tag:blogger.com,1999:blog-35736287801138934472024-02-07T00:45:12.438-08:00anusrujanasantha sundari.rhttp://www.blogger.com/profile/08435993185719238671noreply@blogger.comBlogger33125tag:blogger.com,1999:blog-3573628780113893447.post-43458485566888127722016-02-14T18:55:00.003-08:002016-02-14T18:55:49.128-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>'विमुक्ता ' </b>मूल तेलुगु संग्रह को इस साल के केंद्रीय साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा है . </div>
santha sundari.rhttp://www.blogger.com/profile/08435993185719238671noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3573628780113893447.post-38060708020741022016-02-14T18:51:00.000-08:002016-02-14T18:51:26.470-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi97ZjjbHBG8Rpfvzz_5ARAuC56kMTqORzmq4P76uwOjQzUmwXoDdogNndRb_w_pORu3LMBp22ZXPHAAmI8YUQuJ8FuhDl0k0k4BlURanpjMK47ZizcVaiaoNPjXhmWhCLuDNe_5RONNcfD/s1600/12346412_10201427331162144_8263556073455590042_n.jpg" imageanchor="1"><img border="0" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi97ZjjbHBG8Rpfvzz_5ARAuC56kMTqORzmq4P76uwOjQzUmwXoDdogNndRb_w_pORu3LMBp22ZXPHAAmI8YUQuJ8FuhDl0k0k4BlURanpjMK47ZizcVaiaoNPjXhmWhCLuDNe_5RONNcfD/s320/12346412_10201427331162144_8263556073455590042_n.jpg" width="320" /></a><br />
<br />
ओल्गा का कहानी-सन्ग्रह,'<b>विमुक्ता' </b>का मेरा अनुवाद लगभग दो साल पहले प्रकाशित हुआ था. मूल रचना का शीर्षक भी '<b>विमुक्ता '</b>है जिसकी कहानियां सीता से सम्बन्धित हैं.</div>
santha sundari.rhttp://www.blogger.com/profile/08435993185719238671noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3573628780113893447.post-53384789287719046932015-10-18T22:46:00.000-07:002015-10-19T09:38:29.851-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="p1">
<br /></div>
<div class="p2">
<br /></div>
<div class="p3">
<br /></div>
<br />
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="t1">
<tbody>
<tr>
<td class="td1" valign="top"><div class="p3">
<br /></div>
<div class="p4">
</div>
<div class="p5">
तेलुगु कहानी का अनुवाद</div>
<div class="p6">
<br /></div>
<div class="p6">
<br /></div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0">
<tbody>
<tr>
<td class="td2" valign="middle"><div class="p7">
<br /></div>
</td><td class="td3" valign="middle"><br /></td></tr>
</tbody></table>
<div class="p3">
<br /></div>
<div class="p3">
<br /></div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0"><tbody>
<tr><td colspan="2" valign="top"><div class="p3">
<br /></div>
<div class="p3">
<br /></div>
<div class="p3">
<br /></div>
<div class="p3">
<br /></div>
<div class="p3">
<br /></div>
<div class="p5">
<b> रीच आउट </b> तेलुगु मूल ः विजया कर्रा</div>
<div class="p5">
अनुवाद ः आर.शांता सुंदरी</div>
<div class="p12">
<br /></div>
<div class="p12">
<br /></div>
<div class="p5">
रेणू ने फिर एक बार सेल फोन में टाइम देखा.वह सिर्फ इसलिए परेशान नहीं थी कि बस के आने में देर हो गई,कुछ दूरी पर स्कूटर पर बैठे दो जवान लडके उसकी ओर देख देखकर और कुछ कहते हुए हंस रहे थे और बडी बेशर्मी से उसे ताक रहे थे.साथ खडे सज्जन यह सब अनदेखा करके सामने की दीवार पर लगे फिल्मी पोस्टर देख रहे थे.बस स्टॉप के ठीक सामने लगे बडे बडे पोस्टरों में बहुत ही कम कपडे पहने करीना और कत्रीना खडी थीं.</div>
<div class="p12">
<br /></div>
<div class="p5">
जल्दी घर पहुंचकर भौतिकी का असाइनमेंट खत्म करना है, बस जल्दी आ जाए तो बेहतर होगा,रेणू यह सोच ही रही थी कि दूर से एक बस आती दिखाई दी.दो कदम आगे चली तो पता चला वह उसकी बस नहीं है. पोस्टर देखनेवाले सज्जन उसमें चढ गए और बस चली गई.अब स्तॉप पर वह अकेली थी. बाइक पर बैठा एक लडका मुस्कुराते हुए उसके पास आकर खडा हो गया."और कितनी देर इंतजार करोगी,हमारे साथ बाइक पर बैठो और हम तुम्हें घर छोड़ देंगे ..."रेणू ने अंदर की घबराहट जाहिर न होने दी और दूसरी ओर सिर घुमाकर देखने लगी जैसे उसकी बात सुनी ही नहीं.पर मन में सोचने लगी कि अगर लडकों की हिम्मत और बढ गई और हालत खतरनाक हो गई तो क्या करना </div>
<div class="p5">
चाहिए.तय किया कि दस तक गिनूंगी और उसके बाद जो भी बस आई उसमें चढ जाऊंगी ,बस नहीं आई तो सडक के उस पार रेस्ट्रां में चली जाऊंगी...एक...दो...तीन...</div>
<div class="p5">
* * *</div>
<div class="p5">
आर्या कालॉनी के पास स्कूल बस आकर रुकी.क्लीनर दरवाजा खोलकर नीचे खडा हो गया. चार से दस साल के बीच के बच्चे एक एक करके उतरने लगे.दीपा के उतरते ही उसने उसे छाती से भींच लिया और गाल पर कसकर चुम्मा दिया और नीचे उतारा.खिडकी में से देखनेवाले और पीछे से उतरनेवाले बच्चे जोर से हंस पडे.ड्राइवर ने क्लीनर की ओर हिकारत भरी नजर से देखा.क्लीनर ने ड्राइवर से कहा,"बडी प्यारी बच्ची है !" जैसे अपनी हरकत केलिए सफाई दे रहा हो.ड्राइवर को एल. के. जी. में पढनेवाली अपनी बेटी याद आई.कुछ कहने को हुआ फिर चुप रह गया.</div>
<div class="p5">
अपमान,शर्म जैसे शब्द नहीं जानती थी दीपा.पर उसे कुछ अजीब जरूर लगा था ,इसीलिए सिर झुकाए धीरे धीरे पैर खींचते चलने लगी.</div>
<div class="p5">
बस में से सबसे आखिर नीचे कूदी ग्यारह साल की शक्ति.उसकी नजर दस कदम आगे चलनेवाली दीपा पर थी.उसे पुकारना चाहा ,पर चुप रह गई.अपार्टमेंट के बाहर दीपा की मां खडी थी और दीपा का हाथ पकडकर वह अंदर चली गई.शक्ति भागकर सीढियां चढ गई और अपने फ्लेट का दरवाजा जोर से खटखटाते हुए तीन बार अपनी मां को पुकारा."क्या है शक्ती!एक मिनट भी नहीं रुक सकती?" कहती हुई सविता ने दरवाजा खोला.बस,शक्ति ने अपना बस्ता सोफे पर पटका और कहा,"मां ,फौरन हमें दीपा के घर जाना होगा,"और दरवाजे की ओर मुडी.सविता ने उसका हाथ पकडकर रोका और पूछा," इतनी जल्दी किसलिए,बता?"</div>
<div class="p5">
"हमारे स्कूल बस का क्लीनर भैया अच्छा आदमी नहीं है,मां! दीपा को बिना वजह छूता रहता है.मुझे वह गलत लगता है.आज उसने उसे चूम भी लिया.सिर्फ दीपा को ही नहीं,बाकी छोटे बच्चों के साथ भी ऐसा ही करता है..." इतना कहकर वह हांफने लगी.यह सुनकर सविता अवाक रह गई.</div>
<div class="p5">
"दीपा बहुत उदास है , हम जाकर आंटी को उस क्लीनर के बारे में बताएंगे मां! रेणू के आने से पहले लौट आएंगे," शक्ति ने कहा.अपनी उम्र से ज्यादा परिपक्व सोच,और ऊपर से रोज टीवी पर खबरें देखना, जाहिर है कि शक्ति की नजर से ऐसी बतें छुपती नहीं.शक्ति का दीपा की मां को सचेत करने का प्रस्ताव सविता को अच्छा लगा.उसने सोचा,स्कूल बस में जानेवाले बाकी बच्चों के मां बाप से भी बात करके शिकायत करना ठीक होगा,</div>
<div class="p12">
<br /></div>
<div class="p5">
* * *</div>
<div class="p12">
<br /></div>
<div class="p5">
तीन...चार...पांच...गिनती पूरी होने से पहले ही वह बस थोडी दूर जाकर अचानक रुक गई . उसमें से दो लडके और तीन लडकियां उतरे और रेणू की तरफ चलकर आए.बस चली गई.</div>
<div class="p12">
<br /></div>
<div class="p5">
"अरे कितनी देर से खडी हो?बस नहीं आई?" रेणू के पास आकर दोनों में से एक लडके ने पूछा.पीठ पर बैकपैक लटकाए लाल टी शर्ट पहने उस लडके की ओर रेणू ने सकपकाई नजरों से देखा." चेतन ने पहले तुम्हें यहां देखा,तो हम भी बस रुकवाकर उतर गए," एक लडकी बोली,और हल्के से आंख मारकर इशारा किया.पांच अनजान लोग उससे ऐसे बात कर रहे थे जैसे उसे अच्छी तरह जानते हों.बात रेणू की समझ में आ गई तो वह भी मुस्कुरा उठी और बोली,"हां रे , आज बस के आने में देर हो गई..." . तबतक पास खडे होकर उसे परेशान करनेवाला लडका चुपचाप खिसग गया.अपने दोस्त के पास गया और बाइक पर बैठकर दोनों चले गए। </div>
<div class="p5">
तब चेतन ने अपनी जेब से एक कार्ड निकालकर उसे देते हुए कहा, " अगर कभी आपको इस तरह की परेशानी हो,या किसी भी तरह की मदद की जरूरत हो तो इसपर लिखे नंबर पर फोन करें.यह एक हेल्प लाइन का नम्बर है.एरिया के हिसाब से वाट्स अप ग्रूप्स भी हैं.फोन आते ही हम तीन चार लोग मदद केलिए पहुंच जाते हैं.आप अपने बारे में,परिवार,दोस्त सबके बारे में विवरण देकर हेल्प लाइन का सदस्य बन सकती हैं.अपने दोस्तों को भी इसके बारे में बताइए." रेणू ने कहा," धन्यवाद,जरूर सदस्य बनूंगी!" उसने मुस्कुराकर कृतज्ञता प्रकट की.</div>
<div class="p12">
<br /></div>
<div class="p5">
* * *</div>
<div class="p5">
पहली मंजिल के कोने के फ्लैट का दरवाजा वह लगातार पीटता जा रहा था. रेणू बैठकर पढ रही थी. उसने अपनी छोटी बहन से,जो वहीं बैठकर टीवी देख रही थी ,अंदर जाने को कहा और दरवाजा खोलने उठी.शक्ति को टीवी का कार्यक्रम </div>
<div class="p5">
बीच में छोडकर जाना बुरा लगा और पैर पटकती अंदर चली गई.सविता खाने की मेज पर प्लेट और खाने के बरतन </div>
<div class="p5">
सजा रही थी.उसके बदन में हल्की सी कंपकंपी उठने लगी.रेणू से कहा,"तुम भी अंदर बैठकर पढो.मैं बात करके भेज दूंगी."मां की बात को अनसुनी करके रेणू ने जाकर दरवाजा खोला और रास्ता रोककर खडी हो गई.आनेवाले से उसने </div>
<div class="p5">
पूछ,"क्या बात है अंकल , आप इस वक्त यहां?"पडोसी फ्लैट में रहनेवाला महाशय,जो पीछे खडा तमाशा देख रहा</div>
<div class="p5">
था,रेणू को देखते ही चुपचाप खिसक गया.</div>
<div class="p5">
रेणू के सवाल का जवाब न देकर उसे हल्के हाथ से परे हटाकर वह आदमी अंदर आ गया.उसके साथ ही ऑल्कहाल की</div>
<div class="p5">
तेज बू की भभक भी अंदर आ गई.वह सीधे जाकर सोफे पर बैठ गया और भारी पलकें उठाकर सविता को देखते हुए </div>
<div class="p5">
कहा," तुम्हारी बेटी बडी बदतमीज है !घर आए आदमी से सवाल करती है कि क्यों आए?"</div>
<div class="p5">
"यह लडकियों वाला घर है.इस वक्त आपका आना ठीक नहीं है ना?"सविता की आवाज में अब भी कंपकंपी थी.</div>
<div class="p5">
"लडकियों वाला घर है इसीलिए तो हालचाल पूछने आया हूं.मेरे दोस्त के बच्चे सही सलामत हैं या नहीं यह जानना </div>
<div class="p5">
मेरा फर्ज बनता है. पर मैंने जो मदद की उसे कौन याद रखेगा? मेरा यहां आना अब खटकेगा ही ना ?"उसने ताना कसा। </div>
<div class="p5">
सविता को मालूम हो गया कि अब यह श्ख्स हिलनेवाला नहीं,इसलिए वह खाने के मेज के पास कुर्सी पर बैठ गई. वह </div>
<div class="p5">
सोच में पड गई, जब पति अचानक चल बसे तो इसी आदमी ने बहुत मदद की थी.बाद में भी पति का पेन्शन वगैरह दिलाने में भाग दौड की.यह सविता के पति के दफ्तर में ही काम करता है.पर कुछ समय बाद उसका रवैया बदल </div>
<div class="p5">
गया.पिछ्ले तीन महीनों से पीछे पड़ गया है। जब मन किया घर आ जाता और परेशान करता रहता.नशे में धुत्त आदमी का क्या भरोसा,कुछ अनहोनी हो गई तो पडोसियों को मुंह दिखाने के भी काबिल नहीं रहेगी.रेणू बार बार मां से झगडा करती कि या तो उनके घर जाकर पत्नी को उसके बारे में बताएंगे या पुलिस में शिकायत करेंगे.पति की मौत के वक्त उसकी पत्नी आई थी,पर उसके बाद उससे कभी नहीं मिली.क्या जाने शिकायत करने पर उल्टा हमें ही गलत ठहरा दे ! उसे लगा,अबोध दीपा और सबकुछ जाननेवाली मेरी असहाय परिस्थिति में कुछ खास फर्क नहीं है.</div>
<div class="p5">
रेणू ने देखा कि वह आदमी उसकी मां को निहारता जा रहा है .उसका ध्यान बटाने केलिए उसने कहा,"अंकल,अंधेरा हो गया ,अब आप घर जाइए." वह आदमी भडक उठा और गुस्से से बोला," पहले तू अपना मुंह बंद रख !"सविता को बुरा </div>
<div class="p5">
लगा.खुद रेणू के पिता ने भी कभी इस तरह उसे नहीं डांटा था.</div>
<div class="p12">
<br /></div>
<div class="p5">
रेणू से अब चुप नहीं रहा गया दुःख और आवेश उमड पडे. शाम को चेतन का दिया हेल्प लाइन कार्ड किताब में से झांक रहा था.बाहर निकले हिस्से पर 'रीच आउट' शब्द चमक रहा था.उसे बाहर निकाला और दूसरे हाथ में फोन लिया. फोन में दर्ज किए नंबर देखने लगी तो एक नंबर पर नजर पडी.बाल्कनी में जाकर नंबर लगाया.पांच मिनट बात करके वापस अंदर आई और किताब लेकर बैठ गई.बस पांच छः मिनट बाद चौथी मंजिल पर रहनेवाली चंद्रकला सविता को बुलाते हुए अंदर आई और पूछने लगी,"कैसी हो दीदी?"उसके पीछे पीछे उसका पति और दो बच्चे अंदर आ गए.लगा जैसे हडबडी में घर से निकले थे.चंद्रकला नाइटी पहने थी और उसका पति अभी नाइट ड्रस में ही था.</div>
<div class="p5">
"क्या बात है दीदी,आजकल आप कहीं दिखाई नहीं देती? सोसाइटी की मीटिंग में भी आना छोड दिया.ठीक तो हैं ना?" यह पूछते हुए वह जाकर सविता की बगलवाली कुर्सी पर बैठ गई.उसका पति सोफे पर बैठकर अखबार पढने में डूब गया.पर सविता को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था.इस तरह चंद्रकला कभी मिलने नहीं आती.बाहर कभी आमने सामने आ जाते तो मुस्कुराकर हालचाल पूछकर चल देती थी.उन दोनों के बीच औपचारिक संबंध थे,बस.आज अचानक इस वक्त यह अपने पूरे परिवार के साथ कैसे आ गई?</div>
<div class="p5">
चंद्रकला दुनिया भर की बातें बताने लगी.अपार्ट मेंट्स में नए आए लोगों के बारे में,उनकी अच्छाइयों और बुराइयों के बारे में बोलती ही जा रही थी.उसका पति जैसे अखबार का एक एक हर्फ पढने में मजा ले रहा था.उसकी आंखें अखबार में ही गडी रह गईं. शक्ति और चंद्रकला के बच्चे खूब ऊधम मचा रहे थे और उन्हें रोकनेवाला कोई नहीं था.रेणू चुपचाप पढाई अर रही थी.</div>
<div class="p5">
उस नशे में धुत्त आदमी की ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा था तो वह जरा सा हिला,जैसे उठना चाहता हो .उसे शायद लगा</div>
<div class="p5">
यहां अब रहना ठीक नहीं होगा। जिस मकसद से आया था वह पूरा होने की उम्मीद ही नहीं रही !</div>
</td>
</tr>
</tbody>
</table>
</td>
</tr>
</tbody>
</table>
</div>
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<br /></div>
santha sundari.rhttp://www.blogger.com/profile/08435993185719238671noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3573628780113893447.post-83644000629151185782014-02-23T16:59:00.001-08:002014-02-23T16:59:30.780-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div>
<img src="webkit-fake-url://553766DA-B724-4DB7-9BFD-5783CEF1F82E/image.tiff" /></div>
</div>
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१. तितिक्षा<br />
<br />
मेरा मन कर रहा है मौन आक्रोश<br />
<br />
अविराम सहस्राधिक हृदयों में<br />
<br />
गरमी पैदा कर हक्का बक्का करनेवाला था तू<br />
<br />
सहानुभूति केलिए<br />
<br />
किसीसे तसल्ली पाने केलिए<br />
<br />
छटपटाते हुए प्रतीक्षा करना<br />
<br />
कितनी भयंकर स्थिति है!<br />
<br />
अनबुझ प्यास से लपलपाती जीभ से<br />
<br />
सूरज की किरणों पर चढकर<br />
<br />
प्रवाहित होना था तुझे<br />
<br />
लोगों की भीड भरे जंगल में<br />
<br />
एक अनाम पत्ते की तरह चिपके हो<br />
<br />
यह कितने दुर्भाग्य की बात है !<br />
<br />
तुम्हें ग्रस लिया है किसी सामाजिक रुग्मता ने<br />
<br />
पूंछ कटे तारों को देखते हुए<br />
<br />
रात के छोर पर चलते चलते<br />
<br />
कामना के झुलसे पलों को खोते हुए<br />
<br />
अब इस तरह<br />
<br />
अनजान भयविह्वलता में दग्ध होकर<br />
<br />
मौत को धीरे धीरे चूसते हुए<br />
<br />
तुम्हारा एकाकीपन<br />
<br />
होकर शमित दमित<br />
<br />
पैदा करे किसी एक आकार को<br />
<br />
मालूम नहीं<br />
<br />
किसी अज्ञात तितिक्षा का<br />
<br />
उदय हुआ हो तुझमें शायद!<br />
<br />
अब तुझे नहीं बुलाऊंगा वापस<br />
<br />
अब तेरी क्रांति के पग<br />
<br />
चुस्ती से उठें<br />
<br />
इस प्रातः की राह पर<br />
<br />
धीरे धीरे चलते चलो.<br />
<br />
..............................................<br />
<br />
२.विषाद-योगी<br />
<br />
अंधकार की लहरों से भरा<br />
<br />
अनंत तक फैला मैदान<br />
<br />
अहंकार नहीं मिटता मेरा<br />
<br />
इसलिए घायल हूं मैं<br />
<br />
फिर भी नहीं छूटता मेरा अहंकार<br />
<br />
वहां...वह देखो मेरा साथी<br />
<br />
धमकाए तो भी<br />
<br />
उसके सिवा<br />
<br />
कोई साथी मनुष्य का न होना<br />
