोग यह सोचकर खुश हुए कि उस परियोजना में मकई, जौ वगैरह  की जगह चावल के खेत लगाए जा सकते हैं.चावल को आंखों से देख भर लेने को वहां के लोग तरस जाते थे.कभी त्योहार के दिन थोडा सा पका लेते थे.नारायण और उसके दोस्त समझते थे कि चावलों का तो स्वाद इतना बढिया है कि खाली चावल ही खाया जा सकता है,सब्ज़ी की भी ज़रूरत नहीं.ऐसी जगह खेतों के लिए पानी मिल जाएगा,यह सोचकर लोग फूले नहीं समा रहे थे.

पर वह खुशी ज़्यादा दिन नहीं रही.एक दिन अधिकारी आए और बता गए कि रिज़र्वायर में नारायण का गांव और खेत पूरे के पूरे डूब जाएंगे.गांव के लोगों पर मानों गाज गिरी.सरकारी अधिकारियों ने कहा कि संक्रांति के त्योहार से पहले गांव खाली करके चले जाएं.सारी खुशी मिट्टी में मिल गई.आबाद गांव मरघट बन गया.सब के दिलों में घबराहट,चिंता और दुःख की लहरें उठने लगीं.अपना गांव अपने खेत छोडकर कहां जाएं?पत्ते पत्ते से जो लगाव जुड गया है उसे कैसे तोडें? दिल दुःख के भार से भर गए.

रोज़गार,मुआवज़ा,पुनर्वास देना जैसी बातों पर ज़्यादा बहस नहीं हुई.अगर मिल जाए तो ठीक है,नहीं तो नहीं.किसानों की तरफ से इनकी मांग करने वाला कोई नहीं था.गांव के लोग यही समझते थे कि ज़मीन तो सरकार की है,जब चाहे वह उसे ले सकती हैं.

उस रात चांदनी छिटकी हुई थी.सुबह से जो सामन बांधा था उसे बैलगाडी पर चढाया.नारायण और उसकी मां गाडी में बैठ गए.गाडी के पीछे तीन गाय , दो भैंस और दो बछडे.उनके पीछे दूसरी गाडी में मामाजी का परिवार था.जब गांव के सिवानों को गाडी पार करने लगी तो किसी के दिल दहला देनेवाला रुदन सुनाई दिया.मां भी सारा रास्ता रोती बैठी रही. सब अपने अपने रिश्ते नातों के गांवों की तरफ निकल पडे.पता नहीं पिता के दिल पर क्या बीत रही थी.वे गाडियों के आगे पैदल चल रहे थे.बस,नारायण की आंखों में सिर्फ बया और उसके चूजे छाये थे.आदमी तो कहीं भी जाकर बस सकते हैं,पर बया कहां जाएगी?उसे लगा,साथ लाता तो अच्छा था.उसीके बारे में सोचते सोचते सो गया.सुबह सुबह मां के रिश्तेदारों के गांव पहुंच गए.

*                                                           *                                                   *

उस गांव में फिर से बसने के लिए बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पडा.मां के सारे गहने बेचने पडे.दुधारी भैंस बेच डाले.उन पैसों में पास में बचाकर रखी थोडी बहुत रकम जोडकर पिता ने चार एकड ज़मीन खरीदी.वहां पहले कभी खेती नहीं की गई थी.ज़मीन पथरीला था.छः महीने परिवार के सब लोग मेहनत करते रहे.झाड झंखाड काटना,पत्थर तोडना,सूखे ठूंठ उखाडना, गड्ढे भरना,और मेंड बनाना...नींद और आराम जैसे भूल ही गए थे.बरसात के मौसम से पहले ज़मीन खेती के लायक बना दी गई.पिता ने साथ लाए मकई के बीज डाल दिए.कुछ ही दिनों में हरे हरे पत्ते उग आए.फसल खूब बढने लगी और साथ ही परिवार की खुशी भी.उस साल उनकी मेहनत रंग लाई.पथरीली ज़मीन अब उर्वरा बन गई.धान,ईख,तम्बाकू,साग सब्ज़ियां...हर वह फसल उगाई जिससे फायदा मिलता.दस साल बाद और दो एकड खरीदे.

नारायण की शादी हो गई.दो बेटे हुए.कुछ ही समय बाद मां और बाप एक के बाद एक चल बसे.

इस बीच नारायण को कई बार बया और उसके बच्चे याद आए.पर नई जगह पर वह चिडिया दिखी नहीं.जिस तरह अपना बडा सा खेत रिज़र्वायर में डूब गया,चिडिया को आश्रय देनेवाले खेत भी खतम होते जा रहे हैं!धान के खेत में घोंसला बनाना असंभव है.पहले कीटनाशक दवाइयां और खाद इस्तेमाल नहीं किए जाते थे.अब उनके बिना फसल उगाई ही नहीं जाती.वाणिज्य फसल ,अधिक उत्पादन के नाम पर कृषि के खर्च बढ गए.प्रकृति के विरुद्ध खेती करने के नए तरीके आ गए.तभी से किसानों और चिडियों केलिए बुरा समय शुरू हो गया.पहले कभी फसल नहीं होती तो जो है उसीसे पेट पालते थे.अब फसल होने के बावजूद हमेशा कर्ज़ में फंसे रहते हैं.यह सब देखने से समझ में नहीं आ रहा था कि विकास कहां हो रहा है!नारायण के मन में ये विचार हलचल मचाने लगे.

*                                                           *                                                *

बहुत दिनों बाद एक ऐसा दृश्य दिखाई दिया कि मन बाग बाग हो गया!नारायण एक दिन खेत की मेंड पर चल रहा था.मेंड पर कंटीले झाड उग आए थे.उनमें से किसी पक्षी के अचानक फुर्र से उडने की आवाज़ सुनाई दी.उसने सोचा हो न हो वह बया ही होगा.पास जाकर गौर से देखा तो आक के पौधे में पत्तों के बीच छोटा सा घोंसला नज़र आया.उसमें नन्हे से अंडे थे.नारायण का मन खुशी से उछल पडा.रोज़ उन अंडों को देखना दिनचर्या बन गई.पूरे खेत में वह झाड ही उसकी पसंदीदा जगह बन गई.

एक दिन किसान मज़दूर मेंड पर उग आए झाड काटने लगा,तो नारायण ने मना कर दिया,"उसमें चिडिया का घोंसला है.उसे उखाड दोगे तो चिडिया कहां जाएगी?"

यह सुनकर बगल के खेत में खडा किसान ज़ोर से हंसा,"अरे,चिडिया के पीछे अपना सोना उगाने वाले खेत को खराब करना कहां की अकलमंदी है,भाई?"

नारायण ने बात को अनसुनी कर दी.

*                                                               *                                              *

जब नारायण छोटा बच्चा था तब खेत को सिर्फ खुद की संपत्ति नहीं समझा जाता था.मकई के खेतों में बया पक्षी जगह जगह घोंसले बना लेते थे.जब फसल बढकर कटने योग्य हो जाती,तबतक चूजे भी पैदा हो जाते थे.
जहां जहां घोंसले होते वहां की फसल को काटे बिना छोड देते थे.चूजे बडे होकर उड जाते तभी उस हिस्से को काटते थे.उसे बया की फसल भी कहा जाता था.एक दूसरे से कहते कि देखो तो पंछी हमारे लिए कितनी फसल छोड गए!?

हम भी जिएं ,औरों को भी जीने दें,इसीमें असली खुशी मिलती है.जीवन का यह सूत्र सबकी समझ में क्यों नहीं आती?

