Friday, January 3, 2014

१. तितिक्षा

मेरा मन कर रहा है मौन आक्रोश

अविराम सहस्राधिक हृदयों में

गरमी पैदा कर हक्का बक्का करनेवाला था तू

सहानुभूति केलिए

किसीसे तसल्ली पाने केलिए

छटपटाते हुए प्रतीक्षा करना

कितनी भयंकर स्थिति है!

अनबुझ प्यास से लपलपाती जीभ से

सूरज की किरणों पर चढकर

प्रवाहित होना था तुझे

लोगों की भीड भरे जंगल में

एक अनाम पत्ते की तरह चिपके हो

यह कितने दुर्भाग्य की बात है !

तुम्हें ग्रस लिया है किसी सामाजिक रुग्मता ने

पूंछ कटे तारों को देखते हुए

रात के छोर पर चलते चलते

कामना के झुलसे पलों को खोते हुए

अब इस तरह

अनजान भयविह्वलता में दग्ध होकर

मौत को धीरे धीरे चूसते हुए

तुम्हारा एकाकीपन

होकर शमित दमित

पैदा करे किसी एक आकार को

मालूम नहीं

किसी अज्ञात तितिक्षा का

उदय हुआ हो तुझमें शायद!

अब तुझे नहीं बुलाऊंगा वापस

अब तेरी क्रांति के पग

चुस्ती से उठें

इस प्रातः की राह पर

धीरे धीरे चलते चलो.

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२.विषाद-योगी

अंधकार की लहरों से भरा

अनंत तक फैला मैदान

अहंकार नहीं मिटता मेरा

इसलिए घायल हूं मैं

फिर भी नहीं छूटता मेरा अहंकार

वहां...वह देखो मेरा साथी

धमकाए तो भी

उसके सिवा

कोई साथी मनुष्य का न होना

कितने बडे विषाद की बात है!

मंत्र तंत्र फूंकनेवाले

यंत्रवादी कहां गए?

हमको घेरे हैं मनुष्यों के कंकाल

और सुप्त निश्शब्द

अतीत के वियोग में

घिर आए हैं मन्मथवेदना के वलय

यहीं मधुपान की गोष्ठी

यही है सुरत प्रदेश

सामने समुद्र के राक्षसी मुष्टि के आघातों से

घिस घिसकर टूटे बिना

रिसते खूनी घावों से भरे

क्षतविक्षत हृदय लेकर

बिखरे हैं येराडा पहाड के पत्थर

समुद्र तट पर विषाद योगी

कर रहा है दुःख का अन्वेषण

इस दीर्घ निशीथि में

श्मशान शय्या पर.

अब सुप्रभात होने की

सूचना नहीं है कहीं!


मूल कविता : डा.धेनुवकोंड श्रीराममूर्ति

अनुवाद : आर.शांता सुंदरी

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अक्षरों का अर्तनाद

                                                                  मूल तेलुगु : डा.धेनुवकोंड श्रीराम मूर्ति
                                                                  हिंदी अनुवाद : आर.शांता सुंदरी


क्षमा करो मुझे
संक्षिप्ताक्षर बन सिमटना नहीं चाहता मैं
इसी लिए जा रहा हूं पराया देश बिककर
माफ करो मुझे
ये भयानक प्रवास
हाहाकार
गाली गलौज़
पुतले जलाकर अग्नि कांड
बीच सडक कर्म कांड
ये सारे रास्ते
बन गए नरक द्वार
स्व-नियंत्रित
रहस्यमयी कुतंत्र मॆं
कब जी पाएग
हरेक नागरिक आराम से?

यहां पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण
काम नहीं करता इन्सान पर
बस,है तो सिर्फ धनाकर्षण!
शरीर पर घाव है
पर कहां है नहीं मालूम
आकुल व्याकुल है मन पीडा से


महामाया के तंत्र-योग में है
प्रकाश
सोख लिया जिसे शरीर ने
जाना है जिस देश
वहां गए बिना ही
गुज़रते जा रहे हैं दिन
गली में
किसीके कदमों की आहट
आशा जागती है मन में
कहीं शांति की पदचाप तो नहीं
आज के शिशिर ऋतु केलिए
कल के पत्ते
पीले पडकर
झर रहे हैं

देश की देह को
नदियों में
न बांटनेवाले देश में
इन्सान में भलाई है जिस देश में
पेडों पर कोंपलों की आशाएं
फूटने के देस में
हे प्रभू!
ले जाओ मुझे!!


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जीवन एक यादें अनेक


देह के वस्त्र को
कृष्णा नदी में संचय करते समय
शरीर छोडने की आहट
छोड गए जो यादें मेरे पिता
घेरने लगी हैं मुझे.
कभी किसीके आगे
पसारा नहीं था हाथ
नहीं दिया था किसीको धोखा
नहीं झुकाया था सिर किसीके सामने
पिता जी का रहा
इच्छारहित जीवन
दुःख के मौसम का जीवन
हमेशा मांगते थे
’अनायास मृत्यु’
महामौनि की मौत.

मेरे बाल्य के प्रवाह को
मोड देनेवाले पिता
नादान उम्र में
सावधान और सतर्क रहने की सबक
सिखानेवाले पिता .

खुद को समझने ही लगा था
जब गुज़र गई मां भी
एकांत में रुदन
अंतर्दाह की जलन
अनुभव के स्वप्नों का असहाय विषाद
जीवन एक
यादें अनेक.

देह जब बनने लगे निर्देह
तब पिता की शव-यात्रा.

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गांव डूब गया (सबमर्ज्ड विलेज)


आंखे बंद नहीं
पर देख रहा हूं सपना
अचेतन स्वप्नावस्था में
चलते,तैरते,उडते हुए
धीरे से,धीरज से,भोलेपन से
शाश्वत विनाश में
जल-समाधि में डूबे गांव को
डूबे आदमी के निशान को
ढूंढ रहा हूं मैं.

धेनु विचरता था जिस पहाड पर
राम की अटारी के ऊपर
पीपल पेड के नीचे
झरती यादें
कान्हा की बांसुरी में भरी
चांदनी की हवा
ईश्वर - कुएं की रहट पर
रसीले सुर बजानेवाली उंगलियां
चौपाल पर सुनाया गया
सम्मोहित कर देनेवाला कविता-गान
सुख-शांति से भरा गांव का जीवन
आम इन्सान और महात्मा
बसते थे जहां सुगंध बन महान
नदी के हृदय को हाथों से छूनेवाली
जल-यज्ञ संस्कृति का
ब्रेंड एंबासिडर जैसा
गुंड्लकम्म!*

***

परियोजना का प्रतिबिंब
दिखता है जल्लद के चेहरे-सा
खेत
सूख गए पानी के अभाव में पिछले साल
डूब गए बाढ की चपेट में आकर आज

***

आंसुओं से तप्त
क्षुब्ध क्षण
लेकर देह असंतृप्त कामनाओं की
उतरकर पितृलोक से नीचे
आदिलक्ष्मी कामेश्वरी की करते हुए अर्चना...
अपनी कोई वस्तु यहीं छूट गई
ऐसा सोचकर
उसे ढूंढनेवाले पूर्वज
चमेली के उपवनों
केतकी के परागकणों
रसभरे फूलों के उद्यानों
और तंबाकू के बागानों में
हरे कोमल पत्तों को तोडते
मदभरे गान
गेहूं की बालियों के
फूलों के हार
***

यादें मिटी नहीं
चक्कर काट रही हैं
नदिया के छोरों पर
लिपि नहीं आती समझ में
देख रहा हूं झुककर घुटनों के बल.

*एक नदी का नाम

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