<br />
कितने बडे विषाद की बात है!<br />
<br />
मंत्र तंत्र फूंकनेवाले<br />
<br />
यंत्रवादी कहां गए?<br />
<br />
हमको घेरे हैं मनुष्यों के कंकाल<br />
<br />
और सुप्त निश्शब्द<br />
<br />
अतीत के वियोग में<br />
<br />
घिर आए हैं मन्मथवेदना के वलय<br />
<br />
यहीं मधुपान की गोष्ठी<br />
<br />
यही है सुरत प्रदेश<br />
<br />
सामने समुद्र के राक्षसी मुष्टि के आघातों से<br />
<br />
घिस घिसकर टूटे बिना<br />
<br />
रिसते खूनी घावों से भरे<br />
<br />
क्षतविक्षत हृदय लेकर<br />
<br />
बिखरे हैं येराडा पहाड के पत्थर<br />
<br />
समुद्र तट पर विषाद योगी<br />
<br />
कर रहा है दुःख का अन्वेषण<br />
<br />
इस दीर्घ निशीथि में<br />
<br />
श्मशान शय्या पर.<br />
<br />
अब सुप्रभात होने की<br />
<br />
सूचना नहीं है कहीं!<br />
<br />
<br />
मूल कविता : डा.धेनुवकोंड श्रीराममूर्ति<br />
<br />
अनुवाद : आर.शांता सुंदरी<br />
<br />
**********************************************************************************************************<br />
<br />
<br />
<br />
<br /></div>
santha sundari.rhttp://www.blogger.com/profile/08435993185719238671noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3573628780113893447.post-65995652585026859832014-01-03T07:24:00.002-08:002014-01-03T07:24:59.227-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अक्षरों का अर्तनाद<br />
<br />
मूल तेलुगु : डा.धेनुवकोंड श्रीराम मूर्ति<br />
हिंदी अनुवाद : आर.शांता सुंदरी<br />
<br />
<br />
क्षमा करो मुझे<br />
संक्षिप्ताक्षर बन सिमटना नहीं चाहता मैं<br />
इसी लिए जा रहा हूं पराया देश बिककर<br />
माफ करो मुझे<br />
ये भयानक प्रवास<br />
हाहाकार<br />
गाली गलौज़<br />
पुतले जलाकर अग्नि कांड<br />
बीच सडक कर्म कांड<br />
ये सारे रास्ते<br />
बन गए नरक द्वार<br />
स्व-नियंत्रित<br />
रहस्यमयी कुतंत्र मॆं<br />
कब जी पाएग<br />
हरेक नागरिक आराम से?<br />
<br />
यहां पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण<br />
काम नहीं करता इन्सान पर<br />
बस,है तो सिर्फ धनाकर्षण!<br />
शरीर पर घाव है<br />
पर कहां है नहीं मालूम<br />
आकुल व्याकुल है मन पीडा से<br />
<br />
<br />
महामाया के तंत्र-योग में है<br />
प्रकाश<br />
सोख लिया जिसे शरीर ने<br />
जाना है जिस देश<br />
वहां गए बिना ही<br />
गुज़रते जा रहे हैं दिन<br />
गली में<br />
किसीके कदमों की आहट<br />
आशा जागती है मन में<br />
कहीं शांति की पदचाप तो नहीं<br />
आज के शिशिर ऋतु केलिए<br />
कल के पत्ते<br />
पीले पडकर<br />
झर रहे हैं<br />
<br />
देश की देह को<br />
नदियों में<br />
न बांटनेवाले देश में<br />
इन्सान में भलाई है जिस देश में<br />
पेडों पर कोंपलों की आशाएं<br />
फूटने के देस में<br />
हे प्रभू!<br />
ले जाओ मुझे!!<br />
<br />
<br />
---------------------------------------------------------------<br />
<br />
जीवन एक यादें अनेक<br />
<br />
<br />
देह के वस्त्र को<br />
कृष्णा नदी में संचय करते समय<br />
शरीर छोडने की आहट<br />
छोड गए जो यादें मेरे पिता<br />
घेरने लगी हैं मुझे.<br />
कभी किसीके आगे<br />
पसारा नहीं था हाथ<br />
नहीं दिया था किसीको धोखा<br />
नहीं झुकाया था सिर किसीके सामने<br />
पिता जी का रहा<br />
इच्छारहित जीवन<br />
दुःख के मौसम का जीवन<br />
हमेशा मांगते थे<br />
’अनायास मृत्यु’<br />
महामौनि की मौत.<br />
<br />
मेरे बाल्य के प्रवाह को<br />
मोड देनेवाले पिता<br />
नादान उम्र में<br />
सावधान और सतर्क रहने की सबक<br />
सिखानेवाले पिता .<br />
<br />
खुद को समझने ही लगा था<br />
जब गुज़र गई मां भी<br />
एकांत में रुदन<br />
अंतर्दाह की जलन<br />
अनुभव के स्वप्नों का असहाय विषाद<br />
जीवन एक<br />
यादें अनेक.<br />
<br />
देह जब बनने लगे निर्देह<br />
तब पिता की शव-यात्रा.<br />
<br />
-----------------------------------------------------------------------------------------------<br />
<br />
गांव डूब गया (सबमर्ज्ड विलेज)<br />
<br />
<br />
आंखे बंद नहीं<br />
पर देख रहा हूं सपना<br />
अचेतन स्वप्नावस्था में<br />
चलते,तैरते,उडते हुए<br />
धीरे से,धीरज से,भोलेपन से<br />
शाश्वत विनाश में<br />
जल-समाधि में डूबे गांव को<br />
डूबे आदमी के निशान को<br />
ढूंढ रहा हूं मैं.<br />
<br />
धेनु विचरता था जिस पहाड पर<br />
राम की अटारी के ऊपर<br />
पीपल पेड के नीचे<br />
झरती यादें<br />
कान्हा की बांसुरी में भरी<br />
चांदनी की हवा<br />
ईश्वर - कुएं की रहट पर<br />
रसीले सुर बजानेवाली उंगलियां<br />
चौपाल पर सुनाया गया<br />
सम्मोहित कर देनेवाला कविता-गान<br />
सुख-शांति से भरा गांव का जीवन<br />
आम इन्सान और महात्मा<br />
बसते थे जहां सुगंध बन महान<br />
नदी के हृदय को हाथों से छूनेवाली<br />
जल-यज्ञ संस्कृति का<br />
ब्रेंड एंबासिडर जैसा<br />
गुंड्लकम्म!*<br />
<br />
***<br />
<br />
परियोजना का प्रतिबिंब<br />
दिखता है जल्लद के चेहरे-सा<br />
खेत<br />
सूख गए पानी के अभाव में पिछले साल<br />
डूब गए बाढ की चपेट में आकर आज<br />
<br />
***<br />
<br />
आंसुओं से तप्त<br />
क्षुब्ध क्षण<br />
लेकर देह असंतृप्त कामनाओं की<br />
उतरकर पितृलोक से नीचे<br />
आदिलक्ष्मी कामेश्वरी की करते हुए अर्चना...<br />
अपनी कोई वस्तु यहीं छूट गई<br />
ऐसा सोचकर<br />
उसे ढूंढनेवाले पूर्वज<br />
चमेली के उपवनों<br />
केतकी के परागकणों<br />
रसभरे फूलों के उद्यानों<br />
और तंबाकू के बागानों में<br />
हरे कोमल पत्तों को तोडते<br />
मदभरे गान<br />
गेहूं की बालियों के<br />
फूलों के हार<br />
***<br />
<br />
यादें मिटी नहीं<br />
चक्कर काट रही हैं<br />
नदिया के छोरों पर<br />
लिपि नहीं आती समझ में<br />
देख रहा हूं झुककर घुटनों के बल.<br />
<br />
*एक नदी का नाम<br />
<br />
---------------------------------------------------------------------------------------------------------<br />
<br /></div>
santha sundari.rhttp://www.blogger.com/profile/08435993185719238671noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3573628780113893447.post-89705809040747892112013-04-01T18:26:00.002-07:002013-04-01T18:26:49.620-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, Helvetica; font-size: 12px; line-height: 21.59375px; margin: 0px; padding: 0px;">
<div class="wp-caption alignleft" id="attachment_5525" style="margin: 0px; padding: 0px; width: 394px;">
<a href="http://lekhakmanch.com/wp-content/uploads/2013/03/krishna-rao.krishnudu.jpg" style="color: #2277dd; margin: 0px; padding: 0px; text-decoration: none;"><img alt="कृष्णुडु" class=" wp-image-5525 " height="502" src="http://lekhakmanch.com/wp-content/uploads/2013/03/krishna-rao.krishnudu.jpg" style="border: 0px; margin: 0px 10px 5px 0px; padding: 0px;" width="384" /></a><div class="wp-caption-text" style="margin-bottom: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
कृष्णुडु</div>
</div>
<div style="margin-bottom: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
<em style="margin: 0px; padding: 0px;">ए .कृष्णा राव का पत्रकारिता के क्षेत्र में तीन दशकों का अनुभव है। दिल्ली में लगभग दो दशकों से कार्यरत। पिछले बारह सालों से ‘आन्ध्र ज्योति’ दैनिक में दिल्ली ब्यूरो के चीफ के पद पर काम कर रहे हैं। इससे पहले कुछ और पत्र-पत्रिकाओं में काम किया। वह केवल पत्रकार ही नहीं, लेखक और कवि भी है। इनके स्तम्भ ‘इण्डिया गेट ‘शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित हो चुके हैं। कवितायें कृष्णुडु के नाम से लिखते हैं। इनके दो कविता संग्रह छप चुके हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में साहित्य संबंधी आलेख भी प्रकाशित हुए हैं। उनकी एक कविता। तेलुगु से इसका अनुवाद आर.शान्ता सुन्दरी ने किया है-</em></div>
</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, Helvetica; font-size: 12px; line-height: 21.59375px; margin-bottom: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
<strong style="margin: 0px; padding: 0px;">रो रोकर</strong> माँ की आँखों सा<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />लाल हुआ आसमान</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, Helvetica; font-size: 12px; line-height: 21.59375px; margin-bottom: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
खाने को कुछ नहीं है<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />‘माँ, भूख लगी है…’<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />शून्य में ताकती माँ<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />कुछ नहीं बोली</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, Helvetica; font-size: 12px; line-height: 21.59375px; margin-bottom: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
उसकी आँख बचाकर<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />धीरे से निकला बाहर<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />उखड़ते प्राणों में<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />साँस लौट आई फिर</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, Helvetica; font-size: 12px; line-height: 21.59375px; margin-bottom: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
गलियों की नीरवता को<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />तोड़ती सेना की गाड़ियाँ<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />दूर कहीं से सवाल करते<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />आर्तनाद…</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, Helvetica; font-size: 12px; line-height: 21.59375px; margin-bottom: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
कल परसों तक<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />सबक सिखाती पाठशालाएं<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />बन गई हैं सैनिक शिविर<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />हमारे नन्हे पैरों के स्पर्श से<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />पुलकित हरी दूब को<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />कुचलती जूतों की कवायदें</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, Helvetica; font-size: 12px; line-height: 21.59375px; margin-bottom: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
किसके साथ खेलूँ?<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />घोंसलों से छितराए पंछियों जैसे<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />परिवार</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, Helvetica; font-size: 12px; line-height: 21.59375px; margin-bottom: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
निश्शब्द है<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />बौद्ध मन्दिर<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />शव सा बैठा है बुद्ध<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />इर्द-गिर्द रिसते खून पर<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />भिनभिनाती हैं मक्खियाँ</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, Helvetica; font-size: 12px; line-height: 21.59375px; margin-bottom: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
घर में माँ नहीं दिखती<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />ध्वस्त हैं आनेवाले कल के सपने<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />सड़क पर मौत का वीभत्स<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />हाथ पीछे बंधी लाशें</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, Helvetica; font-size: 12px; line-height: 21.59375px; margin-bottom: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
लगता है बारिश होगी<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />कहाँ हो माँ?<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />कब आओगी?<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />तुमने कहा था स्वर्ग है<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />पर वह कहाँ है?</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, Helvetica; font-size: 12px; line-height: 21.59375px; margin-bottom: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
रुकी जीप …<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />उतरा अंकल …<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />‘बाबा से मिलोगे?’<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />‘जी अंकल !’<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />‘देख तेरे सीने में है<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />जारे अपने बाबा के पास जा… ‘<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />पाँच गोलियों में छिपे<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />पंच-प्राण</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, Helvetica; font-size: 12px; line-height: 21.59375px; margin-bottom: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
आसमान ने भिगोया देह को<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />आँसुओं से<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />तभी बादलों की ओट से<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />निकल आया बालचंद्र<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />देखते हुए उसे<br style="margin: 0px; padding: 0px;" />बाबा में मिल गया मैं</div>
</div>
santha sundari.rhttp://www.blogger.com/profile/08435993185719238671noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3573628780113893447.post-68553345744625666162013-04-01T02:43:00.001-07:002013-04-01T02:43:18.744-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br /></div>
santha sundari.rhttp://www.blogger.com/profile/08435993185719238671noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3573628780113893447.post-18760339527551955362013-01-06T18:00:00.000-08:002013-01-06T18:00:01.324-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
द्वैत<br />
---<br />
<br />
शरीर हो गया एक ऐतिहासिक दोष<br />
दो होंठ,दो गाल<br />
दो स्तन,दो जांघें...<br />
युगल सौंदर्य<br />
दो दशकों में ही जैसे ज़िंदगी हो गई खत्म<br />
<br />
ज़िंदगी इतनी तंग हो गई कि<br />
ज़रा सा हिलो तो उधडने लगती है<br />
दीवारों का रहस्य खोले बिना ही<br />
ग्राफिती बदरंग होने लगी<br />
कल न जाने किसकी बारी है?<br />
गलत मत समझना,<br />
लगने लगा है<br />
पास खडा हर आदमी जैसे<br />
जांघों के बीच अपने<br />
भाले को लेकर चल रहा हो<br />
समंदर और आसमान को मिलाकर बुनने पर भी<br />
इस अनादि प्रस्तर युग के नंगेपन को<br />
ढकने के लिए<br />
हाथ भर का कपडा नहीं मिलता<br />
<br />
आंख खुलने पर ही तो<br />
पता चलेगा ना<br />
कि सुबह हो गई<br />
जिस अंग में आंखें ही नहीं<br />
उसके लिए<br />
बधिरांधकार ही आनंद है<br />
आंतों को ही नहीं<br />
दिल को भी उखाडते हुए<br />
बदन में अंधेरा सीधे खंता बन<br />
धंस जाता है<br />
गलत मत समझना,<br />
कीडों से कीटनाशन की आशा करते हुए<br />
मृत्यु से अमृत मांगते हुए<br />
जानवरों से जानवरों का बहिष्कार कौन करता है?<br />
मानवता के युटोपिया में<br />
सिग्नलों के बीच मुख्य सडकें<br />
जब बन जाती हैं खामोश आक्रंदन<br />
कान फटनेवाले<br />
सवालों के यहां गोलियां उग रही हैं<br />