*                                                             *                                                 *

पैंतीस साल गुज़र गए... नारायण के सामने फिर से खतरनाक समस्या आ खडी हुई.पोलवरम प्राजेक्ट के रूप में खलबली मच गई.जिस खेत को उपजाऊ बनाने केलिए नारायण के परिवार ने खून पसीना एक कर दिया था,उसी में से होते हुए पोलवरम की नहर का अलैनमेंट होना था.फिर एक बार किसानों पर वज्रपात हुआ.सब किसान मिलकर अधिकारियों के पास गए और बिनती करने लगे.सरकार ने दो टूक जवाब दे दिया कि मुआवज़ा ले लो और खेत छोड दो!कई दिनों तक नारायण छटपटाता रहा...न खाने की सुध थी न सोने की.लहलहाता खेत हाथों से निकला जा रहा था...उसे ऐसा लगा कि नवजात शिशु को कसाई उठा ले जा रहा है.वह फफक फफककर रोया.अधिकारियों ने डरा धमकाकर मुआवज़ा लेने केलिए उसे राज़ी किया.

पैसा लेकर साथी किसानों की सलाह मानकर वह तटवर्ती प्रांत में बसने चला गया.वहां उसने तीन एकड ज़मीन खरीदी.छः एकड की जगह तीन एकड रह गए,पर इस बात का दुःख नहीं था.मां-बाप ने पसीना बहाकर जो खेत कमाया उसके इस तरह चले जाने से वह बहुत ही दुःखी हो गया.

फिर उसने खूब मन लगाकर काम किया और जीवन की गाडी पटरियों पर आ गई.एक दो साल में बच्चों की पढाई खतम हो जाएगी और कुछ काम धंधा ढूंढ लेंगे.तब जाकर मेरी ज़िम्मेदारी पूरी हो जाएगी,उसने सोचा.

पर मुश्किल से दो साल बीते होंगे कि फिर से उसका जीवन आफत की चपेट में आ गया!

तटवर्ती प्रांत में विशेष आर्थिक मंडल(सेज़) बनाए जाएंगे,इस बात की सरकार ने घोषणा कर दी.इसके लिए चार हज़ार एकड ज़मीन इकट्ठा करने का काम ज़ोर शोर से शुरू हो गया.नारायण निढाल हो गया.लगा वह धरती में धंसता जा रहा है.आंसू भी सूख गए,पर मन की पीडा अंदर ही अंदर उसे जलाने लगी.

किसीने भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि किसानों की क्या राय है.उनकी आपत्तियों पर भी किसीने ध्यान नहीं दिया.चर्चाएं हुईं,पर किसानों की राय जानने के लिए नहीं, सौदेबाज़ी के लिए.गांव में ढिंढोरा पीटा गया कि इस साल किसान खेती का काम छोड दें क्योंकि उनकी ज़मीनों के चारों तरफ लोहे की बाड लगाई जाएगी.कोई भी किसान अपना खेत बेचना नहीं चाहता था.उसके बिना कैसे जियें?एक बार ज़मीन हाथ से निकल गई तो फिर खरीद पाना क्या संभव है?

नारायण का मन भी उदास था.तरह तरह के खयाल आने लगे.हौसले पस्त हो गए.ज़िंदगी पर से विश्वास उठ गया.श्रम करने की उमर नहीं रही.एक के बाद एक चोट,कहां तक सह सकता था?किसान केलिए बुरे दिन आ गए.खतम हो गया...सबकुछ खतम हो गया!अब गृहस्ती चलाना उसके बस की बात नहीं थी.कहीं भी जाए हालत तो वही है.किसीको खेती से मतलब नहीं...खासकर गरीब किसान तो संकटग्रस्त प्राणी की सूची में गिना जाने लगा...बया और चिडियों की तरह!चिडियों के बारे में तो लिखा जा रहा है...उनकी गिनती की जा रही है,पर किसान के बारे में तो वह भी नहीं!ज़र सी भी सहानुभूति नहीं.इसीलिए तो बार बार उसे अपनी ज़मीन से बेदखल किया जा रहा है.

नारायण पूरी तरह निराश हो गया.हर तरफ अंधेरा नज़र आने लगा.आत्मविश्वास तो जैसे खतम ही हो गया.

*                                                          *                                                 *

वह धीरे से उठा और खेत का चक्कर काटने लगा.फसल एक महीने के अंदर कटाई के लायक हो जाएगी.पर क्या वह तब तक साबुत रहेगी? नारयण की आंखें डबडबा आईं.पर क्या आंसू ज़मीन के भूखों की प्यास बुझा सकेंगे?उन्हें रोक सकेंगे?जय किसान का नारा लगानेवाला देश जब उसे रुलाने पर उतर आए,मिटाने की तरकीबें सोचने लगे,तो क्या वह देश फल फूल सकेगा?

आ गई राक्षस जैसी पोक्लैनर मशीनें.खेतों में घुसने लगीं.अधिकारी गाडियों में आ गए.

अचानक माहौल बदल गया.शोर...हलचल..भाग दौड...कहीं कोई चिल्ला रहा था तो कोई रो रहा था.पेडों पर पक्षी भी शोर मचाने लगे.चारों तरफ हल्ला मच गया.जैसे बाढ आ गई हो...दावानल घेर रहा हो!किसान इधर उधर भागने लगे...

एक पोक्लैनर नारायण के खेत में घुस गया.अधिकारी सीमाएं नापने में लगे थे.मकई के खेत में सीमा का निशान लगाने के लिए पोक्लैनर की नोक धंस गई.तभी वह नन्ही सी चिडिया शोर मचाती ऊपर उडी.नारायण ने मुडकर उसकी ओर देखा.वह मादा बया थी.बस,जैसे उसके सिर पर भूत सवार हो गया.वह फौरन उस ओर चल पडा.पोक्लैनर की नोक धंसने से मकई के कुछ पौधे एक ओर झुक गए.उनमें बना घोंसला नीचे गिर गया.चिडिया मारे घबराहट के ज़ोर ज़ोर से चिल्ला रही थी.वह पोक्लैनर के चालक के सिर पर मंडराने लगी...उसे अपने पंजों से घायल करने की कोशिश करने लगी.वह पल...वह एक पल,न जाने नारायण के मन में कैसा जादू कर गया,कि उसमें नई शक्ति...एक अजीब हौसला जाग उठा.चिडिया की तडप और वेदना ने उसमें गुस्सा जगा दिया.उसने आव देखा न ताव,अपना बल्लम उठाया और हवा में घुमाकर,चालक की तरफ फेंका.फेंकते वक्त घायल शेर की तरह दहाडा.

चालक उस वार से बचने केलिए मशीन छोडकर भाग खडा हुआ.अधिकारी चकित होकर देखते रह गए.इतने में बाकी किसान भी वहां आ पहुंचे.उन्होंने कभी नारायण का यह उग्र रूप नहीं देखा था.गुस्से से हांफते हुए नारायण ने झुके पौधों को फिर से खडा किया और नीचे पडे घोंसले को पत्तों के बीच बैठाया.

"हम चुपचाप देखते बैठे रहेंगे तो वे हमें जीने नहीं देंगे.पीठ दिखाकर भागने लगेंगे तो और दूर भगाएंगे.डटकर सामना करने से ही कोई न कोई नतीजा सामने आएगा,"नारायण ने बल्लम हाथ में लेते हुए कहा.उसकी यह बात दूसरों को एक ललकार सी सुनाई दी.*

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मूल तेलुगु कहानी : सत्याजी

अनुवाद : आर.शांता सुंदरी.

Friday, May 27, 2011


आइ सी सी यू
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मेरी आंखें चौबीसों घंटे काम करती रहती हैं.मेरा दिल हरदम धडकता रहता है.मेरे हाथ अविराम चलते रहते हैं.

दीवार पर है मेरा निवास.मेरा नाम है घडी.

यहां इस दीवर पर बसे कुछ ही दिन हुए.जाने से पहले मेरे मालिक ने मुझे और मेरे भाइयों को धन्यवाद प्रकट करने केलिए इस अस्पताल को दे दिया.यहां के डाक्टरों ने दिल निचोड देने वाली बीमारी से बचाया,इस कारण या इस भ्रम में!उससे पहले हम सब एक ही जगह " टिक टिक","डिंग डांग","ठीक ठाक"रटते हुए जीते रहे.

