१. तितिक्षा
मेरा मन कर रहा है मौन आक्रोश
अविराम सहस्राधिक हृदयों में
गरमी पैदा कर हक्का बक्का करनेवाला था तू
सहानुभूति केलिए
किसीसे तसल्ली पाने केलिए
छटपटाते हुए प्रतीक्षा करना
कितनी भयंकर स्थिति है!
अनबुझ प्यास से लपलपाती जीभ से
सूरज की किरणों पर चढकर
प्रवाहित होना था तुझे
लोगों की भीड भरे जंगल में
एक अनाम पत्ते की तरह चिपके हो
यह कितने दुर्भाग्य की बात है !
तुम्हें ग्रस लिया है किसी सामाजिक रुग्मता ने
पूंछ कटे तारों को देखते हुए
रात के छोर पर चलते चलते
कामना के झुलसे पलों को खोते हुए
अब इस तरह
अनजान भयविह्वलता में दग्ध होकर
मौत को धीरे धीरे चूसते हुए
तुम्हारा एकाकीपन
होकर शमित दमित
पैदा करे किसी एक आकार को
मालूम नहीं
किसी अज्ञात तितिक्षा का
उदय हुआ हो तुझमें शायद!
अब तुझे नहीं बुलाऊंगा वापस
अब तेरी क्रांति के पग
चुस्ती से उठें
इस प्रातः की राह पर
धीरे धीरे चलते चलो.
..............................................
२.विषाद-योगी
अंधकार की लहरों से भरा
अनंत तक फैला मैदान
अहंकार नहीं मिटता मेरा
इसलिए घायल हूं मैं
फिर भी नहीं छूटता मेरा अहंकार
वहां...वह देखो मेरा साथी
धमकाए तो भी
उसके सिवा
कोई साथी मनुष्य का न होना
कितने बडे विषाद की बात है!
मंत्र तंत्र फूंकनेवाले
यंत्रवादी कहां गए?
हमको घेरे हैं मनुष्यों के कंकाल
और सुप्त निश्शब्द
अतीत के वियोग में
घिर आए हैं मन्मथवेदना के वलय
यहीं मधुपान की गोष्ठी
यही है सुरत प्रदेश
सामने समुद्र के राक्षसी मुष्टि के आघातों से
घिस घिसकर टूटे बिना
रिसते खूनी घावों से भरे
क्षतविक्षत हृदय लेकर
बिखरे हैं येराडा पहाड के पत्थर
समुद्र तट पर विषाद योगी
कर रहा है दुःख का अन्वेषण
इस दीर्घ निशीथि में
श्मशान शय्या पर.
अब सुप्रभात होने की
सूचना नहीं है कहीं!
मूल कविता : डा.धेनुवकोंड श्रीराममूर्ति
अनुवाद : आर.शांता सुंदरी
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मेरा मन कर रहा है मौन आक्रोश
अविराम सहस्राधिक हृदयों में
गरमी पैदा कर हक्का बक्का करनेवाला था तू
सहानुभूति केलिए
किसीसे तसल्ली पाने केलिए
छटपटाते हुए प्रतीक्षा करना
कितनी भयंकर स्थिति है!
अनबुझ प्यास से लपलपाती जीभ से
सूरज की किरणों पर चढकर
प्रवाहित होना था तुझे
लोगों की भीड भरे जंगल में
एक अनाम पत्ते की तरह चिपके हो
यह कितने दुर्भाग्य की बात है !
तुम्हें ग्रस लिया है किसी सामाजिक रुग्मता ने
पूंछ कटे तारों को देखते हुए
रात के छोर पर चलते चलते
कामना के झुलसे पलों को खोते हुए
अब इस तरह
अनजान भयविह्वलता में दग्ध होकर
मौत को धीरे धीरे चूसते हुए
तुम्हारा एकाकीपन
होकर शमित दमित
पैदा करे किसी एक आकार को
मालूम नहीं
किसी अज्ञात तितिक्षा का
उदय हुआ हो तुझमें शायद!
अब तुझे नहीं बुलाऊंगा वापस
अब तेरी क्रांति के पग
चुस्ती से उठें
इस प्रातः की राह पर
धीरे धीरे चलते चलो.
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२.विषाद-योगी
अंधकार की लहरों से भरा
अनंत तक फैला मैदान
अहंकार नहीं मिटता मेरा
इसलिए घायल हूं मैं
फिर भी नहीं छूटता मेरा अहंकार
वहां...वह देखो मेरा साथी
धमकाए तो भी
उसके सिवा
कोई साथी मनुष्य का न होना
कितने बडे विषाद की बात है!
मंत्र तंत्र फूंकनेवाले
यंत्रवादी कहां गए?
हमको घेरे हैं मनुष्यों के कंकाल
और सुप्त निश्शब्द
अतीत के वियोग में
घिर आए हैं मन्मथवेदना के वलय
यहीं मधुपान की गोष्ठी
यही है सुरत प्रदेश
सामने समुद्र के राक्षसी मुष्टि के आघातों से
घिस घिसकर टूटे बिना
रिसते खूनी घावों से भरे
क्षतविक्षत हृदय लेकर
बिखरे हैं येराडा पहाड के पत्थर
समुद्र तट पर विषाद योगी
कर रहा है दुःख का अन्वेषण
इस दीर्घ निशीथि में
श्मशान शय्या पर.
अब सुप्रभात होने की
सूचना नहीं है कहीं!
मूल कविता : डा.धेनुवकोंड श्रीराममूर्ति
अनुवाद : आर.शांता सुंदरी
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