तो क्या हुआ?<br />
विवेक पर लाठियां बरस रही हैं<br />
झूठी सहानुभूति,गंदी गालियां<br />
आंसू पोंछ रही हैं<br />
सुरक्षा दलों का फैलाव<br />
आंसू गैस के बादल बन<br />
विश्वासों पर छाने लगा है<br />
शहर एक मृत्यु का हथियार बन गया<br />
अपना और पडोस का घर<br />
हरा घाव बन अकुलाने लगते हैं<br />
हम दोनों का अस्तित्व कायम रहना हो<br />
तो तुम्हें मुझमें<br />
मनुष्यता बन स्खलित होना पडेगा<br />
मुझे तुम्हारे अंदर<br />
मातृत्व बन बहना होगा<br />
शरीर के दोषी हो जाने के बाद<br />
प्राणों के स्पंदन बुझ जाने के बाद<br />
दरिंदगी में तर्जुमा हो जाने के बाद<br />
मरीचिकाओं के बांझपन मेंं<br />
प्रवासी होकर प्रवेश करने के बाद...<br />
मां भी तेरे लिए<br />
एक गलत रिश्ता बनकर रह जाएगी...<br />
गलत मत समझना,<br />
अब यहां लाशघरों के सिवा<br />
प्रसवघरों की कोई ज़रूरत नहीं!<br />
<br />
मूल तेलुगु कविता : पसुपुलेटि गीता<br />
अनुवाद : आर.शांता सुंदरी<br />
<br />
</div>
santha sundari.rhttp://www.blogger.com/profile/08435993185719238671noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3573628780113893447.post-30825235303377442572012-11-19T20:12:00.000-08:002012-11-19T20:12:15.851-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
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‘प्रेमचंद घर में’ का तेलुगु में अनुवाद</h2>
<div class="entry clearfloat">
<strong>सभी मानवीय</strong> सम्बन्धों में पति-पत्नी का सम्बन्ध
अत्यंत घनिष्ट है और अत्यधिक समय तक उनका साथ बना रहता है। पति की मृत्यु
के बाद उनके साथ बिताए जीवन के बारे में ईमानदारी से लिखने का चलन भारतीय
साहित्य में कम ही देखने को मिलता है। ‘प्रेमचंद घर में’ में शिवरानी देवी
ने यह करके दिखाया।वार्तालाप के माध्यम से अधिक और स्वगत-कथन के रूप में कई
जगह उन्होंने जो भी लिखा उन बातों से न केवल प्रेमचंद के महान
व्यक्तित्व का, बल्कि लेखिका की विलक्षण प्रतिभा का भी परिचय मिलता है।
कभी-कभी आगे रहकर उन्होंने प्रेमचंद का मार्गदर्शन भी किया था, ऐसे कई
उदहारण इस पुस्तक में मिल जाते हैं। शिवरानी देवी की सूझ-बूझ और निडर
व्यक्तित्व उभर आता है।<br />
प्रेमचंद से अपरिचित तेलुगु साहित्य प्रेमी विरले ही होंगे। प्रेमचंद घर
में पति, पिता के रूप में कैसे थे और शिवरानी देवी और प्रेमचंद का सम्बन्ध
कितना विशिष्ट था, यह जानने के लिए सबको यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिये।<br />
मूल पुस्तक में दिये गये प्रोफेसर प्रबोध कुमार (प्रेमचंद के नाती) और
स्वयं शिवरानी देवी के कुछ शब्दों को भी अनुवाद में लिया गया है।(शिवरानी
देवी का पूरा वक्तव्य और प्रबोध कुमार के, ‘मेरी नानी अम्मा’ से कुछ
अंश)।<br />
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प्रेमचंद में कहीं भी पुरुष होने का अहंकार नहीं था। वह पत्नी की बहुत
इज्ज़त करते थे। उनकी सलाह बात-बात पर लेते थे। अगर किसी विषय में मतभेद
रहा भी तो बड़े प्यार से समझाते थे। पत्नी से उन्हें बेहद प्यार था।
शिवरानी देवी बहुत स्वाभिमानी थीं और प्रेमचंद को प्राणों से भी अधिक
मानती थीं। प्रेमचंद की ज़िंदगी और मौत से जूझने वाले समय का उन्होंने ऐसा
जीवंत वर्णन किया है कि पढ़ने वालों का कलेजा मुँह को आ जाता
है। प्रेमचंद के बारे में, उनकी रचनाओं के बारे में, साहित्यिक व्यक्तित्व
के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है, पर शिवरानी देवी की किताब में इन सब
बातों के साथ-साथ बहुत ही अन्तरंग बातें, जो केवल एक पत्नी को ही मालूम
होती हैं, उनका ज़िक्र भी किया गया है। पति-पत्नी के बीच सम्बन्ध कितने
सुन्दर, गहरे और प्यार से भरे हो सकते हैं, यह जानने के लिये भी यह पुस्तक
अवश्य पढ़नी चाहिए।<br />
इस पुस्तक का तेलुगु में अनुवाद शांता सुंदरी ने किया है। इसका शीर्षक
तेलुगु में ‘इम्ट्लो प्रेमचंद’ (इम्ट्लो मतलब ‘घर में’) है। पुस्तक के रूप
में प्रकाशित होने से पहले यह धारावाहिक के रूप में ‘भूमिका’ नामक मासिक
पत्रिका में, जनवरी 2009 से जुलाई 2012 तक प्रकाशित हुई। पहली क़िस्त के
बाद ही कइयों ने इसे बहुत पसंद किया। प्रेमचंद की केवल रचनाओं से परिचित
पाठकों को उनके व्यक्तित्व के अन्दर झाँककर उन्हें अच्छी तरह समझाने का
अवसर मिला। प्रसिद्ध कवि वरवर राव ने अनुवादक शांता सुंदरी को दो-तीन बार
फोन करके बताया की कुछ अंशों को पढ़कर उनकी आँखें नाम हो गयीं। तेलुगु के
अग्रणी लेखकों ने इसे पुस्तक रूप में देखने की इच्छा ज़ाहिर की और इसे
सम्भव बनाया ,हैदराबाद बुक ट्रस्ट की गीता रामास्वामी ने।<br />
<strong>पुस्तक: ‘इम्ट्लो प्रेमचंद’</strong><br />
मूल लेखिका : शिवरानी देवी<br />
अनुवाद : शांता सुंदरी<br />
कुल पन्ने : 274<br />
मूल्य : 120 रुपये<br />
प्रथम संस्करण : सितम्बर, 2012<br />
प्रकाशक : हैदराबाद बुक ट्रस्ट,<br />
प्लाट नंबर 85, बालाजी नगर,<br />
गुडीमलकापुर, हैदराबाद- 500006<br />
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<cite><strong>sumit </strong> said: </cite>
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<div class="commenttext">
शिवरानी देवी की किताब ‘प्रेमचंद घर में’ का तेलुगु में अनुवाद
में करके शांता सुंदरी जी ने महत्पवूर्ण कार्य किया है। इसके लिए
उन्हें धन्यवाद। यहां एक सवाल यह भी उठता है कि अब तक इस तरह की
महत्वपूर्ण किताबों का अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद क्यों नहीं हुआ
है। तमाम अकादेमियां और संस्थाएं क्या कर रही हैं। क्या कुर्सी और
पुरस्कार के लिए जोड़-तोड़ करना ही साहित्य के कर्णधारों का काम रह गया
है।<br />
</div>
</div>
<div class="commentmetadata">
- 18 November 2012 at 4:46 am </div>
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</span>
<span style="border: 0px solid rgb(0, 0, 0); float: left; font-size: 13px; margin: 0px; width: 200px;">
जीवन के विश्वविद्यालय से कुछ सीखने की ललक और पढ़-लिखकर खुद को इस लायक बनाने का प्रयास। <br /><br /> Contact Email ID: anuraglekhak at gmail.com
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Interview</h3>
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<div>
<a href="http://lekhakmanch.com/?p=3987" rel="bookmark">पागलपन: माधवी कुटटी</a></div>
</span>
अंग्रेजी की प्रख्यारत लेखिका कमला दास ( 31 मार्च, 1934- 31 मई, 2009)
मलयालम में माधवी कुटटी के नाम से लिखती थीं। उन्हेंल आत्म कथा ‘माई
स्टोरी’ से काफी शोहरत मिली। केरल के त्रिचूर जिले में जन्मीं कमला दास की
अंग्रेजी में ‘द सिरेंस’, ‘समर इन कलकत्ता’, ‘दि डिसेंडेंट्स’, ‘दि ओल्डी
हाउस एंड अदर पोएम्स [...]<br />
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रचना संसार</h3>
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<br />
सूपर सिंड्रोम<br />
---------<br />
<br />
तेलुगु मूल : सलीम<br />
अनुवाद : आर.शांता सुंदरी<br />
------------------<br />
<br />
गुरुवार का दिन था.शाम के छः बज रहे थे.सब्ज़ी खरीदने थैली लेकर चप्पल पहनने लगी तो बेटी मधु ने कहा,"मां मैं भी साथ चलूं?"<br />
"नहीं बेटा,तू पढाई कर.मैं आधे घंटे में आ जाऊंगी."<br />
मधु ने मीठी हंसी हंसते हुए कहा,"कहने पर भी नहीं मानती ना? बडी मंडी में सब्ज़ियां सस्ती मिलती हैं,यही बहाना बनाकर जाती तो हो,पर सोचो,जाने आने का आटो का खर्चा भी जोडकर देखो तो सस्ता थोडे ही पडता है?"<br />
मैं तो हर हफ्ते यही सुनती हूं,आदत सी हो गई! मैं बाहर निकलने लगी तो पीछे से मधु ने कहा,"अब थोडे दिनों की बात है.फिर घर के पास ही फुड वर्ल्ड सूपर मार्केट खुल जाएगा.तब हम वहीं से सारा सामान खरीद सकेंगे!"<br />
"मुझे तो बेटा,बडी मंडी जाना ही अच्छा लगता है.वहां सब जाने पहचाने लोग हैं."<br />
"अरे आदत वादत छोडो मां.अब तो ऐसा वक्त आ गया है कि अपनी सहूलियत देखनी पडती है.दाल,चावल,सब्ज़ी,मसाले,फल सब एक ही छत के नीचे मिल जाते हैं तो कितना अच्छा है ना? और फिर साफ करके पेकेटों में बंद होकर बेचे जाते हैं.कीमतें भी ज़्यादा नहीं होतीं."<br />
मैं उसे कुछ जवाब दिए बिना बाहर आकर मंडी के लिए आटो पकड ली.<br />
मैं आटो से उतरकर पैसे चुकाने लगी तो रामुलम्मा ने आवाज़ दी.वह औरत पत्तेवाली सब्ज़ियां बेचती है.मुझे देखते ही उसका चेहरा खिल उठा.मैं भी उसकी तरफ खिंची चली गई.<br />
"पिछले हफ्ते नहीं आई बीबी जी?मैं ने बहुत इंतज़ार किया था!कहीं बाहर गई थी क्या?"रामुलम्मा ने पूछा.<br />
मैं उसके आगे बिछी बोरी पर से हरा धनिया,कडी पत्ता,पुदीना वगैरह लेते हुए कहा,"नहीं, बुखार हो गया था."<br />
"तभी कहूं कि इतनी कमज़ोर दिख रही हो आप!मैं भी सोच रही थी कि कम से कम फूल खरीदने तो ज़रूर आती हर वीर वार को!"<br />
"अच्छा कितने पैसे हुए,बोलो?"मैंने पैसे चुकाए और पूछा,"तेरी बेटी की गिरस्ती कैसी चल रही है?सब ठीक तो है ना?"<br />
"क्या बताऊं बीबी जी?बार बार पैसा मांगता है मेरा जमाई.कहां से लाऊं? अभी परसों फिर पच्चीस हज़ार मांग रहा था.कहां से लाती इतना रुपया?"<br />
मैं चुप रही.मन खराब था पर कुछ सूझा नहीं कि क्या कहूं.फिर भी उसे दिलासा देकर आगे बढ गई.<br />
चार कदम चलकर सब्ज़ी वाले के पास पहुंची.कनकय्या सब्ज़ी बेचता था.सत्तर साल की उम्र,उसके तीन बेटे थे,जो अच्छी नौकरियां करते थे.फिर भी उसे धूप बारिश और सर्दी में सब्ज़ी की मंडी आना पडता.एक भी बेटा उसकी देख भाल करने को तैयार नहीं था.पहले रेडी पर सब्ज़ी डालकर गली गली घूमता था,पर अब कमज़ोरी की वजह से एक ही जगह रहकर बेचता है.<br />
कभी मेरे पूछने पर उसने अपनी रामकहानी मुझे बताई थी.<br />
मुझे देखते ही बच्चे की तरह मुस्कुराया.सामने के दांत टूट जाने से उसका मुंह पोपला हो गया था."पिछले हफ्ते आप नहीं आईं तो समझा किसी और से सब्ज़ी खरीद ली होगी,"उसने कहा.<br />
"हमेशा तुमसे ही लेती हूं ना?और कहां जाती?"<br />
"तुम्हारे बेटे कैसे हैं?"मैंने पूछा और उसकी मुस्कुराहट पुंछ गई.बहुत देर तक सब्ज़ी तोलते हुए चुप रहा.मुझे लगा उसकी आंखें नम हो गईं हैं.फिर उसने सब्ज़ी मेरी टोकरी में डालते हुए मेरी ओर देखा और कहा,"सच कहूं बेटी? कल को मैं मर गया तो लाश को ठिकाने लगाना तो दूर ,देखने भी नहीं आएंगे.तुम जैसी कोई भला मानुस ही शायद वह काम कर दे,मैं भगवान से रोज़ यही दुआ मांगता रहता हूं!"<br />
इन लोगों की बातें सुनकर मेरा मन खराब तो होता है,पर उन्हें लगता है कि चलो हमार दुखडा सुननेवाला कोई तो है!मैंने हिम्मत बंधाते हुए कहा,"यह कैसी बातें कर रहे हो?तुम्हें कुछ नहीं होगा.सौ साल ज़िंदा रहोगे!"<br />
"नहीं बेटी ,मुझे ऐसी आशा बिल्कुल नहीं है.अकेले जीना बहुत मुश्किल है.सबके होते हुए भी मैं अकेला हूं.ऐसी ज़िंदगी भगवान किसीको न दे!"<br />
अपनी तरफ से उसे तसल्ली के दो चार शब्द कहकर मैं फूल खरीदने चली गई.मस्तानम्मा ने भी मेरे पिछले हफ्ते न आने की वजह पूछी.हमेशा मैं उससे पांच हाथ चमेली के फूल खरीदती हूं.मुझे देखते ही फूलों की तरह हंस् दी और पूछा,"क्या बात है?पिछले हफ्ते नहीं आईं?"उसकी हंसी बडी खूबसूरत् है.मुझे वह हंसी बहुत अच्छी लगती है.एकदम स्वच्छ और निष्कपट.और वह मुस्कुराती भी बहुत है.शायद इसके शौहर कहता हो कि तेरी हंसी बडी खूबसूरत है!<br />
"दस हाथ फूल मालाएं देदूं?"उसने पूछा.मैं तो हमेशा पांच हाथ ही लेती हूं,सॊ कहा कि पांच काफी हैं."क्यों बहन जी,हमेशा सारे फूल भगवान को ही चढा देती हो? खुद नहीं बालों में सजाती?"उसने पूछा.<br />
पर वह मानी नहीं.कुछ फूल खुद मेरे बालों में गूंथने की ज़िद करने लगी.बाज़ार में और आना कानी करना ठीक न समझकर मैं मान गई.मस्तानम्मा के हाथ मे बीस रुपये रख दिए.उसने हैरान होकर पूछा,"इतने रुपये किसलिए?"<br />
"दस हाथ के फूल लिए हैं ना?"<br />
"नहीं जी,मैं तो सिर्फ पांच के पैसे लूंगी.मैंने उतना ही बेचा है.बाकी तो मैं तुम्हें अपनी खुशी से दे रही थी."<br />
"अरे यह क्या बात हुई? मैं जानती हूं फूल बेचकर तुम्हारे पास कितने पैसे बचते हैं.लो,ये दस रुपये भी ले लो!"मैंने ज़बर्दस्ती दस का नोट उसे पकडाने की कोशिश की.<br />
"हां,मैं फूल ज़रूर बेचती हूं,पर बहन के बालों में फूल लगाकर उसके पैसे वसूल नहीं कर सकती!"<br />
मैंने उसे शुक्रिया कहा और जवाब में वह फिर फूलों की तरह हंसी.<br />
घर पहुंचते पहुंचते सात बज गए.<br />
"देखा मां कितना टाइम लगा दिया.पास में ही सूपर मार्केट खुल जाएगा तो वक्त ज़ाया न करना पडेगा ना?"मुझे देखते ही बेटी बोली.<br />
<br />
* * *<br />
<br />
हमारे घर से सौ गज़ की दूरी पर फूड वर्ल्ड सूपर मार्कॆट खुल गया.उद्घाटन समारोह में कोई अभिनेत्री भी आई थी.पूरे मुहल्ले में पेंफ्लेट बांटे गए.अखबारों में बडे बडे विज्ञापन दिए गए.<br />
मधु मचल उठी,"चलो मां ऊड वर्ल्ड चलें.खुद देख लेना कि यह कितनी शानदार दूकान है.फिर कभी तुम मंडी जाने की बात नहीं करोगी.अमेरिका जैसे देशों में तो सिर्फ ऐसी ही दूकानें होती हैं.हमारे जैसे वे सडकों के किनारे रेडियां नहीं लगाते और न ही गली गली घूमकर चीज़ें बेचते हैं.सब काम सलीके से किए जाते हैं.देखा, अमरिका से हम कितने पिछडे हुए हैं?"<br />
"अच्छा सूपर मार्केट खोल दिए तो मतलब तरक्की कर ली,और गली गली घूमकर बेचा तो पिछड गए?मैं नहीं मानती तेरी बात!"मैंने कहा.<br />
"सिर्फ इतना ही नहीं मां,अमेरिका में सेल फोन हमसे पहले आया था.उनके देश में आइमेक्स सिनेमा थियेटर खुलने के कई साल बाद हमारे देश में इनका दौर शुरू हुआ.इस दौड में हम रफ्तार नहीं बढाएंगे तो हमेशा के लिए पीछे ही रह जाएंगे!सोचकर ही खराब लगता है..."<br />
"सुनो,इन्सानी रिश्ते कितने बेहतर बन रहे हैं,इसी बात से विकास को आंकना चाहिए,मशीनी प्रगति से नहीं!"<br />
"मां वक्त बदल रहा है.हमारी पीढी की सोच अलग है...चलो बातें बाद में भी कर सकते हैं,पहले फूड वर्ल्ड देख आते हैं."<br />
बडा विशाल आहाता,अंदर सब सामान सलीके से शेल्फों में सजाकर रखा था.दाल चावल,सब्ज़ियां,फल,सब अपनी अपनी जगह.कास्मेटिक्स के लिए अलग जगह.लगा यह विनिमय का संसार है.मधु ट्राली ले आई और उसमें अपनी ज़रूरत की चीज़ें डालने लगी.जब सब्ज़ियों के पास पहुंचे तो बोली,"देखा मां,कितनी ताज़ी हैं?इनमें खराब सब्ज़ियां बिल्कुल नहीं होतीं.ये खुद उन्हें फेंक देते हैं!"<br />
"सब्ज़ियां पोलीथीन थैलियों में पेक करके रखी हुई थीं.ज़रूरी सब्ज़ियां ले लीं.वहां काम करनेवाले सभी यूनीफार्म में थे.कोई न कोई हमपर नज़र रखे रहता था.मुझे बुरा लगा.मधु से कहा,"अरे,हम क्या चोर उचक्के हैं?ये हमें इस तरह क्यों देखते हैं?"<br />
मधु ने हंसकर कहा,"हम तो नहीं,पर यहां आनेवालों में चोर नहीं होंगे इसकी गारंटी भी तो नहीं ना?कोई छोटी मोटी चीज़ जेब में डालकर चल दिए तो?...पर तुम्हें इससे क्या? जो ज़रूरी है ले लो,फिर घर चलेंगे."<br />
उसकी बातों से मुझे तसल्ली नहीं हुई,अब भी मुझे बुरा लग रहा था.<br />
हम सामान लेकर काउंटर के पास खडे हो गए.चार काउंटर थे और चारों में लंबी लाइनें थीं.हमारी बारी आने में पंद्रह बीस मिनट लगे.काउंटर पर दो जने थे.एक लडकी कंप्यूटर पर बिल बना रही थी और दूसरा चीज़ों को प्लास्टिक की थैलियों में डाल रहा था.पैसे लेते समय मैंने सोचा लडकी हमें देखकर मुस्कुराएगी.पर ऐसा कुछ न हुआ तो मुझे अजीब लगा.हम दोनों थैलियां लेकर बाहर आईं तो मैंने बेटी से कहा,"कम से कम वह लडकी मुस्कुरा तो सकती थी? रोबो की तरह बस काम करती रही!"<br />
"क्या मां तुम भी ना,क्या हम उसके दोस्त या रिश्तेदार हैं जो वह हमें देखकर मुस्कुराती?उनका काम सामान बेचना है और हम खरीदारों के सिवा और कुछ नहीं...बस यह तो व्यापार संबंध है,सिंपल!वह तो ठीक ठाक निभ गया ना?और फिर उसके मुस्कुराने या न मुस्कुराने से हमें क्या फर्क पडता है?"<br />
मैं उन सवालों का जवाब तो नहीं दे सकी.हां उससे हमें कोई फायदा तो नहीं होगा,सच है,पर कोई इस तरह मुस्कुरा दे तो मन खुश हो जाता है.इन्सानों के बीच रह रहे हैं ऐसा अहसास मिलता है जो मन को तसल्ली देता है.एक तरह का भरोसा मिलता है.पर शायद आज की पीढी को यह सब महसूस नहीं होता होगा!<br />
* * *<br />
पिछले तीन हफ्तों से फुड वर्ल्ड से ही सामान खरीद रहे थे.सात आठ बार वहां गए होंगे और हर बार मैं यही उम्मीद लेकर जाती कि कम से कम एक तो ऐसा होगा जो हमें देखकर मुस्कुराएगा. ग्राहक की तरह नहीं,इन्सान की तरह हमारे साथ पेश आएगा.ऐसा लगता है कि यहां इन्सान नहीं मशीनें काम कर रही हैं.सब कुछ बडे ही व्यवस्थित रूप से हो जाता है पर उसमें इन्सानियत का स्पर्श नहीं मिलता.एक तरह का शून्य...उदासी मेरे मन को घेर लेती.<br />