जब से यहां आए,कुतूहल,उत्साह,उद्रेक,उद्वेग,में ही पल पल बीत रहा है... चल रहा है.

ठीक सामने बीच में मानिटर.मेरे सामने तीन बेड.मेरे बिल्कुल नीचे,मेरी आंखों से ओझल ,सिर्फ सुनाई देनेवाला एक बेड.मेरे दांईं ओर एक छोटा कमरे जैसा...पर कमरा नहीं.इसी जगह से वह भी जुडा है.वहां एक और बेड.

यह दिल की बीमारों का विभाग है.यहां जितने भी बीमार हैं उन्हें दिल की छोटी से छोटी शिकायत से लेकर बडी से बडी गंभीर बीमारी तक है.

मानिटर के सामने ज़रा आराम से बैठने लायक एक कुर्सी पर एक युवा डाक्टर,और उसके ठीक सामने मानिटर के उस तरफ,एक गोरी चिट्टी पंजाबी नर्स बैठे हैं.वह लडकी कुछ लिखती जा रही है.वह युवक भी कुछ लिख रहा है.

हां,यह दिन का वक्त है.रोमांस केलिए गलत वक्त!

तीनों बिस्तरों पर तीन बीमार हैं.तीनों को तारों से मानिटर से जोडकर रखा गया है.दिल के धडकने के विवरण इन मानिटरों से होकर सेंट्रल मानिटर में पहुंचते हैं.हरे रंग की लहरों जैसी लकीरें,हडबडी में भागते लोगों की भीड की तरह भाग रही थीं मानिटर पर.दिल के अंदर होनेवाली विद्युत कार्यों के नतीजों को दिखानेवाली हैं ये लकीरें.बीच बीच में होनेवाले छोटे छोटे परिवर्तन उस वक्त हो रहे खतरों या  आनेवाले खतरों के सूचक हैं.वैसे देखने में सभी लकीरें एक जैसी दिखती हैं,पर उनमें कई भिन्नताएं हैं.हर बार नई बीमारी का नाम सुनता हूं.लेकिन ज़्यादातर सुनाई देनेवाले नामों में से एक है,एक्टोपिक्स.

ये लोग ऐसा बर्ताव करते हैं जैसे एक्टोपिक्स होने से कुछ नहीं होता.कभी कभी इसका होना खतरा भी माना जा रहा है.यानी कभी यह खतरा पैदा कर सकता है तो कभी नहीं भी पैदा कर सकता है.पता नहीं, यह सब मेरी समझ में नहीं आ रहा है.मैं बहुत उलझ गया हूं!

पहली बार जब मैंने इस एक्टोपिक्स के बारे में सुना,तो उस डाक्टर के चेहरे पर परेशानी, पसीने की बूंदें,आवाज़ में कंपन...सुनाई दी.मेरा दिल भी धक धक करने लगा.मैं कोई इन्सान नहीं, बेजान घडी हूं!जब मेरा ही कलेजा मुंह को आने लगा हो तो फिर इन्सान...खासकर औरतें... कैसे बर्दाश्त करती होंगी?पहली बार सुनने पर जो डर पैदा होता है,वह बार बार तसल्ली दिए जाने के बावजूद कम से कम शक बनकर मन में  रह जाता है!

अच्छा अब मेरे इन लेक्चरों को बंद करके आइए उनकी बातें सुनें-

पंजाबी नर्स ने युवा डाक्टर के कंधे पर मारा.वह निरीह बनने का नाटक करके बोला,"तेरे लिए यह अच्छा नहीं होगा!"

"मतलब?"

"सोच लो!"

"मैं किसीकी परवाह नहीं करती,"लडकी ने कहा.उसकी बेपरवाही उसके खडे होने के अंदाज़ से ही पता चल रही थी,उसकी आंखों में दिखाई दे रही थी.उस निडरता का कारण अनुभव की कमी है, यह बात वह नहीं जानती थी.

पर आए दिन मैं देख रहा हूं कि निडर इन्सान कोई भी नहीं होता...अरे,फिर मैं बीच में बोलने लग गया!

इनकी बातचीत और बर्ताव न जाने कहां पहुंच जाता,पर इतने में अचानक दरवाज़ा खोलकर एक कन्सल्टेंट, यानी सीनियर डाक्टर अंदर आ गया.

युवक खडा हो गया,लडकी भी संभल गई.इन कन्सल्टेन्टों को देखने से आंधी याद आती है.ये ज़मीन पर खडे नहीं होते,दीवार से पीठ नहीं सटाते,दिन रात भागंभाग लगी रहती है.कम से कम बीमारों को दो मिनट जांचने की भी इनके पास फुरसत नहीं होती.श्रम के सिवा विश्राम को जैसे जानते ही नहीं.चौबीसों घंटे रोगी,प्रेक्टिस, के हिसाब किताब में सर खपाते रहते हैं.

उसने पूछा,"बीमारों का क्या हाल है?"

युवक ने तोते की तरह रट दिया.नर्स ने जो भी कहना था कह डाला."गुड लक!"कहकर कन्सल्टेंट चला गया.
समझ में नहीं आया वह गुड लक किसके लिए था और क्यों था!

पहले रोगी का नाम था मनमोहन कृष्ण.उम्र बत्तीस.एक दिन रात को दिल में ज़ोर से दर्द उठा.कहता है सिगरेट नहीं पीता.कभी कभार,पंद्रह दिन में एक बार पी ज़रूर लेता है.अच्छी नौकरी,सुंदर पत्नी,ज़रूरतों को पूरा करनॆ केलिए पर्याप्त सम्पत्ति इसके पास है.

वह अपनी पत्नी को दिन में कई कई बार कमरे में बुलाता है.बेचारी वह क्या कर सकती है?आने केलिए युवा डाक्टर की अनुमति चाहिए.और यह कह देता है कि बार बार अंदर नहीं जाने दिया जा सकता,सिर्फ शाम कॆ वक्त आ जाइए.कभी समझाता है तो कभी डांट देता है,और कभी बिनती करने लगता है.

उस दिन छाती का दर्द बहुत बढ गया.ई सी जी निकाला गया.कहा,’एक्स्टेन्सिव एंटीरियल इन्फार्क्शन"दिल के आगे की दीवार पूरी तरह गायब है.उसकी बीवी से कहा कि हम इसे बता नहीं पाएंगे इसलिए तुम रो भी नही सकोगी!

"डाक्टर! मेरी बीवी को मेरे पास ही रहने दीजिए!"कहते हुए मनमोहन छाती पर हाथ रख लेता था.सचमुच दर्द है या नहीं यह भी मेरी समझ में नही आ रहा था.

दूसरे मरीज़ का नाम मैं नहीं जानता.मतलब, याद नहीं रहा.उसकी कश्मीरी गेट के पास एक कपडे की दुकान है.यह भी युवावस्था में है.चालीस पैंतालीस का होगा.ई सी जी के बाद बताया गया कि’एक्स्टेन्सिव एन्टीरियल इन्फार्क्शन’है.

यह भी सिगरेट तक नहीं पीता.डयबेटिस या,बी पी की शिकायत नहीं.पिछली कुछ पीढियों में भी किसी में यह बीमारियां के लक्षण नहीं दिखाई दिए.

मनुष्य बहुत सारे दरवाज़े खोल चुका है.पर उसकी जानकारी सीमित है.जब उसे पता ही नहीं कि कुल कितने दरवाज़े हैं,तो क्या कर सकता है?

तीसरा मरीज़ बूढा है.सांस की बीमारी का इलाज कराने आया है.पर यह तो बताया ही नहीं कि छाती में दर्द है.ई सी जी निकालकर देखा तो’इन्फीरियल इन्फर्क्शन’है,यह मालूम हुआ.आम तौर पर लगाई जानेवाली सुई को वहां न पाकर,बाकी कमरों से अलग तरह का यह विभाग,नीले रंग की दीवारे,यह सब देखकर बूढा बहुत खुश हुआ.बुलाते ही डाक्टर और नर्स हाज़िर हो जाते हैं,यह देखकर उसे संतोष मिला.

जब युवा डाक्टर ने यह कहा कि दोस्तों और रिश्तेदारों को अंदर नहीं आने दिया जाएगा, तो बूढे ने इंतज़ामात की तारीफ की.

चौथे बेड पर एंजीना का एक मरीज़ है.थक जाने पर,या ऊंची आवाज़ में बोलने पर इसके सीने में दर्द उठता है.ये सिगरेट बहुत पीता है.रातभर जागना इसकी रोज़ की आदत है.शराब पीने में वक्त या हालत के नियम का पालन नहीं करता.यह बी पी का भी मरीज़ है.पर नमक से परहेज़ नहीं कर सकता.इस वजह से इसे छाती में दर्द की शिकायत रहती है.इस बार ई सी जी के नतीजों में कुछ खराबी नज़र आई तो अब्ज़र्वेशन के लिए अस्पताल में ही उसे रोक लिया गया.

पांचवें नंबर बेड पर फिलहाल कोई नहीं है.पहले एक लडकी थी.उसका दिल कभी महम्मद रफी के गीत की तरह,’आहिस्ता...आहिस्ता...’धडकता तो कभी ’चाहे कोई मुझे जंगली कहे...’ गीत की तरह भागने लगता.उस बीमारी को’सिक साइनस सिंड्रोम’नाम देकर उसे कुछ दिन अस्पताल में रखा.कई तरह के परीक्षण करने के बावजूद कुछ समझ में नहीं आया तो,’वाइरल मयोकार्डाइटिस’,कहकर कल ही उसे घर भेज दिया.

आइ सी सी यू में भर्ती किये गये हर मरीज़ के बारे में पांच खास बातें पहचानकर,लिखने को कहती है छोटी लेडी कन्सल्टेन्ट.उन बातों में से एक है,’पीता है कि नहीं.’अमेरीकी किताबों के सिवा अपने देश की किताबें छूकर भी न देखनेवाला युवा डाक्टर कहता है कि इस लेडी डाक्टर को कुछ भी नहीं मालूम."मतलब, हो सकता है मुझसे दो बातें ज़्यादा जानती हो.पर उसका छः साल का अनुभव है,उस हिसाब से तो वह कम ही जानती है.अब इस पीने की बात को ही लें,यहां साफ लिखा है कि आल्कहाल और मयोकार्डियल इन्फार्क्शन में कोई संबंध नहीं है,"पंजाबी नर्स के कंधे पर एक चपत लगाकर युवा डाक्टर ने कहा.फिर उसने मेज़ पर रखी,कार्डियो वास्क्युलर डयाग्नोसिस अंड थेरपी,नामक किताब खोली.

"देखो छोटी है,पर कितनी प्यारी है यह...तुम्हारी तरह!"

"क्या? क्या कहा?"

"तुम्हारी तरह प्यारी है!पर एक फर्क है,इस किताब को जब चाहे चूम सकता हूं.तुम्हारे साथ ऐसा नहीं कर सकता!"

नर्स खिलखिलाकर हंस पडी.उसके गाल लाल हो गए.उसकी आंखों में शर्म और उस युवक के प्रति प्यार का भाव चमक उठे.उसने धीरे से कहा,"क्यों?"

"हाय...ऐसे तो ना देखो...!"वह गुनगुनाया.

"क्या कह रहे हो?"

"कुछ नहीं.सोच रहा हूं काश यहां ये मरीज़ न होते और  सिर्फ तुम और हम होते..."

"डाक्टर!"बेड नंबर वन का मरीज़,मनमोहन कृष्ण ने आवाज़ दी.

"येस!"युवक ने जवाब दिया.

"आर यू बिज़ी?"

आदत के मुताबिक युवक के मुंह से निकला,"नो!"

"यहां आकर बैठिए ना?"उसने कहा.

"कोई बात नहीं वहीं से कहिए. मैं सुन रहा हूं,"कहकर युवक ने नर्स की ओर देखा.उसकी आंखें कह रही थीं,’इसकी कहानी आज खतम नहीं होगी और हमारी शुरू नहीं होगी.’नर्स ने लंबी सांस छोडी और साथ के कमरे में चली गई.

मनमोहन ने कहना शुरू किया...

"मैं जब कालेज में पढता था..."

युवा डाक्टर गुस्सा पीते हुए बीच में बोल पडा,"क्या कोर्स किया आपने?"

"बी.काम."

उसने आगे कहा कि कालेज में वह लडकियों को बहुत छेडता था."मेरी कई लडकियों के साथ दोस्ती थी.वैसे साफ साफ कहूं तो औरत की पवित्रता पर मुझे विश्वास नहीं था.जिन्हें मौका नहीं मिलता वे ही पवित्र बनी रहती हैं,ऐसा मेरा मानना है.पर मैं यह ज़रूर चाहता था कि मेरी पत्नी पवित्र लडकी हो.मैं जब स्कूटर पर उसके साथ जाता हूं तो कोई उसकी ओर बिना पलक झपकाए देखता है तो मेरा खून खौल उठता है!सुन रहे हैं ना डाक्टर? यही है मेरा स्वभाव..."वह कहता जा रहा था,इतने में कमरे के अंदर उसकी पत्नी आई.हरे रंग के कपडों में उसका गुलाबी बदन फूल जैसा खिला था.उसपर टिकी नज़रों और मनमोहन की बातों में उलझे युवक को होश में आने में कुछ समय लगा.

वह जाकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया.मेज़ पर पडी लाल रंग की किताब उठाई.उसमें दिल के मरीज़ों केलिए दी गई सलाहों का अनुच्छेद खोलकर पढने लगा.पहले पढी गई बातों में भी नयी दृष्टि ,नया कोण दिखाई देने लगा,यह देखकर वह आश्चर्य से भर गया.छोटी उम्र में जो लोग इन्फार्क्शन के शिकार हो जाते हैं,उनके लिए उसमें कुछ सालाहें दी गई थीं.वे बातें सेक्स और शृंगार से संबंधित थीं.लिखा था कि सेक्स से पूरी तरह परहेज़ ठीक नहीं होता.ऐसा करने से मन में चिंता बढती जायेगी और दिमाग पर उसका बुरा असर पड जाएगा.

तो फिर कमज़ोर दिल के मरीज़ उद्रेक से भरे काम करेंगे तो यह कहां तक ठीक होगा?इससे संबंधित बातें पढते हुए आराम से बैठकर सोचने लगा वह युवा डाक्टर.

"डाक्टर!"फिर मनमोहन ने बुलाया.

युवक उठकर उसके पास गया. इस बार उसके मन में मनमोहन की बातें सुनने की उत्सुकता थी.मनमोहन ने भी अपने मन की बातें,अपनी सारी शंकाएं साफ साफ युवक के सामने रख दीं.उसने कहा :

"मैं नहीं चाहता कि मेरी पत्नी मेरी इस नाज़ुक हालत की वजह से अपनी कमज़ोरियों का शिकार हो जाए.यह मैं बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगा.यही बात पल पल मुझे खाए जा रही है.इसीलिए मैं चाहता हूं कि मेरी पत्नी हमेशा मेरी आंखों के सामने रहे."