रामुलम्मा,कनकय्या,और मस्तानम्मा बार बार याद आने लगे.तीन हफ्ते हो गए बडी मंडी गए.वे समझ रहे होंगे कि मैं फिर बीमार पड गई.हां,यह भी तो एक बीमारी ही है ना?सूपर मार्केट की बीमारी.पिछले तीन हफ्तों से इस सूपर सिंड्रोम से तो पीडित हूं!अब और सहा नहीं जाता.इसका इलाज तो करना ही पडेगा.<br />
अगले वीरवार को कपडे से बनी थैली लेकर घर से निकलने लगी तो बेटी ने पूछा,"कहां जा रही हो मां?"<br />
"बडी मंडी,सब्ज़ी खरीदने."<br />
"क्यों फुड वर्ल्ड से ले रहे हैं ना? तुमने यह भी कहा कि सब्ज़ियां ताज़ी और अच्छी हैं?"<br />
"मैं इन्सानों से सब्ज़ियां खरीदना चाहती हूं मधू!"<br />
"बगल में इतना बडा सूपर मर्केट है और तुम इतनी दूर सब्ज़ी खरीदने जाओ तो सब समझेंगे तुम पागल हो!"<br />
"हां मधू,मैं पागल हूं! इन्सानों के साथ बात करना,उनका हालचाल पूछना,दुःख सुख बांटना,यह सब पागलपन नहीं तो और क्या है?"<br />
मैं चप्पल पहनने लगी तो मधु ने कहा,"जाओ,जाओ,बस कुछ ही महीनों की बात है.यहां भी वालमार्ट आनेवाला है.वह कम्पनी हमारे देश भर में चेन स्टोर खोलेगी तो ये मंडी वंडी सब बंद हो जाएंगे.रिलायन्स फ्रेश की दूकानें भी जगह जगह खुलनेवाली हैं.तब सब्ज़ियां खरीदने इन्हीं दूकानों में जाना पडेगा.खरीदना चाहो तो भी मंडी में नहीं खरीद सकोगी!"<br />
मैं सन्न रह गई.अगर सचमुच ऐसा होगा तो मंडी में सब्ज़ी बेचनेवाले गरीब कहां जाएंगे,क्या करके अपना पेट भरेंगे?उनके आंसू जमते जाएंगे और फिर एक दिन फटकर उनकी ज़िंदगियों को डुबो देंगे!मेरा दिल अभी से डूबने लगा.<br />
मंडी में आटो से उतरते ही परिचित चेहरे मुस्कुराते दिखाई दिए.ये बेचारे नहीं जानते कि इनपर कहर बरपा होने वाली है.इनकी इन्सानियत की,दुःख की परवाह करनेवाला कोई नहीं रह जाएगा.सूपर मार्केट इनका सबकुछ निगल जाएगा.<br />
"आज कुछ परेशान दिख रही हो बहन,क्या बात है?तबीयत तो ठीक है ना?"मस्तानम्मा ने आत्मीयता दिखाते हुए पूछा.मुझे मधु का सवाल याद आया,’ये क्या हमारे रिश्तेदार या दोस्त हैं?’मस्तानम्मा मेरी क्या लगती है? बस इन्सानियत का ही तो रिश्ता है!<br />
"हाथी जब चलता है तो उसकी चाल सबको मोह लेती है,पर कोई उन चींटियों के बारे में नहीं सोचता जो उसके पैरों के नीचे कुचलकर मर जाते हैं!"मेरा जवाब सुनकर मस्तानम्मा अचकचा गई.मेरी ओर अजीब नज़रों से देखते हुए बोली,"हम ठहरे अनपढ,तुम्हारी बातें हम क्या समझ सकेंगे?"फिर अपनी खूबसूरत हंसी बिखेर दी.<br />
मैं सोचने लगी,क्या यह हंसी हमेशा केलिए बरकरार रहेगी?<br />
फिर मैंने ज़रूरत की सब्ज़ियां खरीद लीं.थैली भर गई.सब्ज़ियों के साथ शायद मंडी से उन सबके दुःख,आंसू और तक्लीफें भी थैली में भरकर लाई थी,इस बार थैली हमेशा से ज़्याद भारी लगी.<br />
<br />
<br />
<br />
-----------------------------------------------------------------------------<br />
<br />
(२०१२ अक्तूबर - नवंबर अंक ’कथन’ पत्रिका में प्रकाशित.)<br />
<br />
<br />
</div>
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<br />
अभी बहुत कुछ बदलने को है मूल तेलुगु कहानी :रमणजीवि<br />
अनुवाद : आर.शांता सुंदरी<br />
---------------------------<br />
----------------------<br />
अगस्त २०७८<br />
शाम के पांच बजनेवाले थे.<br />
अबीद्स रोड.आठ साल का बच्चा स्केटिंग कर रहा था.एक फर्लांग दूर से आती साइकिलों की आवाज़ सुनकर पीछे मुडकर एक बार देखा और फिर अपने खेल में मगन हो गया.सडक के बीचों बीच दो गाएं और एक भैंस आराम से बैठे जुगाली कर रही थीं.<br />
<br />
"मुझे यकीन नहीं होता कि यह अबीद्स है.लगता है संपूर्ण सूर्यग्रहण,या कर्फ्यू लगा है,"साइकिल को खडी करते हुए एक बीस साल की युवती ने कहा.उसका नाम नीता है.सफेद चूडीदार में उसका बदन बहुत ही कमज़ोर दिख रहा था.उस सडक को देखने के बाद वह अपने मां बाप का अता पता न मालूम होने का दुःख भी भूल गई.<br />
<br />
इतनी गाडियां कि तिल रखने की भी जगह नहीं रहती थी यहां.हर तरफ धुआं,जलने की बू,दिल दहलानेवाली आवाज़ों से भरी रहती थी वह जगह.पर अब...!<br />
<br />
साथ आई नर्स हंस पडी,"तुम चार साल कोमा में रही.अब अचानक देखने से ऐसा लग रहा है.वरना हमें तो इनकी आदत हो गई है."<br />
<br />
’किनकी?’नीता ने आंखों में इस सवाल के साथ नर्स को देखा.<br />
<br />
मल्टी स्टोरीड बिल्डिंगें,बडी बडी दुकानें सब बंद हो गईं.उनपर धूल जम चुकी थी.ग्लोसाइन बोर्डों का भी यही हाल था.न जाने कबसे उनका जगमगाना बंद हो गया था!दूर की सिर्फ दो दुकानें खुली थीं और साफ सुथरी नज़र आ रही थीं.बाहर तीन साइकिलें खडी थीं.नीता ने अंदाज़ा लगाया कि अंदर कुछ खरीदार होंगे.<br />
<br />
"अरे,इन्सान सब कहां चले गए?...सिर्फ गाडियां..."नीता ने हैरान होकर पूछा.यह देखकर नर्स फूली नहीं समा रही थी.जैसे ये सब करतब उसी का हो!<br />
<br />
"कुछ और बातें सुनोगी तो तेरे होश उड जाएंगे!अब इस दुनिया में एक भी मोटर गाडी या हवाई जहाज़ नहीं है...जानती हो?सबको तोडफोड दिया गया.स्क्रेप...सफाचट...!"नर्स ने हाथों के इशारा करते हुए कहा.<br />
<br />
नीता को चुप देखकर नर्स ने फिर पूछा,"अच्छा यह बताना अब दुनिया में कितनी आबादी है?"<br />
<br />
नीता की आंखें मुंद गईं.पर उसने फिर भी जवाब में कुछ भी नहीं कहा.<br />
<br />
"सिर्फ छः करोड से कुछ ऊपर.हैदराबाद में बत्तीस हज़ार.केन यू बिलीव?"उसने रंग बदलते नीता के चेहरे की ओर चमकती आंखों से देखते हुए कहा<br />
<br />
"ओह...!" कहकर नीता जल्दी से एक दूकान की सीढियों पर जाकर बैठ गई.नर्स ने भी उसके बगल में बैठकर नीता के कंधे पर हाथ डाला.<br />
<br />
"जानती हो अब पैसे नाम की चीज़ भी नहीं रही.सबको हर रोज़ तीन घंटे काम करना पडता है.आज अस्पताल में तो कल जूतों की दुकान में....परसों कपडों की दुकान में...फिर खेतों में...अब मज़हब भी खतम हो गए.देश अलग अलग नहीं हैं...सरकारें भी नहीं हैं...सिर्फ लोग हैं...बस...’जिन बातों को समझाने में कुछ रोज़ लग जाते,नर्स उन्हें पलों में बता देने की कोशिश कर रही थी.<br />
<br />
नीता को लगा, नर्स मुझे बुद्धू बना रही है,या यह सब एक सपना है.<br />
<br />
"चलो वह सब छोडो और यह बताओ कि असल में हुआ क्या था?...प्लीज़!"<br />
<br />
"चार साल पहले की बात है.नवंबर की सातवीं तारीख को..."<br />
<br />
* * *<br />
<br />
नवंबर सात तारीख,२०७४<br />
<br />
योगी अपने फार्म हाउस के बाहर आराम कुर्सी पर बैठा था.उसकी उम्र चालीस से ऊपर थी.सूती कमीज़ जीन्स पहने छरहरा बदन था उसका.उसकी आंखें खुली तो थीं पर नज़रें कहीं टिकी नहीं थीं.पीछे के बालों को रह रहकर खींचते हुए किसी सोच में डूबा था वह.<br />
<br />
फिर उठकर थोडी दूर पर चारे के लिए बेचैन खरगोशों के पास गया और उनके सामने घास और सब्ज़ी के टुकडों से भरी टोकरी उंडेल दी.उन्हें प्यार से निहारते हुए उनपर हाथ फेरने लगा.थोडी दूर घास चरते हिरनों की ओर और सूखे पेड की डाली पर बैठे चिंपांज़ी की ओर देखता रहा.<br />
<br />
अपने अहाते में निर्मित जलाशय के पास जाकर,मगरमच्छों को देखा.उनमें एक डोरी नाम की मादा मगरमच्छ अंडे देने वाली थी.<br />
<br />
हाथ जीन्स की जेब में घुसाकर चारों ओर उसने नज़र दौडाई,ऊंची चारदीवारी के बाहर हवा में हल्के से झूमते लंबे पेड थे.उन पेडों पर बैठी चिडियां मीठी आवाज़ में गा रही थीं.शाम का वक्त था.<br />
<br />
योगी की आंखों में उन सबसे अल्विदा कहने का भाव था!<br />
<br />
एक बार पीछे के बालों को ज़ोर से खींचकर उसने गेट पूरा खोल दिया.अहाते में से सभी जानवरों को बाहर भगा देने के बाद जलाशय का गेट खोला.तेज़ी से हमला करनेवाले मगरमच्छों से खुद को बचाने के लिए उछलकर दूर गया हो और उन्हें भी चालाकी से बाहर भागा दिया.उसके बाद फार्म हाउस में जाकर दरवाज़ा बंद कर लिया.प्यार से पाले सारे जान्वरों को खुले संसार में छोडकर,अंदर ज़मीन पर एक खुफिया दरवाज़ा खोला और नीचे उतर गया.<br />
<br />
सेल्लार में एक बडी मशीन थी जो रस्सियों में बंधे हाथी जैसी दिखाई दे रही थी.उस पर बेतरतीबी से फैले थे कुछ तार और पाइप.चौबीसों घंटे बैकप के सहारे काम करनेवाला जायंट कंप्यूटर था वह.<br />
<br />
सभी सिस्टम्स में काम चल रहा था.योगि ने एक बार हाथ की घडी की ओर देखा और एक कोने में रखी फ्लास्क से गरमागरम काफी मग में भरकर,रिवाल्विंग चैर पर बैठ गया.मेज़ पर रखी सिस्टम में ’सेवियर’शीर्षक वीडियो फाइल उसने खोला.तुरंत मानिटर के परदे पर योगी प्रकट हुआ.<br />
<br />
’गुड मार्निंग फ्रेंड्स!मेरे नाम से न आपको कुछ लेना देना है न मुझे.क्यों कि हमें अलग करने वाली बातों में नाम भी एक है.<br />
<br />
"मैं एक पर्यावरणविद हूं ,प्रकृति से प्रेम करता हूं.मतलब,जंगल,समंदर,आकाश,जानवर,आप,मैं, सब मुझे प्यारे हैं.लेकिन इन सबका विनाश करने की दिशा में मानव अग्रसर हो रहा है.इसलिए अब मैं जो कर रहा हूं वह अनिवार्य है,इसे आप समझ लें.<br />
<br />
"वैसे मैं जो करने जा रहा हूं,वह इस धरती पर संख्या को ठीक करने का काम है.यानी, इस भूमि पर कितने कौव्वे हों,शेर हों,इन्सान हों,यह सब पहले से तय है.जब एक प्रजाति के पक्षियों की तादाद बढ जाती है तो वे सामूहिक आत्महत्या कर लेते हैं.उनमें जो ज़िम्मेदारी या विवेक है,वह इन्सान में नहीं है.इसीलिए उसकी ज़िंदगी इतने सम्घर्षों से,इतने असंतोष से भर गया है.जानवर बाल्यावस्था में जितने खुश रहते हैं,बडे होने के बाद भी उतना ही खुश रहते हैं.इन्सानों के विषय में यह पूरी तरह भिन्न है.बढना इतना दुर्भाग्य कैसे माना जाने लगा?क्यों ऐसा हो रहा है?<br />
<br />
"विरोधों से भरे नियम ही इसका कारण है.जिन लोगों ने नियम बनाए,उन्हीं को उनका उल्लंघन करने में मज़ा आता है,यह उससे भी बडा विषाद है.इसी क्रम में श्रम के प्रतीक रूप में पैसा नामक ज़हरीले पदार्थ की भी सृष्टि करनी पडी.मानव के प्रस्थान में यह एक अत्यंत विनाशकारी कदम रहा.<br />
<br />
"पैसा ऐसा भयंकर ज़हर है कि इन्सान के सहज स्वभाव, आनंद,सृजन शक्ति,सबको मटियामेट कर देता है.संसार की ऐसी अधोगति हो गई है कि पैसा न कमानेवाला हरेक क्षण व्यर्थ समझा जाने लगा.यह तकनीकी युग तो उस सोच की पराकाष्ठा है.इन्सानों की संख्या ठीक करने से बाकी सब अपने आप ठीक हो जाएगा.<br />
<br />
"पर ज़रूरी नहीं कि यह आपरेशन सफल ही हो.क्यों कि सब ज़रूरी जांच मैं नहीं कर पाया.वजह,यह इन्सानों की मौत पर किया जानेवाला प्रयोग है!ज़्यादातर यह मेरी कल्पनाशक्ति पर ही आधारित है.अगर मैं असफल हो जाऊं,तो भी, अगर किसीको लगे कि मेरे विचार सही हैं,तो इस प्रयोग को आगे ले जाएं...इस पृथ्वी को बचाएं...<br />
<br />
"क्यों कि जैसे ही यह आपरेशन पूरा हो जाएगा,इस प्रयोगशाला के साथ मैं भी तहसनहस हो जाऊंगा.मैं जिस नये संसार की सृष्टि करनेवाला हूं उसमें मैं भी न रहूं,इसके लिए मैंने खुद को तैयार करने की ज़रूरत समझी थी..."<br />
<br />
इतने में दूर रखे मास्टर कंप्यूटर में से अलर्ट आने लगे.योगी उसके पास जाकर कमांड देने लगा.बीच बीच में मग में से काफी भी पीने लगा.<br />
<br />
’सेवियर’,ये बडे अक्षर परदे पर प्रकट हुए.<br />
योगी ने ज़ोर से सांस ली और मग मेज़ पर रख दिया.उसने जो वाइरस तैयार की,उसका नाम रखा सेवियर.जिस दिन वह वाइरस बनी,योगी को नहीं मालूम हुआ कि उससे वह खुश हो या दुखी.<br />
<br />
सेवियर सेलफोन के तरंगों के साथ कहीं भी जा सकती थी.फोन उठाते ही उधर के आदमी के साथ आधे किलोमीटर के घेरे के अंदर जो भी होगा,सर्वर ब्रेकडाउन होने से,पूरा का पूरा पलभर में नष्ट हो जाएगा.उसके बाद कुछ ही पलों में वाइरस भी अपनी शक्ति खो देगा ताकि बाकियों का कोई नुकसान न हो.<br />
<br />
समूचे संसार से सेलफोन नंबर इकट्ठे करने में उसका पेशा उसके काम आया.संसार के कोने कोने में यह आपरेशन चलाया जाएगा.उपग्रह केंद्रों में,परमाणु केंद्रों में,एंटी बयाटिक्स,गैस बेसिन्स जैसी संस्थाओं में मुख्य कार्यों पर लगे वैज्ञानिकों को,सामाजिक कार्यकर्ताओं को,इस आपरेशन से योगी ने अलग रखा ताकि उनकी मृत्यु न हो.उन वाइरसों को हटाने,बेकार करने और नए समाज का निर्माण करने केलिए उनका जीवित रहना ज़रूरी था.<br />
<br />
वैसे योगी ने इस वाइरस को दस साल पहले बनाया था.तब सारा संसार दो देशों में विभक्त होकर तीसरे विश्वयुद्ध की तैयारी में लगा था.संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी जवाब दे दिया था.<br />
<br />
हम ना रहें तो कोई बात नहीं,पर दूसरे को मिटाकर ही रहेंगे,यही दुनिया की सोच हो गई.<br />
<br />
इस युद्ध से किसी प्रकार जुडे न रहने वाले करोडों लोग विरोध कर बैठे."आप कौन होते हैं युद्ध करनेवाले?अगर इतना ही शौक है तो द्वन्द्व युद्ध करो!’यही सोचकर जब सेना भी बगावत कर बैठी ,तब जाकर चर्बी चढे सांड जैसे नेता लोगों ने घुटने टेक दिए.<br />
<br />
युद्ध रुक जाने से योगी भी रुक गया.<br />
<br />
पर वह खुशी ज़्यादा दिन नहीं टिकी.चांद पर कालोनी बनाने की कोशिशें जब ज़ोर पकडने लगीं,तब दोबारा योगी ने सेवियर को याद किया.<br />
<br />
इन्सान और कितने ग्रहों में विनाश की सृष्टि करेगा?इस अन्याय को रोकना पडेगा!इसके विकृत प्यास पर चेक लगाना ज़रूरी है.<br />
<br />
क्या यह सचमुच आगे बढना ही है?पीछे जब इतनी भूख और दुःख है...इन्सान को देने केलिए गालियां भी नहीं बची!<br />
<br />
कई दिन सोचने के बाद उस रोज़ दोपहर को वह एक पक्का निश्चय कर सका.सेवियर का प्रयोग करना ही होगा!<br />
<br />
सेवियर मशीन गरम होने लगा.योगी ने उसको छुआ...गर्मी नापी और हाथ की घडी की ओर देखा.दोपहर दो बजे वाइरस प्रक्रिया शुरू हुई.उस पूरी प्रक्रिया को खतम होने में छः घंटे और पैंतीस सेकंड लगेंगे.<br />
<br />
योगी रिवाल्विंग कुर्सी पर बैठकर अपना वीडियो देखने लगा.फिर उसने संदेश देना शुरू किया...<br />
<br />
"इन्सान अगर चांद पर कालोनियां बनाने लगेगा तो जानते हैं क्या होगा?मैं समाज शास्त्री नहीं हूं जीवशास्त्र का वैज्ञानिक हूं.फिर भी कल्पना कर सकता हूं.होगा यह कि...पैसेवाले सब चांद पर प्रवास कर जाएंगे.वैसे जाएंगे तो कोई बात नहीं,इस धरती को एक खंडहर बनाकर जाएंगे.आगे चलकर यह धरती एक प्रयोगशाला का रूप ले लेगी तो भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए.यहां जो लोग रह जाते हैं,उन्हें इन्सान की पहचान भी नहीं मिलेगी.यह दौर वैसे अभी शुरू हो चुका है.<br />
<br />
"और एक बात...<br />
<br />
अपार जलराशियों से,अनन्य वनों से,अद्भुत वातावरण से शोभायमान इस धरती को नष्टभ्रष्ट करनेवाले केलिए चांद को मिटाने में कितना वक्त लगेगा?सच पूछिए तो जब यह इस धरती को पूर्व रूप देने का काम करेगा तभी दूसरे ग्रहों पर उडकर जाने की योग्यता पा सकेगा.<br />
<br />
"यह इस प्रकार अति उत्साह से हत्या और आत्महत्या करने लगेगा तो मैं चुप नहीं रहूंगा.एक पर्यावरणविद होने के नाते..."<br />
<br />
इतने में ज़ोर से अलार्म बजी.योगी चौंक उठा.घडी की ओर देखा.सबकुछ समय के मुताबिक हो रहा था,एक सेकंड का भी फर्क नहीं आया.अपने प्रयोग की सफलता के ही आसार दिखाई दे रहे थे उसे.उसका दिल और ज़ोर से धडकने लगा!<br />
<br />
उसने वीडियो फाइल बंद किया और वहां से उठा.हेल्मेट जैसी चीज़ पहनकर प्रोसेस्सिंग मशीन के लीवर को लाल बत्ती के जलने तक ऊपर नीचे पंप किया.ऐसा करते वक्त उसके हाथों में हल्का सा सिहरन उठ रहा था.उसने सोचा, मेरे हाथ की एक एक हरकत मनुष्य की नस्ल को मौत की तरफ एक एक कदम ले जाएगी!<br />
<br />
लाल बत्ती जल उठी!प्रयोगशाला में लाल रोशनी भर गई.योगी को लगा कि वह रोशनी ज़बर्दस्ती अंदर घुस आनेवाली शाम की निस्तेज रोशनी जैसी है.<br />
<br />
’सेवियर रेडी’,ये अक्षर जलते बुझते दिखाई देने लगे.’लोड काल्स’,टाइप करके कुर्सी पर वह आराम से बैठ गया और आंखें मूंद लीं.अपने मन को काबू में करने का वह भरसक कोशिश कर रहा था, फिर भी वह उद्वेलित होने लगा.<br />
<br />
सिस्टम में जो बाक्स था, उसमें लाल रंग भरने लगा.यानी, लाखों फोन नंबर डायलिंग के लिए तैयार होने लगे हैं.उनमें योगी,उसकी पत्नी और बेटे के नंबर भी हैं.अगर कोई फोन नहीं उठाए या फोन एंगेज रहे तो नंबर एक घंटे तक रीडायल होते रहेंगे.<br />
<br />
"रेडी टु काल!"एक मोटी आवाज़ मानिटर में से आई और योगी ने चौंककर आंखें खोल दीं.मानिटर पर लाल अक्षरों में’काल’लिखा था.<br />
<br />