युवा डाक्टर औरतों के प्रति अपनी राय के बारे में नहीं सोच रहा था.वह दिखावा करने लगा.भारतीय स्त्रियां,उनकी पवित्रता,इंडियन ट्रेडिषन,उसका प्रभाव...(मनमोहन की पत्नी के प्रति अपने असली भाव...उसके स्लीवलेस ब्लाउज,लोनेक की तरफ खुद ब खुद दौडने वाली अपनी नज़रें...इन सब बातों को चुपाकर,) उसके प्रति गौरव भाव प्रकट करने लगा.उसने कहा,"चाहे कितने भी कदम आगे बढा दे,भारतीय महिला तो भारतीय महिला ही रहेगी."यह कहने के बाद उसके मन में भरतीय महिलाओं के मन का संकोचशील और डरपोक स्वभाव के प्रति सचमुच ममता उभरी.

उसके बाद उसने आसानी से समझ में आने वाली भाषा में यह बताया कि,मनमोहन सेक्स में बिल्कुल कमज़ोर नहीं है. यकीन न हो तो लाल किताब एक बार पढने को कहा.एक दो वाक्य पढकर भी सुनाये.

*                                    *                                 *                                    *

एक दो दिन बाद मनमोहन को वार्ड में शिफ्ट किया गया.युवा डाक्टर सबको बताता फिरता था कि कभी कभी उसकी पत्नी लिफ्ट के पास दिखाई दे गई,या केंटीन में बैठी मिली.फिर उसने उन लोगों का ज़िक्र करना ही छोड दिया.शायद वे अपने घर चले गए.

*                                     *                                 *                                    *

दूसरे मरीज़ को एक्स्टेन्सिव एंटीरियर इन्फार्क्शन था,जिसका कारण साफ समझ में नहीं आ रहा था.इसकी वजह से मैं जान पाया कि एक्टोपिक्स कितनी भयानक चीज़ होती है. कई तरह के एक्टोपिक्स जल्दी जल्दी इसके बदन में आकर बस गए.दो दिन ड्रिप लगाया गया.दवाइयां दी गईं.यह सब करने के बावजूद वह ठीक नहीं हुआ तो डाक्टर सिर पकडकर बैठ गए.इसके घर वालों ने इसे हर तरह के छोटे बडे डाक्टर को...नामी और अनामी वैद्यों को दिखाया.उनका क्या है,आए,देखा और अपनी फीस लेकर खुशी खुशी चले गए.एक ने कोई दवाई लिखकर दी और दूसरे ने उसे लेने से मना कर दिया.अंत में मरीज़ को वे ही दवाइयां दी गईं,जो युवा डाक्टर और नर्स के पास थीं.

एक स्पेशलिस्ट डाक्टर ने कहा,"पेसिंग केलिए यह आइडियल केस है!"

दूसरे ने कहा,"पेसिंग बेकार है."

एक दिन सुबह एक्टोपिक्स ने पूरी तरह फैलकर भयानक रूप ले लिया.इसी को वी.एफ. कहते हैं."वी एफ ...वी एफ..."चिल्लाकर,डीफिब्रिलेटर से मरीज़ को बिजली का झटका दिया युवा डाक्टर ने.बंद दिल की धडकन फिर से काम कर सकती है, यह मैंने पहली बार देखा.

धीरे धीरे मरीज़ ठीक होने लगा.दिन बीतते गए.

*                         *                              *                                           *

सुना है इलस्ट्रेटेड वीकली वालों ने दिल की बीमारियों और खून की नलियों से संबंधित आपरेशनों के बारे में एक विशेषांक प्रकाशित किया.उसके निकलने के हफ्ते दस दिन बाद दिल्ली और बंबई में दिल के मरीज़ बडी संख्या में डाक्टरों के पास जाने लग गए.इसी के बारे में गेट के पास खडे दो कन्सल्टेंट बात कर रहे थे.बात करके वे दोनों बाहर चले गए.युवा डाक्टर और पंजाबी नर्स मेज़ के पास बैठकर खानों में +,०,भरने वाला खेल खेल रहे थे.उनकी उस दिन की ड्यूटी खतम हो चुकी थी.

"मैं जीत गया तो तुम मुझे टाफी से भी बडी टाफी दोगी,और तुम जीती तो मैं दूंगा!"युवा डाक्टर ने कहा.

"क्या मतलब?"

"नहीं जानती?!"शरारती मुस्कान के साथ डाक्टर ने कहा.

"नहीं!"

"स्वीट स्वीट के...ओके?"उस लडकी की समझ में कुछ कुछ आया.तो कहा,"नो!"

"तो फिर मैं नहीं खेलता,जाओ!"

"चलो आरेंज जूस को दांव पर लगाते हैं.टाफी नहीं."

नहीं...टाफी..!"

नर्स ने हंसकर कहा,"ठीक है,टाफी ही सही."

दोनों खेलने लगे.

उस दिन तीन खास बातें हुईं.

एक - तीसरा मरीज़,बूढा,सुबह डिस्चार्ज होकर चला गया.

दो - दोपहर को आइ सी सी यू में जब कोई तीसरा नहीं था,दूसरे नम्बर  बेड के मरीज़ ने अपनी पत्नी को चूम लिया.पर युवा डाक्तर ने देख लिया और पत्नी को डांट भी दिया.

मरीज़ ने आवेग और उद्रेक के कारण ऐसा किया था या प्यार और मुहब्बत के कारण मैं नहीं जान सका.

पंद्रह मिनट के बाद फिर वी.एफ वी. एफ. चिल्लाया गया.फिर वह सारी प्रक्रिया की गई...पर इस बार कोई फायदा नहीं हुआ. बात नहीं बनी.

दूसरे नंबर का मरीज़ नहीं रहा.

क्या सचमुच भावोद्रेक के कारण ही ऐसा हुआ था?!

इस तरह आइ सी सी यू में किसी के न होने की वजह से युवा डाक्टर और पंजाबी नर्स का खेल ज़ोरों पर था.

अचानक तीसरी खास बात हो गई.

शाम को साढे सात बजे,जब युवा डाक्टर की ड्यूटी खत्म होने को आई,मनमोहन कृष्ण फिर छाती में तेज़ दर्द के कारण वापस आया.उसे अडमिट करना पडा.

ई सी जी में हुए परिवर्तन दोबारा सामान्य स्थिति में पहुंचने से पहले ऐसा दर्द उठा है,इसलिए हम नहीं कह सकते कि यह सचमुच हार्ट अट्टेक है या नहीं,"छोटी लेडी डाक्टर ने कहा.थोडा रुककर फिर कहा, "इसे कुछ नहीं हुआ.फौरन डिस्टिल् वाटर का इंजक्शन दे दो,"

"उसके सीने पर ’पेरिकार्डिअयल रब’ साफ सुनाई दे रहा है,और वह दिल की बीमारी का सूचक है."कन्सल्टेंट ने कहा.

खेल और आरेंज जूस के नशे में डूबे युवा डाक्टर का सिर चकरा गया.समझ में नहीं आया कि लाल किताब से उसने जो वाक्य पढकर सुनाए वह कहां तक काम आए.

अगर मनमोहन को दिल की बीमारी न होने की बात सच है तो...फिर यह सारी गडबड इस बंद माहौल में रहने की वजह से ही हुई थी?

इतने आधुनिक ढंग से, बडे ध्यान से मरीज़ों की सुरक्षा का प्रबंध किए जाने के बावजूद,इस आइ सी सी यू का प्रयोजन बस,इतना ही रह जाता है?

तीसरा मरीज़,इसी माहौल में,इन नीली दीवारों के बीच आराम पाकर,ठीक होकर घर चला गया था ना?यह सब इस प्रबंध के कारण नहीं हुआ?आज सुबह ही मैं आइ सी सी यू का कमाल देखकर खुश हो रहा था ना?

पढी हुई बातें,जिनपर यकीन किया था,जिन बातों को बडे बडे डाक्टरों ने बताया,वे सब बातें मरीज़ों को पढकर सुनाया और उनपर यकीन करके मात खा बैठा.

अब मुझे क्या करना चाहिए?

लोगों को क्या संदेश दूं? उसका मन उलझन में पड गया.

जब खुद इतने सारे सम्देहों से दिमाग भर गया हो तो दूसरों को क्या संदेश दे सकूंगा? खुद को पानी की बूंद से भी छोटा महसूस करके युवा डाक्टर  पंजाबी नर्स से आरेंज जूस या टाफी मांगना भूल गया.


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मूल तॆलुगु कहानी :डा.श्याम

अनुवाद :आर्.शांता सुंदरी




Tuesday, May 24, 2011


गिद्ध
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"आज भी पानी नहीं आएगा.इन खेतों में फसल नहीं होगी!"तालाब के किनारे इमली के पेड पर बैठा तोता बोला.

"अरे, यह कैसी गलत भविष्यवाणी कर रहे हो भाई?रात देर तक मुन्नॊरु के किसान संघ की दीवार पर बैठा रहा.उन लोगों ने कहा था कि पौ फटने से पहले तालाब पानी से भर जाएगा.सुना है पसा भी लिया था इसके लिए!"पास ही बैठे मैना ने कहा.

"असली मामला तो वही है.इंजीनियर को मालूम हो गया कि गांव में एकड के हिसाब से पैसा वसूल किया गया था.एक बूंद पानी भी देने केलिए वह राज़ी नहीं है...अड गया है."

"लगता है बेचारा सतजुग का आदमी है.क्या पैसे वसूल करने की बात सुनकर उसे बुरा लगा?"

"बुरा तो मान गया वह, पर इस बात से नहीं बल्कि इसलिए कि उसका हिस्सा उसे क्यों नहीं मिला!"

"यह कैसा अत्याचारी है भाई? लोग बडी तकलीफ में हैं.कर्ज़ लेकर बुवाई कर चुके हैं और पानी के इंतज़ार में आंखें बिछाये बैठे हैं और यह महाशय अपने हिस्से की मांग कर रहा है? तो फिर उसका हिस्सा उसके मुंह पर क्यों नहीं दे मारा?

"कैसे देते?सूपरवैज़र का बेटा तो इंटर में फेल हो गया ना?"

"उसके फेल होने का इंजीनियर के हिस्से से क्या संबंध है?"मैना ने पूछा

"तू तो निरा बुद्धू है रे!इंटर फेल होने पर सूपरवैज़र ने बेटे को बहुत डांटा.और वह पैसा लेकर भाग गया!"

"तो वह पैसा किसानों से वसूल करना चाहता था वह?"

"अरे नहीं ,यार! वह तो किसानों का ही पैसा था. उसने कहा, इसमे से सबको हिस्सा मिलेगा.अगले दिन यह किस्सा हुआ.अब वह अपनी असहायता प्रकट कर रहा है.तब बेचारे किसान ही क्या कर सकते हैं बोलो?"

"करना क्या है? सब जाकर सूपरवैज़र के घर के सामने धरने पर बैठ जाएं.अखबार में इसकी खबर छपेगी तो अपनेआप बंदा मान जाएगा."

वहां बैठने से क्या होगा? यहां इसके घर के सामने बैठो तो पता चले.इसीलिए किसीको कुछ भी नहीं बताता है वह.कल परसों कहकर टालता जा रहा है.पानी केलिए रोज़ चक्कर काटने वाले सज्जन सुबह के गए रात को लौट रहे हैं...वह भी खाली हाथ.पर वे भी क्या कर सकते हैं बेचारों ने तो सबकुछ करके  देख लिया है !"

"अरे सबकुछ करनेवाले तो किसान थे!हमने कितना मना किया था कि तालाब में पानी नहीं हैफिर भी धान की फसल बो दी!बडों की बात मानकर ऐसी फसल डालते जिन्हें ज़्यादा पानी की ज़रूरत नहीं होती.वैसे भी इन्हें कोई क्यों नहीं कहता कि रिश्वत मांगने वाले को जूता मारे?"

"सुना है लिंगरावु ने सलाह दी कि ऐसे लोगों से दूर ही रहो!तमाचा खाकर भी ऐसी सलाह् देता है कंबख्त!"

"तुम तो बडे भोले हो जी? वह ऐसी ही सलाह देगा ना?काशय्य का खेत नाले के नीचे ही है ना,इसीलिए ऐसी सलाह दी उसने."

"ऐसा क्यों?" अब भी मैना की समझ में बात नहीं आई.तब तोता मैना के बिल्कुल पास आकर बैठ गया और उसे बांहों में लेकर बोला,"ऐसा ही होता है जी!तालाब में पानी आए इससे पहले काशय्या के खेत में नाले का पानी पहुंच जाता है.पांच एकड में है फसल.पानी बहेगा तो खूब फसल होगी!"

"तो?"मैना ने भोलेपन से पूछा.

"लिंगरावु को तमाचा मरा था शंकर ने.शंकर और काशय्या ने मिलकर खेती की है.फसल अच्छी होगी तो दोनों मज़ा करेंगे.तो फिर लिंगरावु को गुस्सा आएगा ना?"

"अरे बद्माश!ऐसी सलाह देता है जिससे दूसरे का नुकसान हो?उसे तो कभी न कभी इसकी सज़ा ज़रूर मिलेगी.वेंकट को देखा कितना दुःखी है?उसका दुःख देखकर मुझे भी रोना आ गया!पर इतना क्यों रो रहा है वह?"

"नहीं तो क्या करेगा?उधार के पैसे लेकर सबसे पहले पांच एलड ज़मीन में बीज बो दिए."

"तो खेत सूख जाने से रो रहा है क्या बेचारा?"

"हां सूख तो गया है खेत.पर वह इसलिए नहीं रो रहा है.सब कह रहे हैं कि अब तालाब में पानी आने लगा है."

"पर यह तो खुशी की बात है ना? इसमे दुःखी होने की क्या ज़रूरत है?"

"उसका पूरा खेत सूख चुका है,तो ऐसे में दूसरों के खेतों में फसल क्यों उगेयही सोचकर दुःखी है!"

"कम्बख्त! सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे निकले!इसीलिए ये कभी सुखी नहीं रह सकते.सब मिलकर चलें तो कोई काम हो सकता है.है ना?"मैना ने प्यार से तोते की गर्दन को अपनी चोंच से सहलाते हुए कहा.

पौ फटने लगी है.काला आसमान सूरज के इर्दगिर्द अंगडाई लेते हुए उठने लगा.अंधेरे की ज़ुल्फों से झरते फूलों जैसे लग रहे थे पंछी.

"हां सच कहा तुमने.पर एक बात है,जितनी जल्दी बुराई फैलती है,भलाई नहीं फैलती.सबको मिलकर चलने के लिए कहने वाले नामपल्ली तो समझो गया काम से!"

"क्यों ,नामपल्ली को क्या हुआ?"

"अभी हुआ नहीं,होगा!सब लोग उसपर हमला करेंगे.खेत के पानी की बात उठाएंगे."

"मुझे नादान समझकर झूट बोल रहे हो ना?"मैना ने तोते से कहा,"तालाब में पानी लाने का वादा करनेवालों से नामपल्ली का कोई लेना देना नहीं? फिर उसपर क्यों हमला करेंगे?"

"लेना देना नहीं है इसीलिए.छः महीने पहले गांव में क्या हुआ था, याद है ना?"

"याद क्यों नहीं है?गांव में फाइनान्स खोलने की कोशिश का नामपल्ली ने विरोध किया और उसे रोक दिया था.पहले भी दो रुपये ब्याज्पर लोग उधार देते रहे.और जल्दी वापस भी नहीं मांगते थे.चुकाते वक्त पांच दस रुपये कम भर दिए तो भी चलता था.फाइनान्स खुलेगा तो कागज़ पत्र सबका खर्च बढेगा.ब्याज भी बढेगा.फिर उस ब्याज पर भी ब्याज वसूल करेंगे वे.तो उसे रोककर नामपल्ली ने अच्छा ही किया..."