एंटर दबाने से सैकडों करोडों इन्सान कुछ ही पलों में इस दुनिया से उठ जाएंगे.यानी कई शरीरों में मनुष्य जीना छोड देगा.बस! मनुष्य रहेगा...प्राचीन मनुष्य!मैं सिर्फ उसे एडिट कर रहा हूं! योगी बुदबुदाया.<br />
<br />
एंटर बटन पर उसकी पतली उंगली गई.अंगूठा कांप रहा था.उसके मन में आखिरी बार बिना चेहरेवाले करोडों इन्सान दिखाई दिए...बस एक पल के लिए!<br />
<br />
लंबी सांस भरकर उसने ज़ोर से एंटर का बटन दबाया.<br />
<br />
अगले पल मेज़ पर रखा सेलफोन बज उठा.योगी ने उसे उठाया.रिसीविंग बटन दबाते हुए वह बेचैन और परेशान हो गया.अपना प्रयोग सफल होगा या नहीं इस बात की चिंता थी उसे...एक कलाकार की बेचैनी...उसने हेलो कहा...<br />
<br />
हाइ वोल्टेज बिजली का झटका लगने से जैसे कांप जाते हैं,वैसे ही योगी का समस्त शरीर कांप उठा.उस स्थिति में भी अपने प्रयोग की कामयाबी से योगी के होंठों पर खुशी खिल गई...बस आधे पल के लिए...तुरंत वह कुर्सी से उछलकर नीचे अचेत होकर गिर पडा.<br />
<br />
एक घंटे बाद वह प्रयोगशाला धमाके के साथ फट पडी.इस तरह दुनिया को बचाने केलिए दुनिया छोड गया नोबेल पुरस्कार को अस्वीकार करनेवाला प्रसिद्ध पर्यावरणविद,योगी!<br />
<br />
"वह जो भी था,मगर सच्चा प्रेमी था...इस दुनिया से उसे सच्चा प्यार था."ज़मीन की ओर देखते हुए कहा नीता ने.फिर ऊपर आसमान को देखकर सोचा,’नए अक्षर उडने को हैं!’<br />
<br />
नर्स ने एक साइकिल वहीं छोड दी और नीता को अपनी साइकिल के बार पर बिठा लिया.नीता बहुत कमज़ोरी महसूस कर रही थी."चलो तुम्हें एक अद्भुत दृश्य दिखाती हूं!"नर्स साइकिल चलाते हुए बोली.नीता चारों ओर नज़र दौडाकर गौर से देखने लगी...कहीं कोई इन्सान नहीं दिखाई दे रहा था...बस कुछ कुत्ते और गाएं थीं.<br />
<br />
एक बडे किले के आगे नर्स ने साइकिल रोकी.उस किले की दीवार का ओर छोर नहीं था,दिगंतों तक दीवार चली जा रही थी.<br />
<br />
"यह हमारी कालोनी का बार्डर है," नर्स ने कहा.दोनों दीवार के पास जाकर उसमें लगी जालीदार खिडकी से अंदर झांका.दीवार के उस पार एक खंदक था.उसके आगे टूटे फूटे मकानों के बीच एक जंगल शुरू हो रहा था.शेर और हिरन एक ही खंदक से पानी पी रहे थे.<br />
<br />
नीता ने हैरान होकर नर्स की ओर देखा.<br />
<br />
"लगता है उस शेर ने अभी अभी पेट भरके खा लिया,बस! हिरन जानते हैं कि कब उन्हें शेर से खतरा है.शेर ज़्यादातर हिरन जैसा ही होता है.सिर्फ इन्सान है जो चौबीसों घंटे शेर बना रहता है!"<br />
<br />
नीता ने नर्स की बातों पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया.<br />
<br />
"क्या यह चिडिया घर है?"नीता ने पूछा.नर्स नीता के बाल बिखेरते हुए हंसी और बोली,"नहीं बच्चे...यह जंगल है.हमारी कालोनी के चारों ओर का जंगल.सिर्फ इस तरफ की दीवार के यह इतने पास है.बाकी तीनों तरफ से जाना हो तो सैकडों किलोमीटर फार्म हाउज़ेस को पार करने के बाद ही जंगल तक पहुंचा जा सकता है.जानवरों को देखने केलिए इस तरफ इस दीवार को यहां खडा किया है.इस खंदक को खोदने में और दीवार बनाने में मेरा भी पसीना मिला हुआ है,जानती हो?बीस हज़ार लोगों ने काम किया तो एक साल में इसे बना पाए!"<br />
<br />
नीता शेर और हिरनों को देखने लगी.<br />
<br />
"अब इन्सान और जानवर अपनी ज़िंदगी अलग अलग रहकर जीते हैं .एक दूसरे के मामले में टांग नहीं अडा सकते.प्राकृतिक चुनाव को इन्सान नें ही खराब करके रख दिया था.फिर एक इन्सान ने ही...सिर्फ एक इन्सान ने...उसे ठीक कर दिया!"<br />
<br />
"तो क्या संसार में हर जगह ऐसी ही कालोनियां हैं?"<br />
<br />
"पता नहीं,योगी ने जो वीडियो में बताया ,उसके आधार पर सब यही मानते हैं,पर इन कालोनियों में किसी का किसीसे भी संबंध नहीं हैं.योगी के प्रयोग की वजह से सारे सेल टावर खराब हो गए.शायद योगी खुद नहीं जानता था इस तरह कुछ होगा.टीवी चेनेल काम नहीं करते.शायद सेटिलाइट्स को इनेक्टिव कर दिया हो?असल में कोई भी इस तरह का संबंध रखना ही नहीं चाहता.संबंध रखना हो तो जंगलों और समंदरों में रास्ते बनाने होंगे.मतलब,उन्हें चोट पहुंचाना होगा."<br />
<br />
"जंगलों,रेगिस्तानों और समंदरों को अबतक जो पार करते रहे वह काफी है.अब वे सब हमें रोमांच नहीं पहुंचाते.किसी को ये काम करने की रुचि या ज़रूरत नहीं रही.यह जो ज़िंदगी हम जी रहे हैं,वही अच्छी है,है ना?"रिवाल्विंग कुर्सी पर गोल गोल घूमते हुए नर्स ने कहा.<br />
<br />
नीता को नर्स की बत ठीक लगी और वे शब्द उसके मन में बहुत देर तक गूंजते रहे.<br />
<br />
नर्स ने उठकर डीवीडी चालू किया.टीवी के परदे पर योगी प्रकट हुआ.दाढी करीने से ट्रिम किए था वह.उसकी आंखों में चमक के साथ हल्की सी नमी भी दिखाई दी.उसके चेहरे पर प्यार का भाव था.उसकी आवाज़ साफ थी और कानों को भली लग रही थी.सुननेवाले को एक दम आकर्षित कर लेनेवाला व्यक्तित्व था उसका.<br />
<br />
..."अब आप जिस ज़मीन पर चल फिर रहे हैं.इसका एक एक इंच कई लोगों के खाली करके चले जाने से ही आपको मिला है.यह आप अच्छी तरह याद रख लें..."<br />
<br />
योगी का भाषण चल ही रहा था,इतने में नर्स ने गलती से रिमोट का बटन दबा दिया.परदे पर से योगी गायब हो गया और लोकल फिज़िकल कनेक्टिविटी से काम करनेवाला दूसरा चेनल चल पडा.<br />
<br />
उसमें खबरें पढी जा रही थीं...<br />
<br />
’इस नई दुनिया में सबसे पहला अपराध...अपने प्रेम को ठुकरानेवाली चौदह साल की लडकी का गला ब्लेड से काटनेवाला युवक...’<br />
<br />
नीता ने लंबी सांस छोडकर सोचा...अभी इस दुनिया में बहुत कुछ बदलने की ज़रूरत है!<br />
<br />
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santha sundari.rhttp://www.blogger.com/profile/08435993185719238671noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3573628780113893447.post-32735608846492888462011-10-23T05:12:00.000-07:002011-10-23T05:12:59.604-07:00-<br />
आँखों की आभा जा बसी नीलकमलों में*: वरवर राव<br />
<br />
वरवर राव<br />
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छत्तीसगढ़ में 5 जुलाई को एक आदिवासी लड़की को चंदो नामक गाँव के पास एनकाउंटर में मारा गया था। इसको लेकर लिखा तेलुगु के जनकवि वरवर राव का लेख दैनिक ‘आंध्राज्योती’ में प्रकाशित हुआ। तेलुगु से हिन्दी में इसका अनुवाद आर. शांता सुंदरी ने किया है-<br />
<br />
घने जंगल में अपने घर के चारों ओर छाए नीरव निश्शब्द में चहकते हुए हालचाल पूछनेवाले परिंदों को तरह-तरह के नाम देना मीना खल्को को पसन्द था। न जाने कितने अनगिनत घण्टे वह इसी तरह गुज़ार देती थी। कभी-कभार दिख पड़ने वाले जानवरों को भी वह इसी तरह नाम दे देती थी।<br />
<br />
वह सोलह साल की थी। उसने पाँचवीं तक पढा़ई करके पाठशाला जाना बन्द कर दिया। जंगल में मवेशियों के साथ घूमने की इच्छा से पढ़ाई छोड़ दी थी उसने। उरान आदिवासी जाति के बुद्धेश्वेरी खल्को और गुतियारी के दो लडकियां थीं। मीना बड़ी थी और चौदह साल की सजंति छोटी थी। उनके पास पाँच बकरियाँ थीं। उन्हीं के सहारे उस परिवार का गुजारा चलता था। मीना माँ के साथ बकरियाँ चराते दिनभर जंगल में घूमती रहती थी। घर पर रहती तो भी सारा वक्त पशु-पक्षियों के संग ही बिताती थी। उसने अपनी पाँचों बकरियों के नाम भी रखे- सुखिनि, सुक्ता, सुराइला, भूट्नी और लधगुड्नी।<br />
<br />
मीना के घर का आसपास बड़ा सुन्दर था, बस उनकी झोपड़ी ही जर्जर थी। घर के पास ही एक तालाब था। तालाब के किनारे पहाड़ थे। हरीभरी घास के मैदान पेडों की कतार जैसे एक-दूसरे के हाथ पकड़े खडे़ हों। झारखण्ड के जंगलों को छत्तीसगढ़ से जोड़ते से चुनचुना पहाड़, उन पहाड़ों से कूदते झरने।<br />
<br />
बिजली की बात छोडि़ये वहां अबतक आधुनिकता का पदार्पण ही नहीं हुआ। जुलाई 5 तारीख को मीना अपनी सहेली से मिलने जंगल में गई। कर्चा से दो-तीन किलोमिटर दूर स्थित चंदो नामक गाँव के पास वह एक एनकांउटर में फंस गई।<br />
<br />
‘‘तड़के तीन बजे के करीब हमने तीन बार गोलियाँ चलने की आवा़ज सुनी। डर के मारे घर से बाहर नहीं निकले। छः बजे जाकर देखा तो बाहर पुलिस वाले दिखाई दिये।’’ एनकांउटर जहाँ किया गया था, उसके सामनेवाले घर में रहनेवाली विमला भगत ने बताया। पुलिस ने उन्हें चेतावनी दी कि उस घटना के बारे में किसी से भी कुछ न कहें। चंदो और बलरामपुर के पुलिसवाले यह नहीं मान रहे हैं कि सिर्फ तीन बार गोलियों की आवाज सुनाई दी, पर उससे ज़्यादा गोलियाँ चलने के निशान वहाँ नहीं मिले। ‘एनकाउंटर कहां हुआ था? किसी भी एनकाउंटर में दोनों तरफ से कम से कम पचास-साठ राउंड चलते हैं। यहाँ सिर्फ तीन गोलियाँ चलाई गईं। उनमें से दो मीना के शरीर के पार हो गईं।’ ये बातें सिर्फ चंदो गांव के सरपंच ही नहीं, वहाँ के लोग भी कह रहे हैं।<br />
<br />
छत्तीसगढ़ के गृह मंत्री नानकीराम कंवर का कहना है कि मीना का इतनी रात गए जंगल में दिखाई देना ही यह सिद्ध करता है कि उसके माओवादियों से सम्बन्ध बने हुए हैं। वह एक घना बीहड जंगल है इसलिए वहाँ माओवादियों के होने की बात कही जा रही है। लेकिन पुलिस इस बात का सबूत पेश नहीं कर पा रही है कि वहाँ सचमुच माओवादी गुट छुपे हैं। अधिकारिक घोषणा के अनुसार एनकाउंटर तड़के तीन बजे हुआ था। कुछ घण्टे बाद मीना का घायल शरीर वहाँ पड़ा मिला। बलरामपुर का एस.पी. जितेन्द्र का कहना है कि बाकी नक्सलवादी भाग गए होंगे। उसका कहना है, ‘एनकाउंटर रात के अन्धेरे में किया गया था। पुलिसवालों ने सुबह छः बजे तलाशना शुरू किया, तब वह घायल स्थिति में उन्हें वहाँ दिखाई दी। उसने अपने कुछ नक्सलाइट साथियों के नाम भी बताए।’<br />
<br />
एनकाउंटर जहाँ हुआ था उस जगह से चंदों पुलिस स्टेशन चार किलोमीटर दूर है। वह खुली जगह है जहाँ किसी तरह की ओट नहीं है।<br />
<br />
‘‘नक्सलियों के साथ किसी के सम्बन्ध हों तो पडोसियों को ही नहीं दूर के रिश्तेदारों तक को पता चल जाता है। वह लड़की नक्सलवादी नहीं थी।’’ अयिकुराम ने कहा। वह कर्चा से बीस किलोमीटर दूर स्थित एक सरकारी पाठशाला में अध्यापक है।<br />
<br />
इस एनकाउंटर के विरुद्ध सरगुजा के आसपास उमडे़ आन्दोलन के आगे छत्तीसगढ़ की सरकार को घुटने टेकने ही पडे़ । उसने मजिस्टीरियल जाँच कराने का आदेश दिया (छत्तीसगढ़ में एनकाउंटरों पर मजिस्टीरियल तहकीकत नहीं होती। कई बार पोस्टमार्टम भी नही होता। लाश को रिश्तेदारों के हवाले भी नहीं किया जाता)। केस सीआइडी को सौंप दिया गया। चंदों पुलिस स्टेशन के सभी पुलिस अधिकारियों को अंबिकापुर पुलिस लाइन्स में भेज दिया गया। मीना के परिवारवालों को दो लाख रुपये हर्जाना दिया गया। इस एनकाउंटर से किसी तरह का नाता न होने पर भी उसी वक्त मीना के भाई रवीन्द्र खल्को की चंदो बालिका हॉस्टल में नौकरी लग गई। पुलिस परोक्ष रूप से इसे झूठा एनकाउंटर स्वीकार कर चुकी है। यह सिद्ध करने के लिए चंदो के सरपंच ने कहा, ‘‘क्या आपने कभी नक्सलियों के भाइयों को सरकारी नौकरी मिलने की बात सुनी है।’’ जि़ला कलक्टर जी.एस. धनुंजय ने कहा, ‘‘यह नौकरी मुख्यमंत्री रमण सिंह के कहने पर ही दी गई थी। वे (खल्को जनजाति) आदिवासियों में सबसे गरीब हैं। इन्सानियत के नाते उस लडके को नौकरी दी हमने। हॉस्टल में चपरासी की जरूरत थी। योग्यता न होने के बावजूद दिहाडी पर उसे नौकरी दी। वह दसवीं पास कर लेगा तो स्थाई नौकरी मिल जाएगी। फिलहाल उसे चार हज़ार रुपये मिल रहे हैं।’’<br />
<br />
अगर मीना के एनकाउंटर के बाद अपनी गलती सुधारने की बात पर यह किस्सा यहीं खतम हो जाती तो यह पूरी कहानी नहीं बनती। और न ही हमारे ‘हिन्दू’ देश में पुरुषों के नजरिये को समझने में इससे मदद मिल सकती। कहीं इस पुरुष स्वभाव को अपनी गलती मानना खल रहा था। अपमान की भावना जाग रही थी। राज्य सरकार, वह भी बी.जे.पी. सरकार को छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के विद्रोह को कुचल देने के लिए विपक्ष कांग्रेस और केन्द्र में कांग्रेस सरकार का समर्थन हमेशा से मिलता रहा है। केन्द्र आर्थिक और फौजी सहायता भी पहुँचा रहा है। जंगल में पूरे रूप से नक्सलियों का प्रभाव है, यह बात सारा संसार जानता है। वहाँ आदिवासी रहते हैं…अत्यंत निर्धन आदिवासी जनजातियाँ रहती हैं। और मीना ठहरी अति निर्धन आदिवासी जनजाति की लड़की। कितने ही तरह के अधिकार एक तरफ और कुचले जाने की कई योग्यताओं से युक्त एक अनाम लडकी एक तरफ। माओ ने जिन्हें चौथे जुआ का बोझ ढोने लायक कहा था, वह शायद इस तरह की स्त्री ही हों। और फिर यह तो और भी भोज डाले जाने लायक आदिवासी स्त्री थी। स्त्री भी नहीं, कुँवारी लडकी थी।<br />
<br />
न जाने क्यों मुझे एक बारगी ‘पाथेर पांचाली’ फिल्म की दुर्गा और ‘समाप्ति’ फिल्म की मृणालिनी याद आ गई। मृणालिनी इसलिए कि उसमें भी प्रकृति के प्रति प्रेम भरा था। दुर्गा में भी यह बात थी। उसके लिए रेल एक अजूबा था। उसमें इस कदर भोलापन था कि अमीरों के आडम्बर और गहने-लत्ते देखकर अविश्वास से आँखें कमल की पंखुडियों की तरह फैल जातीं। समाज में असमानता इन्सानों पर क्या प्रभाव डालती है? दोनों पक्षों के इन्सानों को इन्सान न समझना सिखाती है। अमीरों के पास सबकुछ है। न्याय, नीति, पवित्रता, अधिकार…। अभावग्रस्त लोग चोर हैं, अपराधी हैं, पतित हैं, भ्रष्ट हैं। ये मापदण्ड कौन तय करता है? अमीर ही। जिनके पास शिक्षा है, जिनके पास अधिकार नहीं है, उनसे अधिकार प्राप्त करके वे अभावग्रस्तों के लिए एक अपराध से भरे संसार की सृष्टि करनेवाली दण्ड संहिता की रचना करते हैं।<br />
<br />
मीना के एनकाउंटर होने के दो महीने बाद गृह मंत्री नानकीराम कंवर ने कहा, ‘‘मीना व्यभिचारिणी थी। ट्रक ड्राइवरों के साथ उसके नाजायज संबंध थे।’’ एनकाउंटर हुआ तब वह घर से दूर थी इसका कारण नक्सलियों से उसका संबंध है। इस बात की पुष्टि होती है, यह ज्ञान भी उस पुरुष सत्तात्मक पुलिस मंत्री के दिमाग में कौंध उठा। कुछ पुलिसवालों को भी यह विश्वास करने योग्य अभियोग लगा। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में ‘मूत्र नली में छेद हो गए, गर्भाशय का ऊपरी भाग चिर गया’, इस तरह के लैंगिक अत्याचार को सूचित करनेवाली बातें जोडी़ गईं। एक अधिकारी का कहना था कि चंदो पुलिस स्टेशन से पूरी टुकडी को दूसरी जगह बदलने के बाद इस तरह की पोस्टमार्टम रिपोर्ट पेश करना बडी़ हैरानी की बात है। ‘रिपोर्ट में सिर्फ घावों के बारे में और मौत की वजह के बारे में लिखा जाना चाहिए था’, यह उसका कहना था। गाँव वालों का कहना था कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मीना के शराबी होने की बात बाद में जोड़ दी होगी।<br />
<br />
बलरामपुर के एस.पी. ने कहा कि मीना की योनि के अंश फोरेन्सिक लेब में भेजे गए हैं और नतीजे आने अभी बाकी हैं। लेकिन गृह मंत्री ने फैसला सुना दिया कि मीना बदचलन थी। सरपंच ने दुःख व्यक्त किया कि भले ही सभी गाँववाले खल्को परिवार का साथ दे रहे हों, फिर भी यह दाग उस परिवार का जीना दूभर कर देगा। क्या मीना नक्सल थी? बदचलन थी? उसकी मौत का राज़ उसके दोस्त जंगल के दिल को मालूम था। ‘‘उसपर पहले उन्होंने (पुलिस) अत्याचार किया। फिर उसे मार डाला। पहले मेरी बच्ची को उन लोगों ने नक्सल कहा। अब कहते हैं कि वह बदचलन थी। यही आरोप मुझे सबसे ज़्यादा दुःख पहुँचा रहा है’’, मौन तोड़कर बडी़ वेदना से भरी मीना की माँ बुद्धेश्वरी देवी कह रही हैं। मीना की छोटी बहन सजंति सोलह साल की अपनी बहन की पासपोर्ट साइज तसवीर हमेशा अपने पास रखती है और जो भी मिलने आता उसे दिखाती रहती है।<br />
<br />
जुलाई छः तारीख को मीना की लाश को कन्हर नदी तट पर दफनाने के बाद उसका नेलपालिश, हेयरक्लिप, फ्राॅक और किताबों से भरी उसकी छोटी-सी संदूकची को उसके परिवार ने उसी नदी में बहा दिया। दुर्गा के (चोरी करके) छिपाये कण्ठहार को आँसू बहाते हुए जिस तरह अपू ने तालाब के पानी में छोड़ दिया था, उसी तरह इस बोझ को ढोनेवाली व्यवस्था से सजंति और उसके माँ-बाप कब मुक्त होंगे?<br />
<br />
*तेलुगु के महाकवि गुरजाड अप्पाराव की कविता की एक पंक्ति<br />
-Translated by R.Santha Sundarisantha sundari.rhttp://www.blogger.com/profile/08435993185719238671noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3573628780113893447.post-66577040473601987842011-10-06T20:27:00.001-07:002011-10-06T20:27:14.662-07:00गुमशुदा<br />
-----<br />
<br />
वहां कोई भी आराम और चैन से नहीं रहता<br />
चढनेवाले,उतरनेवाले,राह देखनेवाले<br />
बहुत शोर रहता है<br />
वहां खडा दिखाई देता है बस स्टेंड<br />
पर असल में ऐसा खडा होता नहीं वह बिल्कुल.<br />
<br />
बस से उतरकर थका मांदा निकला था बाहर मैं<br />