"हां, अच्छा काम था इसीलिए याद रखा उन लोगों ने.किसी को तो ज़िम्मेदार ठहराना है, तो पुरानी दुश्मनी नामपल्ली पर निकाल रहे हैं.राजनीति के माने यही है,समझे?"

"यह तो सरासर नाइन्साफी है!भोले भालों को शिकार बनाएंगे?पर किसान भी अंधे नहीं हैं.सच झ्हूठ का फर्क नहीं जानते? कोई कुछ भी कह देगा तो यकीन कर लेंगे?"

"यकीन नहीं करेंगे तो क्या करेंगे?अगर यकीन न हो तो भी नाटक करेंगे कि यही सच है!मुंह नहीं खोलेंगे.क्यों कि गांव में बसएं आती जाती नहीं हैं ना?"

"अब बसों का यकीन से क्या संबंध है?"

"बहुत है,गाहालीस फुट सडक की आवश्यकता पर उसने सवाल उठाया.अधा गांव उससे नाराज़ है.अभी से यह बात फैलाने लगे हैं कि गांव के विकास में वह टांग अडा रहा है.लोग तो भेड  बकरे हैं...सिर हिलाते रहते हैं.फिर सूपरवैज़र भी तो उन्हीम्के पक्ष में हैं.!एक ही वार में दो चिडियां खतम!"

"दो चिडियां? कौन हैं वे दो?"

"तुम्हें सबकुछ बताना पडेगा क्या?क्या आज ही अमेरिका या सिंगापूर से आई हो?"

"अच्छा सिंगापूर के नाम से याद आया.सैदिरेड्डी की बात कर रहे हो ,क्यों?बेचारा किसीके भी मुंह नहीं लगता था.अपने काम से मतलब रखनेवाला और कमर तोड मेहनत करनेवाला सैदिरेड्डी.उसका ये लोग क्या बिगाडेंगे?"

"सबकुछ बेच बाचने केलिए मजबूर कर देंगे.उसपर मुकद्दमे चलाकार गांव गांव घुमाएंगे.आखिर भिकमंगा बन जाए उसकी ऐसी हालत कर देंगे! उसका तो गांव में नाम है ना? कैसे बर्दाश्त कर सकेंगे?"

"पर वे ऐसा क्यों करेंगे?मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है!"

"देखो,फाइनान्स के जो अधिकारी हैं वे ही सडकों के कांट्राक्टर भी हैं.वे ही पानी का मामला देखनेवाले अधिकारी भी  हैं.उनमें से दो सैदिरेड्डी के पक्ष में हैं.सैदिरेद्देए ने मोती पूंजी लगाकर तालाब के नीचले ज़मीन में दस एकड में ब्
फसल बोई है.अब वह खूब लहलहा रही है ना, इसलिए."

"यह तो गलत बात है.ऐसा नहीं होना चाहिए!"

"हां,गलत तो है ही. कल पहले सैदिरेड्डी नामपल्ली को पीटेगा.क्या वह गलत नहीं होगा?और सैदिरेड्डी को शराब पिलाकर उकसाना उससे भी बडी गलती होगी,है ना?और नामपल्ली भी चुप नहीं रहेगा...हाथापाई होगी...एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाएंगे दोनों.दोनों के सर फूटेंगे.गांव दो वार्गों में बंट जाएगा...क्या ये सब गलत काम नहीं?इतना सब होने के बाद भी दोनों न्याय मांगने गांव के बडों के पास ही जाएंगे!फैसला सुनाने का नाटक कर वे इन्हें पुलिस के हवाले कर देंगे.वह भी गलत होगा.पर बडों की सोच यही है कि एक वार में दोनों को खतम किया जाए.इस झगडे से एक और फायदा भी है.पानी की समस्या पीछे रह जाएगी और यही सबसे बडी समस्या बन जाएगी.बस यही होनेवाला है,देख लेना!"

"हां हां भविष्य बताना तो तेरा काम ही है!फिरभी इससे इन लोगों को क्या फायदा होगा?"

"फायदा नुक्सान की बात छोडो.अभी चुनाव होनेवाले हैं...इसलिए."

"चुनाव होंगे तो क्या?"

नामपल्ली पुराने सरपंच का आदमी है.पुराना सरपंच लोगों की भलाई चाहनेवाला है.वह जीत जएगा...फिर उसपर कीचड उछाले बिना कैसे रह सकतेहैं ये?"

"अच्छा ये पासे फेंककर इंतज़ार करेंगे और जो कुछ होना है अपने आप होता रहेगा?ईमांदारॆ से पानी लाकर गांव के लोगों की मदद करनेवाला नेता कोई नहीं रहेगा?गांव के गांव मरघट बनते जाएंगे तो भी कोई चूं तक नहीं करेगा!पर यह तो बताओ कि गांव में पानी कब आएगा? आयेगा भी या नहीं?"

"आयेगा क्यों नहीं?आयेगा...ज़रूर आएगा.पर तब जब लोगों के आंसू सूख चुके होंगे.सारे खेत सूख गए होंगे!"

"तब आने से क्या होगा?"

"तबतक अधिकारी चेतेंगे नहीं.वह तो उनकी आदत है!एमएलए को या एम पी को यह बता देंगे कि फलां गांव को पानी दे दिया है और फिर उनकी ज़िम्मेदारी खतं समझो."

धूप तेज़ हो गई थी.तोते ने चारों ओर नज़र दौडाई.दूर गिद्ध बैठे दिखाई दिए.निढाल होकर पडे बैल को नोचकर खाने के इंतज़ार करतए आसमान में चक्कर काट रहे थे.

घबराकर तोता और मैना पेड की शाखों में छुप गए.

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मूल तेलुगु कहानी : पेद्दिंटि अशोक कुमार

अनुवाद : आर. शांता सुंदरी.

Saturday, May 21, 2011


अ...

अक्षर मेरा अस्तित्व की रचनाकार डॉ.सी.भवानी देवी प्रमुख समकालीन तेलुगु कवयित्री हैं। उन्होंने समय और समाज के प्रति जागरूक शब्दकर्मी के रूप में अपनी पहचान बनाई हैं। विषय वैविध्य से लेकर शिल्प वैचित्र्य तक पर उनकी गहरी पकड़ ने उन्हें बड़ा रचनाकार बनाया है। 

मनुष्य के रूप में एक स्त्री के अस्तित्व की चिंता डॉ.भवानी के रचनाधर्म की पहली चिंता है। भारत की आम स्त्री उनकी कविता में अपनी तमाम पीड़ा और जिजीविषा के साथ उपस्थित है। इस स्त्री को तरह तरह के भेदभाव और अपमान का शिकार होना पड़ता है, फिर भी यह तलवार की धार पर चलती जाती है, मुस्कुराहटों के झड़ने पर भी अक्षर बनकर उठती है और प्रवाह के विपरीत तैरने का जीवट दिखाती है। माँ इसके लिए दोहरी संवेदनाओं का आधार है - जूझने के संस्कार का भी और आत्मसमर्पण करके पहचान खो देने के संस्कार का भी। इस द्वन्द्वात्मक संबंध में कवयित्री स्वतंत्र अस्तित्व के पक्ष को चुनती है - "पर माँ! / अब मैं अक्षर बन उठ रही हूँ / यह प्रवाह मुझे अच्छा नहीं लगता /  इसलिए मैं विपरीत दिशा में तैर रही हूँ / तुम्हारी पीढ़ी हैरान रह जाए / इस अंदाज से / अपनी पीढ़ी में सिर उठा रही हूँ / अब आगे / अक्षर ही मेरा अस्तित्व होगा!" 