तो बगल की दीवार ने हाय यह क्या किया!<br />
मेरी नज़रों को खींच लिया अपनी तरफ<br />
इश्तहारों से हक्काबक्का वह दीवार<br />
गुमशुदा लोगों की तस्वीरों से भरी वह दीवार<br />
बच्चों युवाओं बूढों की तस्वीरों से अटी वह दीवार<br />
पर गुमाशुदा होने केलिए उम्र क्या<br />
तस्वीरों के नीचे विवरण उनकी पहचान के<br />
नाम, गांव, कद- काठी<br />
भाषा,वेश भूषा,रंग- रूप<br />
अंत में...<br />
कहीं दिख जाने पर खबर कर देने की<br />
आंसू भरी विनती!<br />
क्या राह भूलने से गुमशुदा हुए थे ये <br />
या चले गए अपनी अलग राह तलाशते<br />
या कोई राह न पाकर दुनिया छोड गए<br />
अपमान,आक्रोश,आवेश?<br />
नादानी,नासमझी,बेचैनी?<br />
क्यों चले गए होंगे?<br />
अब कहां होंगे<br />
किस छांव में <br />
किस धूप में<br />
किस खेमे में<br />
किस चौखट पर<br />
किस नदी में<br />
किस शहर की चकाचौंध से भरी रेगिस्तान में<br />
इनके गांव में इनके घर<br />
राह तकते होंगे इनकी उदास आंखों से<br />
इस खालीपन का बखान कैसे करे कोई!<br />
आदमी के खो जाने से घेर लेता है जो खालीपन<br />
क्या कोई नाप सकता है उसे?<br />
इस नाप तोल से परे हैं<br />
विषाद से भीगे वे घर-<br />
घरों के दरवाज़ों और खिडकियों में<br />
खुला रहता है विश्वास<br />
सही रास्ता पकडकर<br />
कभी न कभी वापस ज़रूर आएंगे<br />
अपने साथ खुशी का राग ज़रूर लाएंगे!<br />
<br />
पर कुछ ही दिनों में<br />
ये इश्तहार फीके पड सकते हैं<br />
इनकी जगह नई तस्वीरें नए नारे<br />
ताज़े झूठे विज्ञापनों के महा आफर<br />
दिखाई दे सकते हैं<br />
या इस दीवार को तोडकर<br />
एक माल ही खाडा हो जाए कौन जाने!<br />
कुछ दिन बाद <br />
इनसानों की पहचान ही बदल जाए<br />
कौन कह सकता है!<br />
इन पहचानों के बूते पर<br />
कैसे पहचान पाएंगे<br />
कब पहुंचेगा फिर<br />
उन घरों में खुशी का राग?<br />
<br />
चारों तरफ नज़र दौडाई मैंने<br />
कुछ भी नहीं चल रहा था.<br />
चाल तो जैसे रह ही नहीं गई<br />
भागदौड,शोर,मुखौटे,धक्कामुक्की<br />
हर कोई ऐसा चल रहा था<br />
मानो खो गया हो<br />
इस मायाजाल से भरे समय में<br />
किसका पता किसको है<br />
कौन किसे तलाश सकता है<br />
सब के सब पागल हैं!<br />
इश्तहारों पर यकीन करते हैं<br />
कौन इन पहचानों को साथ लेकर जाएगा<br />
इन्सान तो इन्सान<br />
आगे बढ जाने की हठीली दौड में<br />
देश तक हो रहे हैं गुमशुदा<br />
पर यह तो बताइए-<br />
कहां लगाएंगे गुमशुदा देशों की तस्वीरें?<br />
मेरे अंदर उलझे विचारों की आंधियां हैं<br />
इन आंधियों में<br />
क्या मैं भी गुमशुदा हो रहा हूं<br />
या पहले से ही गुमशुदा था?<br />
इस दीवार को फिर एक बार<br />
देख रहा हूं गौर से<br />
क्या मेरी भी तस्वीर है यहां?<br />
नहीं है<br />
पर फिर भी<br />
मुझे जन्म देनेवाला मेरा गांव<br />
न जाने कहां चिपकाता होगा मेरी तस्वीर<br />
अपने मिट्टी सने हाथों से!<br />
<br />
मैं गुमशुदा नहीं हूं<br />
इस मिट्टी की बात बताने को<br />
कल ही अपने गांव जाऊंगा<br />
बस में चढकर!<br />
<br />
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मूल तेलुगु कविता : दर्भशयनं श्रीनिवासाचार्या<br />
<br />
अनुवाद :आर.शांता सुंदरीsantha sundari.rhttp://www.blogger.com/profile/08435993185719238671noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3573628780113893447.post-35006855973401262412011-10-06T20:24:00.001-07:002011-10-06T20:24:01.763-07:00टिहिली का ब्याह<br />
-------------<br />
<br />
दो पहाडियों के बीच रिश्ता बना.बाजे गाजे बजने लगे.गांव शहनाई और ढोलक के सुरों में भीग गया.पूरा गांव ’धिंसा’नाचने लगा तो रात रंगीन हो गई.हर एक पेड हाथ हिलाते हुए फूल बरसाने लगा.धरती पर चांदनी रुपहले धागों से बुनी चूनर सजाने लगी ...टिहिली के ब्याह में!<br />
<br />
पहाडी देवताओं का ध्यान करते हुए,गाते हुए जोडी को आसीस देने की प्रार्थना करने लगा था पुरोहित.उसने दूल्हे को मंडप में लाने को कहा.लोग दूल्हे को ढूंढने लगे...घर में देखा...गली में ढूंढा.गांव का चक्कर लगाकर आए.<br />
<br />
इस बीच एक लडका भागता आया और चिल्लाने लगा कि दूल्हा धर्मू,कहीं भी नहीं मिला.<br />
<br />
सब उतावले होने लगे.लोग समझने लगे कि टिहिली को चिढाने केलिए कहीं जाकर छिप गया होगा.गांव का पंडित दीसरी उंगलियों पर कुछ गिनते हुए आसमान में सितारों को देखने लगा.मुहूरत में अब कुछ ही समय बाकी रह गया था,तो सब के दिलों में तरह तरह के संदेह और सवाल उठने लगे.<br />
<br />
धर्मू के घर के सामने हरे पत्तों का चांदोवा बना था,उसके नीचे एक चारपाई थी.उसपर एक मूसल,रस्सी और अनाज मापने का एक बर्तन थे.घर के द्वार के सामने ताज़ा खोदी गई नाली थी.चांदोवा के नीचे जंगली फूलों की महक फैली थी.नई नवेली दुल्हन टिहिली ने परंपरागत विधि से साडी बांधी थी.उसकी आंखों में हल्की सी नमी थी...<br />
<br />
शाम तक शादी की रस्मों में शरीक होता रहा था धर्मू...द्वार के सामने बनी नाली पर खडॆ होकर पुरोहित के आसीस पानेवाला धर्मू...दोनों के पैरों के बीच आग में सुगंधित धूप डालकर,उस धुएं को नाली के पार कराते वक्त,दोनों के पैरों के बीच मुर्गे की बलि देकर उस खून को नाली में बहाते वक्त...टिहिली को गिरने से बचाने केलिए उसकी कमर में हाथ डालकर गुदगुदी पैदा करनेवाला धर्मू...कहां गया?चारपाई पर बैठकर,उल्टे बर्तन पर हल्के से टिहिली के पैरों को अपने पैरों से दबानेवाला धर्मू...रिश्ते नातेदारों से जंगली फूल और पत्ते अक्षत के रूप में स्वीकार करनेवाला धर्मू...मूसल को हाथों से घेरकर टिहिली के गले में हल्दी से रंगा धागा(मंगलसूत्र)बांधने के ऐन वक्त पर वह कहां चला गया?<br />
<br />
"मैंने पहले ही कहा ना था? वह पढा लिखा है,उसपर हम कैसे यकीन कर सकते हैं?"किसीने टिप्पणी की.<br />
<br />
"चुप कर तू.वह ऐसा नहीं है.पता नहीं उसके साथ कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई?"<br />
<br />
तरह तरह के सवाल,शंकाएं सर उठाने लगीं.वहां की हवा इस वजह से गरम हो गई.खुशबू बिखेरनेवाली हवा थम गई.टिहिली की आंखों से आंसुओं की बूंदें एक एक कर गिरने लगीं...<br />
<br />
जब धर्मू डिग्री के दूसरे साल में था,तब उसके मेडम ने उसे टिहिली के पास यह कहकर भेजा था कि,इससे बात करके देख लो,तुम्हारे शोध कार्य केलिए शायद कुछ विषय मिल जाए.<br />
<br />
धर्मू आदिवासी बस्ती में गया और टिहिली को अपना परिचय देते हुए कहा,"मेरा नाम धर्मू है.केंपस से आ रहा हूं.आदिवासी कलाओं के बारे में शोध कार्य कर रहा हूं."<br />
<br />
"टिहिली को संकोच करते देखा तो फिर कहा,"आप इतमीनान रखिए.बस मुझे आपसे सिर्फ कुछ जानकारी लेनी है,बस."धर्मू उसे केंटीन की ओर ले गया.बातों बातों में मालूम हुआ कि धर्मू के मां बाप गुज़र गए और वह रिश्तेदारों के घर में रहकर बडा हुआ.किसी सज्जन की मदद से यहां तक पढाई कर सका,और उन्हीं के प्रोत्साहन से अब यह शोध कार्य भी शुरू किया.यह भी पता चला कि धर्मू भी आदिवासी परिवार से ही है.<br />
<br />
"आदिवासी होकर हम इस तरह अपना रहन सहन,वेश भूषा,अपनी भाषा संस्कृति भूल रहे हैं.यह बडे दुःख की बात है,है ना?"उसने चाय की घूंट भरते हुए कहा.<br />
<br />
टिहिली ने सिर हिलाकर हामी भरी.<br />
<br />
उसके बाद अक्सर दोनों कालेज में मिलने लगे.त्योहारों के बारे में,आजकल गांवों की हालत के बारे में,किसी न किसी बात पर बोलता रहता था धर्मू.उसके रूममेट माज़ाक करते तो भी वह हमेशा गंभीर बना रहता.कभी सीमा नहीं पार करता था.<br />
<br />
"टिहिली!"एक दिन उसने नाम लेकर लडकी को पुकारा.<br />
<br />
टिहिली ने आंख उठाकर देखा.<br />
<br />
"आपका नाम बडा अजीब है!"<br />
<br />
टिहिली आंखों से हंसी.<br />
<br />
"आपका नाम पुकारता हूं तो लगता है कोई जंगली चिडिया उड रही है...या जंगली फूल हवा में हल्के से झूम रहा है!"धर्मू ने कहा तो टिहिली शरमा गई.<br />
<br />
गरमियों की छुट्टियों में...<br />
<br />
गांव से दूर पहाड पर टिहिली काम कर रही थी,तभी एक आदिवासी गीत सुनाई दिया...<br />
<br />
’आलिरोदूता पहाड पर<br />
कंद मूल उग आए<br />
पत्ते पर लिख भेजा संदेश<br />
बांस की टहनी पर चढ आऊंगी!’<br />
<br />
गीत पुराना था.लगता था कोई आदि मानव खुले गले से गा रहा है.पर आवाज़ जाना पहचाना लगा...कहां सुना था? टिहिली सोच में पड गई.<br />
<br />
सिर उठाकर देखा ...धर्मू कुदाल लेकर मिट्टी खोद रहा था.वहां अचानक वह दिख गया तो मन के किसी कोने में छुपी खुशी बाहर प्रकट हो गई.अनायास कदम उसकी ओर चल पडे.<br />
<br />
पहाड की चोटी...गांव बहुत दूर था.नीला आसमान,हरे भरे पेड,डालियों पर चहचहाते पंछी ,इन्हें छोडकर आसपास कोई नहीं था.<br />
<br />
"तुम मेरी देखभाल कर सकोगे?"टिहिली ने पूछा.<br />
<br />
"खुद परख लो,मालूम हो जाएगा!"अपने मज़बूत हाथ दिखाते हुए धर्मू ने कहा.<br />
<br />
"इतनी दूर क्यों आए?"<br />
<br />
"तुम्हारे लिए इन पहाडों को पार करके आ गया."<br />
<br />
"खाना खिला सकोगे मुझे?"<br />
<br />
"आटे का पसावन बनाकर खिलाऊंगा."<br />
<br />
"और क्या करोगे?"<br />
<br />
"हाट में लाल चोली का कपडा खरीद दूंगा.बस में फिल्म देखने ले जाऊंगा."<br />
<br />
"और?"<br />
<br />
"तुम्हें बुखार हो जाए तो दवा देकर सेवा करूंगा."<br />
<br />
"और?"<br />
<br />
"काले आसमान के नीचे बांहों में भींच लूंगा!"<br />
<br />
वह शरमा गई...जैसे लाल लाल ढाक के फूल चारों ओर बिखर गए!<br />
<br />
वह हंस पडा,जैसे हवा का झोंका बह गया...जब तक हवा का झोंका चलता रहा,ढाक के फूल गिरते रहे.<br />
<br />
<br />
* * *<br />
<br />
<br />
<br />
’जेके गांव की लडकी बालों में चमेली के फूल लगा आई<br />
यहां चारपई बिछाकर किस ओर चली गई?’<br />
<br />
हवा के साथ यह गीत कानों तक आ रहा था.पहाड,नदियां पार कर,डाली डाली से बतियाते हुए चला आ रहा था वह गीत.वह जमाई सास को संबॊधित करके गानेवाला गीत है.ब्याह से पहले रिश्ता मांगने केलिए आनेवाला यह गीत गाता चला आता है.<br />
<br />
दीसरी जानता था कि वे शुभ दिन थे.उसने आसमान की ओर देखा. सूरज सिर के ऊपर चढ आया.ये घडियां भी अच्छी हैं.किसी गांव से लडकेवाले लडकी का हाथ मांगने आ रहे हैं.गाना पास आ गया.सामने वह युवक था.उसके साथ बुज़ुर्ग भी थे.सब अपरिचित.सीधे उसके घर की तरफ आने लगे तो वह हडबडाकर उठा और पीने केलिए पानी देकर चारपई डाली.<br />
<br />
"कैसे हैं?कब निकले थे घर से?"दीसरी ने यह जानने के लिए पूछा कि वे किस गांव से आ रहे हैं.<br />
<br />
"सुबह सुबह निकल गए थे संदुबडि से."<br />
<br />
"अच्छा इसी लिए तो...ओडीशा के पहाडों के पार है ना आपका गांव?तभी कहूं पहचाने नहीं लग रहे हैं!"<br />
<br />
देहलीज़ पर साडी और चूडियां रखीं.गिलास में शराब डाली.दीसरी समझ गया कि वे उसकी बेटी का हाथ मांगने आए हैं.<br />
<br />
"दूल्हा कौन है?"दीसरी ने पूछा<br />
<br />
धर्मू मुस्कुराया.दरवाज़े के पीछे से झांकती टिहिली शरमाकर अंदर भाग गई.दीसरी ने गौर किया.उस दिन पहाड पर धर्मू का गाना और उसके बाद टिहिली के सवालों के बारे में वह सुन चुका था.आदमी का गाना सुनकर औरत जवाब दे तो समझना चाहिए कि उसे आदमी पसंद है.<br />
<br />
"आप किस जात के हैं?"दीसरी ने पूछा<br />
<br />
"आरिकोलु,और क्या?"<br />
<br />
दीसरी ने मन ही मन हिसाब लगाया कि इस जात में पहले कितने लोगों के साथ उसके पुरखों ने ब्याह रचाए थे.<br />
<br />
गांव के बडे बुज़ुर्ग एक एक करके आने लगे.लडके को एक नज़र देखकर बैठने लगे.सहेलियां चिढाने लगीं तो टिहिली शरम से लाल होने लगी.दीसरी और बुज़ुर्गों के मन में एक ही सवाल हलचल मचा रहा था,कौन है यह जवान?<br />
<br />
मौका पाकर धर्मू ने टिहिली को पकडा और पूछा,"सच बताना,क्या तुम मुझे नहीं पहचानती?"<br />
<br />
"मैं तो जानती हूं...पर बाबूजी और गांव के बडे,उन्हें भी तो मालूम होना ज़रूरी है ना?"टिहिली ने उदास होकर कहा.दोनों जानते थे कि उस रोज़ धर्मू के बारे में सब समाचार मालूम न होने की वजह से ही दीसरी ने साडी और चूडियों को छूने नहीं दिया था.शराब को भी हाथ नहीं लगाया था.<br />
<br />
टिहिली का बाप उस गांव का मुखिया था.सबको भला बुरा समझानेवाला वही गलत काम करे तो फिर गांव बिगड जाएगा,वहां के नीति नियम खराब हो जाएंगे!इन बातों के अलावा,धर्मू पर शक करने का असली कारण था,जब वह रिश्ता मांगने उनके गांव आया तब...उस दिन...<br />
<br />
सारा गांव चांदनी की रोशनी में,ढोलकों के धम धम के बीच उत्सव मनाते हुए नाच रहा था...उसी रात,सोमेसु,उर्फ चम्द्रन्ना ने गांव में कदम रखा.उसके पीछे एक युवती भी थी.ढोलकों की धम धम थमने तक गांव के लोग समझ गए कि वे दोनों पुलिस के आगे आत्मसमर्पण कर चुके हैं,दोनों में प्यार हो गया था और इसलिए गुट में रहकर काम करना मुश्किल हो गया था.आम लोगों जैसा जीवन बिताने का फैसला कर लिया था.यह खबर अगले दिन अखबारों में भी छप गई.<br />
<br />
अगले दिन गांव में पुलिस के सिपाही आ गए.एस पी के सामने दोनों ने एक दूसरे को वरमालाएं पहनाईं.एस पी साहब ने दोनों को नये कपडे और आशीश दिए,और कहा"इन्हीं की तरह बाकी लोग भी गुट को छोडकर समाज में आकर मिल जाएं,यही हमारी इच्छा है!"<br />
<br />
तभी रिश्ता मांगने आए धर्मू पुलिसवालों से बात करते हुए सबको दिखाई दिया.उस दिन भी उनके मन में यही सवाल उठा,’कौन है यह?’इसके गांव में कदम रखते ही यह आत्मसमर्पण करनेवाले अचानक कैसे आ धमके?फौरन पुलिस,पत्रकार...! किसका आदमी है यह?सब के दिलों में डर,संदेह उठने लगे.<br />
<br />
शादी का मंडप सुनसान हो गया...हर तरफ खामोशी छा गई.सब अपने अपने काम में मशगूल हो गए .तरह तरह की बातें करने लगे..."ब्याह में माइक सेट का होना ज़रूरी है.बेंड होना चाहिए,यह क्या है भाई पुराने ज़माने का ब्याह लगता है?"एक युवक झुंझला उठा.<br />
<br />
"कहीं पुलिस ने तो कुछ नहीं किया...?"किसीने कहा.अचानक उस बात से मंडप में फैली खामोशी टूट गई.<br />
<br />
"अरे क्या बात करते हो भाई?उन्हें इससे क्या लेनादेना?"धर्मू के एक दोस्त ने कहा.<br />
<br />
"क्या जाने?हमारे गांव में वही एक पढालिखा बंदा है.बात बात पर टाउन जाता रहता है.इसी बात से कहीं उसपर उन्हें शक हो गया हो...?"<br />
<br />
"अरे बेकार की बातें करके हमको भी डरा रहे हो...छोड ना...!"कहने को तो कह दिया पर उस आदमी के मन में भी डर घर करने लगा....कहीं यही सच ना हो...<br />
<br />
टिहिली का दिल ज़ोरों से धडकने लगा.उसकी आंखें भर आईं.मंडप में हो रही बातें और पुरानी यादें मिलकर उसके मन में खलबली मचाने लगीं...<br />
<br />
’सास से कहकर पिटवाया<br />
ससुर से कहकर पिटवाया<br />
सासू मां कहो तुम्हारी बेटी से बाहर आए<br />
मैं फूल देकर चला जाऊंगा’<br />
<br />
कुवी बोली में दूल्हा धर्मू गाते हुए नाचने लगा.उसके पीछे पहाड चलकर आएगा ,उसपर बहता झरना चलकर आएगा.सारे पत्ते मिलकर उसके गीत में ताल दे रहे हैं.<br />
<br />
फिर एक दिन...<br />
<br />
साडी और चोली देहलीज़ पर रखीं.गिलास में शराब डालकर रखा.<br />
<br />
दीसरी ने बेटी की ओर देखा.उसके चेहरे पर उदासी थी.वह बाप की इजाज़त का इंतज़ार कर रही थी.नहीं माना तो...? आधी रात को उसके साथ...!तब वह क्या कर सकेगा?बेटी ने जो इज़्ज़त दी उसे बनाए रखना ही ठीक होगा.बिन मां की बच्ची है.उसके मन मुताबिक शादी करना ही ठीक है,यह मेरे लिए भी खुशी की बात होगी.दीसरी सोचने लगा.सब उसके फैसले के इंतज़ार में थे.<br />
<br />
उसने सिर हिलाया...’हां’ कहा.शराब का गिलास उठाया,दो चार बूंद मुंह में डालकर दूल्हे के बाप को दिया.टिहिली की आंखों से चांदनी झरने लगी.उसकी हंसी सुनकर गली के छोर पर ढोल बज उठा.सब लोगों ने शराब पी.साडी और चूडियों की तरफ टिहिली ने प्यार से देखा.शहनाई के सुरों में सारी गलियां भीग गईं.जंगल पर से गुज़रकर वह खुशबू धर्मू के दिल को छू गई.सारा गांव पंक्तिबद्ध होकर धिंसा नाचने लगा.<br />
<br />
बेटी के ब्याह का महूरत निश्चय किया दीसरी ने.उस धूमधाम के बीच वापस लौटते वक्त एक युवक ने आकर धर्मू के कान में कुछ कह दिया.धर्मू के चेहरे का रंग बदल गया.<br />
<br />
"इस वक्त?"धर्मू ने पूछा.<br />
<br />
"हां,अभी...गांव के बाहर हैं वे"युवक ने बताया.<br />
<br />
"चल..."धर्मू उसके साथ हो लिया.<br />
<br />
गांव के सिवानों में,सडक से दस कदम दूर पेड के नीचे एक सेंट्री खडा था.उसके पीछे भारी बैग और हाथियार लिए चट्टानों पर बैठे थे कुछ लोग...काले सायों की तरह.जंगल के अंदर कहीं एक तीतर बोलने लगा.चांद को एक बादल का टुकडे मे ढंक दिया.<br />