डॉ.भवानी देवी की स्त्री अतीत को एक पूजाघर मानती है जिसमें थोड़ी देर ठहरना तो ठीक है पर हमेशा के लिए बसना नहीं। यह स्त्री निरंतर उछलते जल प्रपात की तरह यात्रा में है - इस बोध के साथ कि ‘जीवन तो लहर नहीं / कि दोबारा पीछे की ओर बह जाए। इस स्त्री को यह भी बोध है कि अस्मिता की बात करने पर, अक्षर अस्तित्व की चर्चा करने पर पुरुष समाज उसके स्त्रीत्व तक को कटघरे में खड़ा कर देगा, लेकिन वह पिंजड़ों को गले लगाने के पागलपन को दुहराने के लिए तैयार नहीं है। घर गृहस्थी में जब घरवाली के हिस्से में सिर्फ टूटा फूटा प्यार और उपचार के नाम पर उपहास ही आता है तो वह इस बेगार से छुटकारे के लिए आवाज लगाती ही है - 
"तरंग बनूँ तट को पार करूँ...
पतंग बनूँ आकाश के  अंतिम छोर तक उडूँ...
हिम बनूँ जी भर बहने लगूँ...
पेड़ की जड़ बनूँ कोपलों को सीने से लगा लूँ...
प्रातः बनूँ आराम से बाग़ में घूमूँ फिरूँ...
मानवी बनूँ
प्यूपा को तोड़कर 
तितली बनकर हवा के संग-संग उड़ जाऊँ...।"

इसके अलावा कवयित्री भूमंडलीकरण के नाम पर उभर रही एकजैसेपन से ग्रस्त संवेदनहीन ठंडी दुनिया को देखकर मनुष्‍यता के भविष्य के बारे में बेहद चिंतित हैं। घर हो या बाहर, आज का मनुष्य सर्वत्र एक ऊष्म आत्मीय स्पर्श के लिए तरस रहा है। संबंधशून्यता और असंपृक्ति की यह  बीमारी शहरों से चलकर अब गाँवों तक पहुँच गई है जिस पिशाच ने सारे शहरों को निगला है वह अब हमारे गाँवों पर भी टूट पड़ा है। अब खेतो में फसल नहीं नोटों की गड्डियाँ उगाई जाने लगी हैं। परिवार टूट रहे हैं; बाजार फैल रहे हैं। बाजार के इस दैत्य ने घर की बोली को चबा लिया है और पराई भाषा अपनों को पराया करके भारत को अमेरिका की ओर उन्मुख कर रही है। लेकिन इसी समय का सच यह भी है कि बाजार के साम्राज्य  के बरक्स छोटी छोटी स्थानीय संवेदनाएँ अंधेरे के विस्तार के समक्ष दिये की तरह सिर तानकर खड़ी हैं। वर्तमान समय में कविता की सबसे बड़ी प्रासंगिकता स्थानीयता की इस संवेदना को बनाए रखने में ही निहित है - "आज गाँव है / एक उजड़ा मंदिर / फिर भी मेरे पैर उसी ओर खींच ले जाते हैं मुझे / भले ही मंदिर उजड़ गया हो / वहाँ एक छोटा-दीया जलाने की इच्छा है।"

कवयित्री धरती पर फैलते रेगिस्तान और दिलों में फैलती अमानुषता के प्रति बेहद चिंतित हैं। वे जानती हैं कि सृजन के लिए कोमलता चाहिए होती है, द्रवणशीलता की दरकार होती है। शिशिर वन जैसे सूखे दिलों में आग के तूफान उठते रहेंगे तो भला हरियाली के अंकुर कहाँ से फूटेंगे? अगर यही हाल रहा तो ‘पिघलने वाले मनुष्य का नामोनिशान भी नहीं रहेगा! अगर ऐसा हुआ तो दुनिया को बेहतर बनाने के सपने अकारथ  हो जाएँगे: लेकिन मनुष्यविद्ध कविता के रहते यह संभव नहीं.   

डॉ.सी.भवानी देवी की काव्यभाषा अपनी बिंबधर्मिता और विशिष्‍ट सादृश्‍यविधान के कारण मुझे खास तौर पर आकर्षित करती है। आवाजों के बीच जमने वाले शून्य  की तरह हाथ मिलाने में, सारे दृश्‍य़ बर्फ के टुकड़ों की तरह टूटते गिरते रहते हैं, मन को घेरने वाली धुंध जैसे मौन को छोड़कर, मौन हजारों लाखों शब्दों को बर्फ की तरह घनीभूत कर देता है, एक एक पन्ने में से उठतीं चमेली के फूलों की ज्वालाएँ, युद्ध के बड़े बड़े दाँतों के बीच फँसकर कटनेवाले बचपन, रीढ़ की हड्डी बनता हुआ तकिया, नाभिनाल के कटते ही पगहे से बाँध दी गई लड़की, बिना साए का इंसान, दोनों हाथ ऊपर उठाकर बुलाती स्त्री, पीछे रस्सी से बँधे हाथों वाली स्त्री, पिंजरे में बँधी पंछी की तरह नरक भोगती स्त्री, मकबरे  को तोड़कर निकलने वाली पुकार जैसी तलवार से बुरके को सिर से पाँव तक काटती हुई स्त्री, चिकने पहाड़ पर चढ़ती, फिसलती और फिर फिर चढ़ती हुई स्त्री, चारों ओर समुद्र ही समुद्र होते हुए प्यास बुझाने को एक बूँद पानी के लिए तरसना, दोस्त के इंतजार में आँखें बिछाए बैठा घोंसला, मेरा बचपन किताबों में मोर पंख सा छिपा हुआ है, उस घर की ईंट ईंट पर मेरे नन्हे हाथों की छापें अब भी गीली दिखती हैं - ये सारे शब्दचित्र कवयित्री की गहन संवेदनशीलता और सटीक अभिव्यक्‍ति क्षमता के जीवंत साक्ष्य हैं।

चाहे सुनामी हो या तसलीमा नसरीन पर हमला, कुंभकोणम के स्कूल में अग्निकांड में बच्चों की मृत्यु हो या 25 अगस्त 2007 को लुंबिनी पार्क और गोकुल चाट भंडार में आतंकवादी बम विस्फोट की घटनाएँ - हर छोटी बड़ी चीज़  कवयित्री डॉ.सी.भवानी देवी के मन मस्तिष्क के तारों को झनझना देती है। धर्म, भाषा, जाति, राजनीति और न जाने कितनी तरह के आतंकवाद और युद्धों को झेलती हुई  मनुष्यता का आक्रोश भवानी देवी के शब्दों में ढल कर  श्‍लोकत्व प्राप्त करता है - 
"हे धर्म...
अब तुझे ख़त्म करके ही
हम जीवन पाएँगे!
तुझे सिंहासन पर चढ़ाते रहेंगे जब तक
तब तक 
मैं आँसुओं से भरी घटा ही बनी रहूँगी
तेरे पैरों तले कबूतरी-सी कुचलती रहूँगी!"

श्रीमती आर.शांता सुंदरी ने डॉ.सी.भवानी देवी की इन कविताओं को अत्यंत सहज और प्रवाहपूर्ण अनूदित पाठ के रूप में प्रस्तुत किया है। अक्षर मेरा अस्तित्वमें संकलित यह अनुवाद हिंदी भाषा की प्रकृति और हिंदी कविता के मुहावरे में इस तरह ढला हुआ है कि अनुवाद जैसा लगता ही नहीं। वस्तुतः आर.शांता सुंदरी के पास स्रोत भाषा तेलुगु और लक्ष्य भाषा हिंदी दोनों ही के साहित्य और समाज का इतना आत्मीय अनुभव है कि अनुवाद उनके लिए अनुसृजन बन जाता है। इस कृति के माध्यम से उन्होंने तेलुगु की एक प्रमुख कवयित्री की प्रतिनिधि रचनाओं से हिंदी जगत का परिचय कराकर सही अर्थों में भारतीय साहित्य की अवधारणा को समृद्ध किया है। 

हिंदी जगत में अक्षर मेरा अस्तित्व को स्नेह और सम्मान मिलेगा, ऐसा मेरा दृढ़ विश्‍वास है।

- ऋषभदेव शर्मा
21 मई, 2011