<br />
"अब तुम जा सकते हो,"यह सुनते ही धर्मू वापस लौट आया.<br />
<br />
दीसरी ने जो महूरत निशित किया वह घडी आ गई.दूल्हे का परिवार दुल्हन के घर पहुंच गया.ढोलकों का शोर,शहनाई के सुर पहाडों में गूंजने लगे.पुरोहित सभी पहाडी देवताओं का स्मरण करते हुए प्रार्थना करने लगा कि लडकी को सभी भूत प्रेतों से बचाए,वह खूब बच्चे पैदा करे और सुखी रहे.उसके बच्चे पहाड पर कामकाज करने की हालत में तंदुरुस्त रहें इस बात का आशीर्वाद देने लगा.<br />
<br />
नई लुंगी में चावल बांधकर,मुर्गे को देवता के आगे रखकर फिर दूल्हे को पकडाया.घडियां गिनने के बाद कहा,"अब निकल पडो!"<br />
<br />
" यह लडकी हमारे संग खेली थी<br />
साथ मिलकर काम करती रही<br />
अब तेरे संग चल पडी<br />
डाल की कली कहीं मिट्टी में न गिर जाए<br />
फूल बने<br />
फल बने<br />
बीज बन फिर उगे..."<br />
<br />
अपनी बोली में, सारा गांव, यह गीत बनकर,टिहिली और धर्मू को विदा करने सिवानों तक साथ चला.नई कोंपल से भरे ढाक के पेड सी थी टिहिली.जंगल की समूची सुंदरता उसके चेहरे में रौनक पैदा कर रही थी.लोगों ने उसके सिर पर फूलों की छतरी पकडी.उसके ऊपर साडी को फैलाकर पकडा.फूल जैसी लडकी पर कोई भी फूल ना गिरे...इमली का फूल तो बिल्कुल भी ना गिरे...ऐसे उमंग से भरे गीत गाते हुए चलने लगे.<br />
<br />
"आपकी लडकी हमारे घर का दीया होगी<br />
सुख हो या दुःख हमारे संग रहेगी<br />
यह हमारे घर की देवी है<br />
इसकी आंखों को कभी भीगने नहीं देंगे हम"<br />
<br />
दूल्हे का मामा टिहिली को कंधे पर उठाकर आगे बढा.पत्थरों पर चलते वक्त कहीं उसके पैरों का महावर बिखर न जाए इस बात का ध्यान रख रहे हैं.रास्ते भर जंगली फूलों की महक चलने के श्रम को भुला रही है.पहाड,नदियां,मेंड पार करते हुए चांदनी की धारा में आगे बढते जा रहे हैं.<br />
<br />
बारात के मंडप में पहुंचने तक जंगल पर चांदनी छाई रही.पुरोहित और दीसरी मिलकर आधी रस्में पूरी कर चुके थे.इतने में यह खबर मिली.<br />
<br />
टिहिली सोचने लगी...<br />
<br />
न जाने कहां गया?किस ओर गया?<br />
क्या मुझे धोखा देना चाहता है?<br />
नहीं,धर्मू आएगा...ज़रूर मेरे लिए आएगा.बाकी शादी की रस्में भी पूरी होंगी.धर्मू तब मेरा अपना हो जाएगा.महूरत की घडियों के खत्म होने से पहले आ जाएगा.<br />
<br />
ब्याह होगा.सुबह होगी.गांव छोडकर गाजे बाजे के साथ बिदा हो जाऊंगी.बहती धारा में वह मेरी कमर पर हाथ डाले मेरे पीछे खडा हो जाएगा.दोनों के पैरों के बीच पुरोहित मुर्गा रखकर उसे काटेगा.लाल रंग का पानी हमारे पैरों के बीच से होकर बहेगा.पुरोहित दोनों को आशीश देगा.धर्मू मुझपर पानी डालेगा.मैं भी डालूंगी.भीगे ,हल्दी से पीले कपडों में उसके स्पर्श से मैं सराबोर हो जाऊंगी.फिर दोनों तरफ के रिश्तेदार एक दूसरे पर नदिया का पानी छिडकेंगे.नदिया रंगों से भर जाएगी.भीगे कपडों में उसका गांव पहुंच जाएंगे.एक हरे भरे पेड के नीचे दूल्हे की बहनों और बहनोइयों को मैं हल्दी मिले पानी से स्नान कराऊंगी.<br />
<br />
उसके बाद...<br />
<br />
बुज़ुर्ग लेन देन की बात करेंगे.धर्मू वचन देगा कि वह मेरी अच्छी देखभाल करेगा.वचन तोडने पर जुर्माना भरने का भी वादा करेगा...<br />
<br />
उसके खयालों में अडचन पैदा करते हुए अचानक मंडप में हलचल मच गई.<br />
<br />
एक लडका दौडता आया.वह तेज़ दौडने से हांफ रहा था."अरे क्या बात है? क्या हुआ?"पूछते हुए सब उसके पास पहुंच गए.<br />
<br />
"वहां...नदिया के किनारे...धर्मू बेहोश पडा है...!"उसने बताया.<br />
<br />
सब चिंतित हो गए,घबरा गए..."कहां? बता...किधर?"वे परेशान होकर पूछने लगे.<br />
<br />
उस लडके ने रास्ता दिखाया.उसके पीछे लोग मशाल और टार्च लेकर दौड पडे...<br />
<br />
नदिया के किनारे...घाटी में...खून से लथपथ...शादी के कपडों में बेहोश पडा था धर्मू.उसे उठाकर बाहर लाए.पानी छिडक कर होश में लाने की कोशिश करने लगे.<br />
<br />
ज़रा सी हरकत हुई...उसने आंखें खोलीं.उसे घेरे खडे थे उसके अपने.उनके सिरों के ऊपर घने पेडों की छतरी थी....उससे परे था नीला आसमां.आस्मान में तारे टिमटिमा रहे थे.<br />
<br />
तारों को देखते हुए धर्मू ने पूछा,"महूरत निकल गई या अभी वक्त बाकी है?"<br />
<br />
"अभी वक्त है बेटा...पर तू यहां कैसे गिर गया रे?क्या हुआ था?"धर्मू के रिश्तेदारों में से ऎक बुज़ुर्ग ने रुअंसे स्वर में पूछा.<br />
<br />
"टिहिली कहां है?"धर्मू ने पूछा.<br />
<br />
टिहिली दौडती आई.सब लोग हट गए और उसे रास्ता दिया.<br />
<br />
धर्मू के हाथों में अधमरा खरगोश था. उसे टिहिली के आगे किया धर्मू ने.उसने कहा,"शादी से पहले अकेले शिकार करने का रिवाज है ना?"<br />
<br />
"अरे,कमाल है बेटा...हम तो घबरा गए थे.पर आजकल यह रिवाज कहां रह गया है रे?यह तो अब पुरानी बात हो गई,सब छोड चुके हैं!"<br />
<br />
"रिवाज तो ज़रूरी है!निभाना ही पडता है ना?"<br />
<br />
"ठीक है...अब उठो...शुभ घडी निकल जाएगी.उससे पहले यह बांध दे,"कहकर हल्दी लगा धागा उसके हाथ में दिया पुरोहित ने.<br />
<br />
ढोलक् बज उठा.मंजीरे ने भी साथ दिया.साथ ही धिंसा नाच भी शुरू हो गया.पहाड गूंज उठे.जंगल खुशी से झूम उठा.<br />
<br />
------------------------------------------------------------<br />
<br />
मूल कहानी : मल्लिपुरम जगदीश<br />
<br />
अनुवाद : आर.शांता सुंदरीsantha sundari.rhttp://www.blogger.com/profile/08435993185719238671noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3573628780113893447.post-54120620993796465642011-10-06T20:21:00.001-07:002011-10-06T20:21:21.018-07:00फिर एक बार<br />
------------<br />
<br />
रोज़ जाता हूं उसी रास्ते से<br />
फिर भी आंखों से <br />
कुछ ओझल होने का अनुभव<br />
कटे पपीते के पेड की बची निशानी<br />
शरीर में मीठा अहसास भर देती है<br />
<br />
वहां एक दीवार पर<br />
नाचते थे भित्तिचित्र<br />
उन्हें रूप देनेवाले हाथ<br />
पागलों की तरह भटक भटककर राहों पर <br />
देह को मिट्टी के हवाले कर गए अचानक<br />
<br />
कभी न पसीजने वाले दिलों को<br />
अर्थी को कंधा देते देख<br />
गगन अपने जलदेह से उतर आया<br />
और मानवता को गले लगाया...<br />
<br />
खुद गाना बन दसों दिशाओं से बतियानेवाला तानपूरा<br />
उस घर के आगे रुक गया अचानक<br />
तानपूरे के तार टूटकर बिखर गए<br />
लाखों आवाज़ें बन<br />
गायक को खो देना क्या है<br />
यह समझ लेना<br />
उसे सिर पर बिठाना ही तो है<br />
<br />
बीच रास्ते में रुक जाए तो <br />
कौन कर सकता है बरदाश्त...?<br />
आवाज़ तो चली गई<br />
पर कहीं से एक मीठा सुर<br />
लगातार जागाती ही रही.<br />
<br />
--------------------------------------------------------------------------<br />
<br />
मूल कविता : पायला मुरलीकृष्णा<br />
<br />
अनुवाद :आर शांता सुंदरीsantha sundari.rhttp://www.blogger.com/profile/08435993185719238671noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3573628780113893447.post-1222514873337957732011-06-16T20:22:00.001-07:002011-06-16T20:22:56.729-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: left;">अफ्रीका में भाषा और साहित्य की राजनीति को लेकर न्गूगी वा थियांगो के विचार </div>---------------------------------------------------------------------------------<br />
<br />
अधिकतर अफ्रीकी साहित्य मौखिक रूप में उपलब्ध है.उसमें कहानियां,लोकोक्तियां,और कथनों के अलावा,पहेलियां भी होती हैं.अपनी पुस्तक,डीकोलोनैज़िंग द मैंड ,में न्गूगी अपने बचपन के दिनों में मिले मौखिक साहित्य के महत्व पर प्रकाश डालते हैं.उनका कहना है,"शामों में आग के चारों ओर बैठकर कहानियां सुनते और कहते थे.उन दिनों की याद अभी भी मेरे मन में ताज़ी है.ज़्यादातर बडे ही बच्चों को कहानियां सुनाते थे,पर उस कार्यक्रम में सब लोग सम्मिलित होते थे और दिलचस्पी लेते थे.हम बच्चे खेतों में काम करनेवाले दूसरे बच्चों को वही कहानियां सुनाते."<br />
<br />
अधिकतर कहानियों में जानवर होते थे.न्गूगी कहते हैं,"खरगोश शरीर से कमज़ोर ज़रूर था पर उसकी चतुराई गौर करने योग्य थी.वही हमारा हीरो था.परभक्षी जानवर,शेर,चीता,और लकडबग्घा जैसे जानवरों से लडनेवाले खरगोश हमें अपना लगता था.उसकी जीत हमारी जीत थी.और हमने सीखा कि कमज़ोर कहलाने वाले भी बलवानों पर विजय प्राप्त कर सकतेहैं."<br />
<br />
न्गूगी के अनुसार,अफ्रीकी साहित्य को पढने केलिए उनकी विशेष संस्कृति,मौखिक साहित्य को सीखना अत्यंत आवश्यक है.उसीसे अफ्रीकी लेखक ,कथावस्तु,शैली और रूपक ग्रहण करते हैं.<br />
<br />
आब प्रश्न यह उठता है कि अफ्रीकी साहित्य क्या है? न्गूगी को इसमे कुछ उलझन दिखाई देती है.वे कहते हैं,"इस विषय पर बहस करते हुए हमारे सामने कुछ प्रश्न आकर खडे हो जाते हैं...हम अफ्रीका के बारे में लिखे गये साहित्य की बात कर रहे हैं या अफ्रीकी अनुभवों के बारे में?क्या यह साहित्य अफ्रीकी लेखकों द्वारा लिखा गया है?अगर कोई अफ्रीकी लेखक ग्रीनलेंड को घटनास्थल बनाकर लिखता है तो क्या उसे अफ्रीकी साहित्य माना जा सकता है?" ये सब अच्छे सवाल हैं,पर न्गूगी कहते हैं कि ये सब सवाल उस सभा में उठाए गए थे जहां सिर्फ अंग्रेज़ी में लिखनेवाले अफ्रीकी लेखक उपस्थित थे.जो लेखक आफ्रीकी भाषा में लिखते थे,उन्हें निमंत्रण नहीं दिया गया था.<br />
<br />
स्वदेशी स्वर के प्रति उपनिवेशन का इस प्रकार आंख मूंद लेने की प्रवृत्ति को न्गूगी ने प्रत्यक्ष अपमान माना था.उनका कहना है कि उपनिवेशन के दौरान मिशनरी और उपनिवेशी प्रशासकों ने प्रकाशन संस्थाओं को और शिक्षा संबंधी पुस्तकों को अपने अधीन रखा था.इसका मतलब था उन्हीं पुस्तकों और कहानियों को अहमियत और प्रचार मिलता था,जो धार्मिक थीं और कहानियों को चुनते वक्त ध्यान रखा जाता था कि अफ्रीकी जनता को अपनी वर्तमान स्थिति पर कोई भी सवाल उठाने का अवसर न दिया जाए.उन्हें यूरोप की भाषा बोलने केलिए विवश करके उन्हें अपने अधीन रखने की कोशिश की जती थी.बच्चों को (भविष्य की पीढी) यह सिखाने की कोशिश की जाती कि अंग्रेज़ी में बोलना अच्छा है और स्वदेशी भाषा बोलना बुरा.भाषा को एक ऐसा वक्र माध्यम बनाया जाता कि बच्चों को अपने ही इतिहास से अलग किया जाता था.वे अपनी विरासत को सिर्फ घर में ही परिवार के साथ बांटते थे,यानी अपनी मातृभाषा में बोलते थे.पाठशाला में उन्हें बता दिया जाता कि आगे बढना हो तो सिर्फ उपनिवेशी भाषा में लिखे गये इतिहास को पढकर.उनकी पढाई लिखाई में से उनकी अपनी मातृभाषा को हटा देने से वे अपने इतिहास से अलग कर दिए जाते और उसके स्थान पर यूरोप के इतिहास और भाषा सीखने लग जाते.इस तरह अफ्रीकी लोग उपनेवेशियों के और मज़बूती से अधीन हो जाते.<br />
<br />
न्गूगी का कहना है कि उपनिवेशन केवल शारीरिक शक्ति दिखाने की प्रक्रिया ही नहीं,बल्कि "बंदूक की गोली शारीरिक रूप से अधीनस्थ बनाने का तरीका थी.भाषा का उपयोग आत्मा की दासता का तरीका था."<br />
केन्या में उपनिवेशन ने अंग्रेज़ी को शिक्षा का माध्यम बनाकर उसका खूब प्रचार प्रसार किया, जिसके फलस्वरूप केन्या की भाषा में बोलचाल मुरझा गयी.इससे अफ्रीकी साहित्य नष्टभ्रष्ट हो गया.इसके बारे में न्गूगी लिखते हैं,"भाषा संस्कृति को लेकर चलती है,और संस्कृति(विशेशकर भाषण और साहित्य के द्वारा)समस्त मूल्यों को अपने साथ लेकार चलती है,जिनकी मदद से हम स्वयं को और समस्त संसार को देखते हैं."अतः,एक अफ्रीकी व्यक्ति जिसे महसूस करता है,उसे किसी दूसरी भाषा में कैसे अभिव्यक्त किया जा सकता है?<br />
<br />
न्गूगी कहते हैं कि अफ्रीकी भाषा में लिखना सांस्कृतिक पहचान केलिए उठाये जाने लायक एक आवश्यक कदम है.सदियों से यूरोप द्वारा किए जा रहे शोषण के विरुद्ध ऐसा कदम उठाकर ही स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है.<br />
<br />
--------------------------------------------------<br />
<br />
अनुवाद : आर.शांता सुंदरी.</div>santha sundari.rhttp://www.blogger.com/profile/08435993185719238671noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3573628780113893447.post-33789891965480827632011-06-16T20:18:00.000-07:002011-06-16T20:18:17.698-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
न्गूगी कॆ कुछ कथन<br />
-------------<br />
<br />
१. हम अफ्रीकी लेखक् इतने कमज़ोर कैसे पद गए कि हम दूसरी भाषाओं पर अपना अधिकार जमाना चाहते हैम्>.. खासकर, उपनिवेशन की भाषा पर?<br />
<br />
२. १८८४ का बर्लिन तलवार और गोली से प्रभावित था.पर तलवार और गोली की रात के बाद खडिया और ब्लेकबोर्ड की सुबह आई.युद्धक्षेत्र की शारीरिक हिंसा कक्षा की मानसिक हिंसा में तब्दील हो गई.मेरी दृष्टि में भाषा ही वह महत्वपूर्ण वाहिका थी जिसके द्वारा वह अधिकार बच्चों को अचंभित और उनकी आत्मा को बंदी बना सका.मैं अपनी ही शिक्षा के अनुभवों से कुछ उदाहरण देकर इस बात की पुष्टि करना चाहूंगा.<br />
<br />
३. हम घर में और बाहर भी गिकुयु भाषा बोलते थे(यही केन्या में अधिकतर लोगों की भाषा है)हम सर्दियों में आग जलाकर उसके चारों ओर बैठ जाते और अपनी भाषा में कहानियां सुनते.फिर उन्हें उन बच्चों को जाकर सुनाते जो यूरोप और अफ्रीकी ज़मींदारों के खेतों बागीचों में और चाय के बागानों में काम करते थे.<br />
<br />
४. इन कहानियों की विषयवस्तु हमेशा ही सहकारिता और समूह की भलाई हुआ करती थी.(उन्होंने कहानी को बेहतरीन तरीके से कहने और गडबड करके कहने के फर्क को समझाया.)इस तरह हमें शब्दों की अहमियत और भावों की सूक्ष्मता का आभास मिलता था.भाषा का अर्थ केवल शब्दों की लडी नहीं है.शब्दों से परे उसकी एक गूढार्थ भी होता है.पहेलियों,लोकोक्तियों,अक्षरों को इधर उधर करके अर्थ बदल देना,ऐसे खेलों से हमें भाषा के जादू का मर्म समझ में आ जाता था.कभी कभी अर्थहीन शब्दों से संगीत का सृजन करने का खेल भी हम खेलते थे.पाठशाला में सीखने की भाषा,हमारे समाज में बोली जानेवाली भाषा और खेतों में काम करते वक्त बोली जाने वाली भाषा एक होती थी.<br />
<br />
५. उसके बाद मैं पाठशाला गया,एक उपनिवेशी स्कूल,तब यह तालमेल में बाधा आई.मेरी शिक्षा जिस भाषा में होने लगी वह मेरी संस्कृति की भाषा नहीं थी.मेरी श्क्षा का माध्यं अंग्रेज़ी हो गया.केन्या में अंग्रेज़ी एक भाषा से भी बढकर थी: वही एकमात्र भाषा रह गई और सबको उसके सामने आदर से सिर झुकाना पड गया.<br />
<br />
६. सबसे अपमानजनक संदर्भ वह होता था जब किसी बच्चे को स्कूल के आहाते के अंदर गिकुयू बोलते हुए पकड लिया जाता.अपराधी को कडी सज़ा दी जाती थी...तीन से पांच तक बेम्तों की मार नंगे पुट्ठों पर...या गर्दन पर एक लोहे का तख्ता लटका दिया जाता था जिसपर लिखा होता था’ मैं मूर्ख हूं ’ अथवा ’ मैं एक गधा हूं ’.कभी कभी तो अपराधी को पैसे भरने पडते जो वह भर नहीं पाता.और अध्यापक अपराधियों को पकडते कैसे थे? किसी एक विद्यार्थी को एक बटन दिया जाता और बताया जाता कि कोई भी विद्यार्थी अपनी मातृभाषा में बात करता दिख जाए उसे वह बटन थमा दे.स्कूल खतम होते वक्त जिसके पास वह बटन मिल जाता वह यह बता देता कि किसने उसे वह बटन दिया है.इस सिलसिले में वे सभी विद्यार्थी पकड लिए जाते जिन्हों ने अपनी मातृभाषा में बात की.इस तरह बच्चों को अपनों के विरुद्ध जासूसी करना सिखाया जाता था.और इस दौरान अपनों के प्रति विद्रोह करने से मिलने वाले लाभ के बारे में भी अवगत किया जाता था.<br />
<br />
७. पर अंग्रेज़ी भाषा के प्रति उनका व्यवहार इसके बिल्कुल विपरीत था:अंग्रेज़ी बोलने या लिखने में ज़रा भी कुशलता हासिल की जाती तो पुरस्कार मिलते.अगर अंग्रेज़ी में अनुत्तीर्ण हो गए तो फिर वह सभी परीक्षाओं में अनुत्तीर्ण समझा जाता,चाहे दूसरे विषयों में उसने कितना भी बेहतरीन काम क्यों न किया हो.उपनिवेशी संभ्रांतता प्राप्त करने केलिए अंग्रेज़ी को ही वाहन और जादुई सिद्धांत माना जाता था.<br />
<br />
८. सत्रह साल आफ्रो- यूरोपीय( मेरे संदर्भ में आफ्रो-अंग्रेज़ी) साहित्य से जुडे रहने के पश्चात, मैंने १९७७ में गिकुयी भाषा में लिखना शुरू किया था.मेरा गिकुयू में ...एक केन्याई भाषा में...एक अफ्रीकी भाषा में...लिखना साम्राज्यवाद के विरुद्ध केन्या और अफ्रीकी जनता के द्वारा किए गए संघर्ष का ही एक भाग मानता हूं.स्कूलों और विश्वविद्यालयों में हमारी केन्याई भाषा को , पिछडापन,विकास का अभाव ,अपमान और दंड का प्रतीक माना गया था.उस स्कूली शिक्षा से गुज़रकर हमें अपने ही लोगों से,अपनी ही भाषा से और अपनी ही संस्कृति से नफरत करना सीखना था.वर्ना हम अपमानित और दंडित हो जाते.मैं नहीं चाहता कि केन्या के बच्चे,अपने ही समुदाय और इतिहास द्वारा संपर्क केलिए बनाए गए उपकरणों से नफरत करते हुए बडे हों.मैं चाहता हूं कि वे इस उपनिवेशी अलगाव नीति से ऊपर उठें.<br />
<br />
९. पर अपनी भाषा में लिखने मात्र से अफ्रीकी संस्कृति का पुनर्जागरण नहीं होने वाला.इसके लिए उस साहित्य में हमारी जनता का,अपनी उत्पादक शक्तियों को विदेशी चंगुल से छुडाने केलिए किए गए साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का चित्रण भी होना ज़रूरी है.साहित्य यह बताने में सक्षम हो कि मज़दूरों और किसानों में एकता की आवश्यकता है,ये सब मिलकर उस संपत्ति पर अपना अधिकार जमा लें जिसे वे उत्पन्न कर रहे हैं.इसकेलिए उन्हें संघर्ष करना होगा और अंदर और बाहर इसपर जडें जमाए बैठे परभक्षियों से इसे मुक्त कराना होगा.<br />
<br />
---------------------------------------------------------<br />
<br />
अनुवाद : आर.शांता सुंदरी<br />
</div>santha sundari.rhttp://www.blogger.com/profile/08435993185719238671noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3573628780113893447.post-52211932015208498892011-06-15T08:18:00.001-07:002011-06-15T08:18:42.561-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
कोडवटिगंटि कुटुंबराव की तीन लघुकहानियां.(अनुवाद :आर.शांता सुंदरी)<br />
<br />
अहिंसा<br />
----<br />
<br />
राजा के भरे दरबार में अहिंसा के बारे में बहस छिड गई.दोनों पक्षों को लेकर दो विद्वानों के बीच वाद- विवाद होने लगा.बाकी सब चुपचाप इनकी दलीलें सुनने लगे.<br />
<br />
दोनों विद्वानों में से एक दुबला पतला था, पर वह अहिंसा के पक्ष में नहीं बल्कि हिंसा के पक्ष में बढचढकर बोल रहा था.अहिंसा का समर्थक शरीर से बलिष्ठ था पर उसकी दलीलें कमज़ोर पडने लगीं और वह हारने लगा.<br />
<br />
सभा में उपस्थित लोग धीरे धीरे दुबले पतले विद्वान की बातों से प्रभावित होकर उसका पक्ष लेने लगे.<br />
<br />
बलवान का चेहरा तमतमा उठा.वह गुस्सा रोक नहीं पाया.अगले ही पल दुबले पर झपट पडा.उसकी गर्दन को दोनों हाथों से पकडकर झकझोरने लगा.<br />
<br />
दुबले की आंखें उलटी हो गईं.अहिंसा की जीत हुई!<br />
<br />
रचना काल :१९६४<br />
<br />
----------------------------------------------------------------------<br />
<br />
अन्याय को नहीं सहेंगे<br />
--------------<br />
<br />
"चिन्नपल्लि में सोलह हरिजनों को ज़मींदार के गुंडों ने..."<br />
<br />
" ओह...बेचारे !"<br />
<br />
"पेद्दपर्रु में आठ हरिजन स्त्रियों के साथ तीन ज़मींदार..."<br />
<br />
"हे भगवान !"<br />
<br />
"मध्यकुंटा में हरिजनों की चार सौ झुग्गियों में आग लगा देने से पांच वृद्ध,बाईस बच्चे..."<br />
<br />
"यह कैसा अत्याचार है भाइया !"<br />
<br />
"-ज़मींदारों पर गंडासों से हमला करके दो ज़मींदारों को मार डाला और तीन को घायल करके..."<br />
<br />
"उन सबको फांसी पर चढा देंगे.कुछ भी बर्दाश्त कर सकते हैं पर अन्याय को..."<br />
<br />
रचना काल :१९७७<br />
<br />
----------------------------------------------------------------------------------------------------<br />
<br />
फारेन कोलाबरेषन<br />
------------<br />
<br />
मैण् हैरान होकर देखने लगा.पापाराव की छ्ःओटी सी दुकान कहां गई?देसी तण्बाकू के च्रुट बेचनेवाले पापाराव को क्या बडी मछली निगल गई?उसकी दुकान के स्थान पर एक शीशॆ केए खिडकियों वाली दुकान खडी थी!मैं मन ही मन दुनिया को कोसते हुए पापाराव के प्रति सहानुभूति दिखाने लगा.तभी एक आदमी दुकान से बाहर निकला.लंबे बाल,आधिनिक लिबास में फेषनबल दिखाई दे रहा था.उसने मुझे आवाज़ दी.<br />
<br />
अरे, यह तो पापाराव है!वंडरफुल !!छोटी मछली को बडी मछली ने निगला नहीं,बल्कि छोटी मछली खुद बडी हो गई! मैंने सोचा.<br />
<br />
पर यह बदलाव आया कैसे?पापाराव के पास बडी पूंजी तो नहीं थी.कमाई भी कुछ खास नहीं थी.<br />
<br />
पापाराव मुझे अंदर ले गया.मेरे हाथ में कोकाकोला की बोतल थमा दी.दुकान में कोकाकोला की बोतलें भरी पडी थीं.<br />
<br />
"यह क्या हो गया?कैसे संभव हुआ?क्या तुम इस दुकान में नौकरी करने लगे?मैंने पूछा.<br />
<br />
"अरे साहब, यह सब तो अमरीकन कॊलाबरेषन का कमाल है! एक अमरीकन जो खुद को पीसकोरवाला कहता था,मेरे पास आकर बोलाकि धंधा बढाओ,पैसे मैं लगाऊंगा!यह सब उसीकी मेहरबानी है.बिक्री दुगनी होने लगी है.पर सारा पैसा वह ले लेता है.ठीक तो है,दुकान उसकी है ना?मुझे थोडॆ पैसे रोज़ दे देता है जो मेरे लिए काफी होते हैं."<br />
<br />
मैंने पापाराव की तारीफ की और उसे बधाई दी.<br />
<br />
यह पिछले साल की बात थी.कुछ दिन पहले उस तरफ गया तो देखा कि वहां’इंडो अमरीकन कोकाकोला सेंटर"बन गया है.उस दुकान में पापाराव नहीं बल्कि कोई दूसर ही बैठा था.अमरीकन भारत छोडकर जाते समय दुकान किसी और के हाथ बेचकर चला गया.पापाराव का कोई अता पता अन्हीं मिला.क्या वह फिर से देसी तंबाखू की चुरुट बेचने लगेगा?नहीं!<br />
<br />
अब कभी दोबारा पापाराव मुझे दिखाई नहीं देगा !<br />
<br />
<br />
रचन काल : १९७७<br />
<br />
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<br />
मेरे पिता,श्री कुटुंबराव , चंदामामा तेलुगु मासिक के मुख्य संपादक थे.इस पद पर उन्होंने लगभग ३० साल काम किया था.सैकडों कहानियां,एक दर्ज़न से भी अधिक उपन्यास,कुछ नाटक और साहित्यिक,सामाजिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक विषयों पर आलेख लिखनेवाले कुटुंबराव जी ने अपने जीवनकाल में लगभग १४.१५ हज़ार पृष्ठों की रचना की थी.<br />
<br />
जन्म : १९०९<br />
मृत्यु : १९८०<br />
</div>santha sundari.rhttp://www.blogger.com/profile/08435993185719238671noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3573628780113893447.post-12972509281570135222011-06-03T08:10:00.001-07:002011-06-03T08:10:40.874-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
बया का घोंसला<br />
----------<br />
<br />
आसमान में बादल युद्ध-सैनिकों की तरह भाग रहे थे.कौव्वे कांव कांव कर रहे थे.माहौल गडबडाहट से भरा था.अभी दोपहर भी नहीं हुई पर अंधेरे घिरने लगे थे.नारायण को लगा कि बाहर का वातवरण उसकी मनःस्थिति को प्रतिबिंबित कर रहा है.बहुत देर से वह एक बडी चट्टान पर उकडूं बैठा हुआ था.एक हाथ में बल्लम था.उसका मन अपने खेत के इर्दगिर्द घूमने लगा.सारी ज़िंदगी यों गुज़र गई जैसे कोई उसका पीछा कर रहा हो और वह भागता जा रहा हो.अब इस उम्र में भागना नामुमकिन जो हो गया,तो उपद्रव उसे ले डूबने को आ गया.कुछ ही देर में अधिकारी ज़मीन पर कब्ज़ा करने आनेवाले हैं.कौन रोकेगा उन्हें?कौन पूछेगा?और अगर पूछ भी लिया तो सोचने की स्थिति कहां है? वरना नारायण की यह हालत न होती.<br />
<br />
कहीं बादल गरजा.अचानक शुरू हो गई बूंदाबांदी.गरज से डरकर बछडा रस्सी तोडकर भागा.उस आहट से छोटी सी चिडिया शोर मचाने लगी.नरायण ने मुडकर देखा.वह चिडिया बार बार बछडे के इर्दगिर्द घूमने लगी.अरे,यह तो बया है!कितने दिनों बाद देखने को मिली!नारायण की आंखों में चमक आ गई.जैसे अचानक कोई जिगरी दोस्त दिख गया हो!वह धीरे से खेत में उतरा और बछडे को पकडकर पहले की तरह बांध दिया और फिर वापस वहां पहुंच गया.<br />
<br />
वह धीरे से कदम रखते हुए मकई के खेत में उतरा.एक एक पौधे को ज़रा झुकाकर गौर से देखा.मकई के पत्तों के बीच भी देखा.उसका अंदाज़ा सही निकला.उन पत्तों को एक साथ जोडकर सीकर बनाया गया छोटा -सा घोंसला दिखाई दिया जिसमें दो अंडे थे.चिडिया नहीं थी.<br />
<br />
<br />
<br />
* * *<br />
नारायण को वह दिन याद आया जब पहली बार उसने बया को देखा था.खूब उग आए मकई के खेत याद आए.शाम को वह पाठशाला से लौट आते ही पिता के लिए गरम दलिया लेकर खेत में गया.पिता को दलिया देकर वह खेत में ही खेलने लगा.इतने में अचानक पास से कुछ उडकर गया.उस तरफ देखा तो मकई के पत्तों को जोडकर बनाय गया घोंसला दिखाई दिया.पास गया तो अंदर चोंच खोलकर बैठे दो नन्हे प्राणी दिखे.पहले तो उसे डर लगा ,फिर वह आश्चर्य में बदल गया.वे प्राणी बया के चूजे थे.भूख से छटपटा रहे थे.जो कुछ पल पहले उड गई वह इनकी मां थी.चिडिया वापस आ गई पर नारायण को घोंसले के पास खडा देखकर दूर पर ही चक्कर काटते हुए चिल्लाने लगी. नारायण वहां से हट गया और पिता के पास दौड गया.सबको बया और उसके बच्चों के बारे में बताया और खेत में जाकर उस घोंसले को और चूजों को देखना उसकी दिनचर्या ही बन गई!<br />
<br />
नारयण ने किसान मज़दूर से कहकर एक बांस की टोकरी बनवाई.वह पिंजरे की तरह थी.उसने सोचा चूजे जब ज़रा बडे हो जाएंगे तो उसमें रखकर उन्हें पालेगा.पर उसके पिता को जब यह मालूम हुआ तो उन्होंने मना कर दिया,"बेटे,वे चूजे इस टोकरी में आराम से नहीं रह पाएंगे.उन्हें अपने घोंसले में ही रहने दो!"<br />
<br />
"नहीं बाबूजी,मैं उन्हें पालूंगा...उनकी अच्छी देखभाल करूंगा...जो खाना चाहे वही खिलाऊंगा!"उसने ज़िद पकडी<br />
<br />
"बेटा वे खुद खाना ढूंढकर ही खाते हैं,तुम्हारे खिलाने से नहीं खाएंगे.खेतों में खुले आम उडना उन्हें पसंद है."<br />
पर उसे पिता की बातों पर यकीन नहीं आया.शायद किसी दूसरे के पास रहना चूजे पसंद न करते हों पर मेरे पास तो वे आराम से रह लेंगे! नारायण ने सोचा.<br />
<br />
धीरे धीरे चूजों के पर निकल आए.घोंसले के बाहर झांकने लगे.मौके का फायदा उठाकर एक दिन नारायण ने उन्हें पकड लिया और एहतियात से टोकरी में रख दिया.मादा चिडिया ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगी.घबराकर इधर उधर उडने लगी.टोकरी में से चूजे भी आर्तनाद करने लगे.पर उन्हें पालने के शौक की वजह से नारायण ने उनकी बेचैनी को नज़रंदाज़ कर दिया.वह टोकरी लेकर भागता हुआ घर आ गया.अपने दोस्तों को दिखा दिखाकर खुश होने लगा.<br />
<br />
चूजे चिल्ला चिल्लाकर थक गए.नारायण ने मकई के दाने,चावल,और गुड खिलाने की बहुत कोशिश की,पर चूजों ने उन्हें छुआ तक नहीं.नारायण ने सोचा एक दो दिन में ठीक हो जाएंगे.पर दो दिन बाद भी यही हाल रहा तो नारायण का सारा उत्साह खत्म हो गया.रोनी सी सूरत बनाकर मां को बताया.मां हंस पडी.बोली,"अगर तुझे कोई जबर्दस्ती उठाकर ले जाए और पकवान और मिठाइयां खिलाए तो तू खाएगा? मुझसे और बाबूजी से दूर रह पाएगा? रोएगा नहीं?ये भी ऐसे ही हैं बेटा!खेत में मां के पास रहकर ही खुशी मिलती है इन्हें.अपने घर में रहना ही पसंद करते हैं."<br />
<br />
बस!<br />
<br />
टोकरी लेकर वह खेत की ओर भागा.घोंसले के पास चूजों को छोड दिया.चूजे गिरते पडते खेत के अंदर चले गए.खुशी से उन्हें चहचहाते देख नारायण भी बेहद खुश हुआ.<br />
<br />
* * *<br />
<br />
सच है... जिसे जहां जीना हो वहीं जीने की सुविधा मिले.तभी आराम से जिया जा सकता है.अपना घर बार छोडकर किसी दूसरी जगह पर दोबारा बसना कितना मुश्किल है,यह नारायण भली बांति जानता है.जब वह बारह साल का था,उसने वह तकलीफ खुद झेली थी.<br />
<br />
१९६८ में विशाख ज़िले की तांडव नदी पर सरकार ने बांध बनाने का निर्णय लिया था.लोग यह सोचकर खुश हुए कि उस परियोजना में मकई, जौ वगैरह की जगह चावल के खेत लगाए जा सकते हैं.चावल को आंखों से देख भर लेने को वहां के लोग तरस जाते थे.कभी त्योहार के दिन थोडा सा पका लेते थे.नारायण और उसके दोस्त समझते थे कि चावलों का तो स्वाद इतना बढिया है कि खाली चावल ही खाया जा सकता है,सब्ज़ी की भी ज़रूरत नहीं.ऐसी जगह खेतों के लिए पानी मिल जाएगा,यह सोचकर लोग फूले नहीं समा रहे थे.<br />
<br />
पर वह खुशी ज़्यादा दिन नहीं रही.एक दिन अधिकारी आए और बता गए कि रिज़र्वायर में नारायण का गांव और खेत पूरे के पूरे डूब जाएंगे.गांव के लोगों पर मानों गाज गिरी.सरकारी अधिकारियों ने कहा कि संक्रांति के त्योहार से पहले गांव खाली करके चले जाएं.सारी खुशी मिट्टी में मिल गई.आबाद गांव मरघट बन गया.सब के दिलों में घबराहट,चिंता और दुःख की लहरें उठने लगीं.अपना गांव अपने खेत छोडकर कहां जाएं?पत्ते पत्ते से जो लगाव जुड गया है उसे कैसे तोडें? दिल दुःख के भार से भर गए.<br />
<br />
रोज़गार,मुआवज़ा,पुनर्वास देना जैसी बातों पर ज़्यादा बहस नहीं हुई.अगर मिल जाए तो ठीक है,नहीं तो नहीं.किसानों की तरफ से इनकी मांग करने वाला कोई नहीं था.गांव के लोग यही समझते थे कि ज़मीन तो सरकार की है,जब चाहे वह उसे ले सकती हैं.<br />
<br />
उस रात चांदनी छिटकी हुई थी.सुबह से जो सामन बांधा था उसे बैलगाडी पर चढाया.नारायण और उसकी मां गाडी में बैठ गए.गाडी के पीछे तीन गाय , दो भैंस और दो बछडे.उनके पीछे दूसरी गाडी में मामाजी का परिवार था.जब गांव के सिवानों को गाडी पार करने लगी तो किसी के दिल दहला देनेवाला रुदन सुनाई दिया.मां भी सारा रास्ता रोती बैठी रही. सब अपने अपने रिश्ते नातों के गांवों की तरफ निकल पडे.पता नहीं पिता के दिल पर क्या बीत रही थी.वे गाडियों के आगे पैदल चल रहे थे.बस,नारायण की आंखों में सिर्फ बया और उसके चूजे छाये थे.आदमी तो कहीं भी जाकर बस सकते हैं,पर बया कहां जाएगी?उसे लगा,साथ लाता तो अच्छा था.उसीके बारे में सोचते सोचते सो गया.सुबह सुबह मां के रिश्तेदारों के गांव पहुंच गए.<br />
<br />
* * *<br />
<br />
उस गांव में फिर से बसने के लिए बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पडा.मां के सारे गहने बेचने पडे.दुधारी भैंस बेच डाले.उन पैसों में पास में बचाकर रखी थोडी बहुत रकम जोडकर पिता ने चार एकड ज़मीन खरीदी.वहां पहले कभी खेती नहीं की गई थी.ज़मीन पथरीला था.छः महीने परिवार के सब लोग मेहनत करते रहे.झाड झंखाड काटना,पत्थर तोडना,सूखे ठूंठ उखाडना, गड्ढे भरना,और मेंड बनाना...नींद और आराम जैसे भूल ही गए थे.बरसात के मौसम से पहले ज़मीन खेती के लायक बना दी गई.पिता ने साथ लाए मकई के बीज डाल दिए.कुछ ही दिनों में हरे हरे पत्ते उग आए.फसल खूब बढने लगी और साथ ही परिवार की खुशी भी.उस साल उनकी मेहनत रंग लाई.पथरीली ज़मीन अब उर्वरा बन गई.धान,ईख,तम्बाकू,साग सब्ज़ियां...हर वह फसल उगाई जिससे फायदा मिलता.दस साल बाद और दो एकड खरीदे.<br />
<br />
नारायण की शादी हो गई.दो बेटे हुए.कुछ ही समय बाद मां और बाप एक के बाद एक चल बसे.<br />
<br />
इस बीच नारायण को कई बार बया और उसके बच्चे याद आए.पर नई जगह पर वह चिडिया दिखी नहीं.जिस तरह अपना बडा सा खेत रिज़र्वायर में डूब गया,चिडिया को आश्रय देनेवाले खेत भी खतम होते जा रहे हैं!धान के खेत में घोंसला बनाना असंभव है.पहले कीटनाशक दवाइयां और खाद इस्तेमाल नहीं किए जाते थे.अब उनके बिना फसल उगाई ही नहीं जाती.वाणिज्य फसल ,अधिक उत्पादन के नाम पर कृषि के खर्च बढ गए.प्रकृति के विरुद्ध खेती करने के नए तरीके आ गए.तभी से किसानों और चिडियों केलिए बुरा समय शुरू हो गया.पहले कभी फसल नहीं होती तो जो है उसीसे पेट पालते थे.अब फसल होने के बावजूद हमेशा कर्ज़ में फंसे रहते हैं.यह सब देखने से समझ में नहीं आ रहा था कि विकास कहां हो रहा है!नारायण के मन में ये विचार हलचल मचाने लगे.<br />
<br />
* * *<br />
<br />
बहुत दिनों बाद एक ऐसा दृश्य दिखाई दिया कि मन बाग बाग हो गया!नारायण एक दिन खेत की मेंड पर चल रहा था.मेंड पर कंटीले झाड उग आए थे.उनमें से किसी पक्षी के अचानक फुर्र से उडने की आवाज़ सुनाई दी.उसने सोचा हो न हो वह बया ही होगा.पास जाकर गौर से देखा तो आक के पौधे में पत्तों के बीच छोटा सा घोंसला नज़र आया.उसमें नन्हे से अंडे थे.नारायण का मन खुशी से उछल पडा.रोज़ उन अंडों को देखना दिनचर्या बन गई.पूरे खेत में वह झाड ही उसकी पसंदीदा जगह बन गई.<br />
<br />
एक दिन किसान मज़दूर मेंड पर उग आए झाड काटने लगा,तो नारायण ने मना कर दिया,"उसमें चिडिया का घोंसला है.उसे उखाड दोगे तो चिडिया कहां जाएगी?"<br />
<br />
यह सुनकर बगल के खेत में खडा किसान ज़ोर से हंसा,"अरे,चिडिया के पीछे अपना सोना उगाने वाले खेत को खराब करना कहां की अकलमंदी है,भाई?"<br />
<br />
नारायण ने बात को अनसुनी कर दी.<br />
<br />
* * *<br />
<br />
जब नारायण छोटा बच्चा था तब खेत को सिर्फ खुद की संपत्ति नहीं समझा जाता था.मकई के खेतों में बया पक्षी जगह जगह घोंसले बना लेते थे.जब फसल बढकर कटने योग्य हो जाती,तबतक चूजे भी पैदा हो जाते थे.<br />
जहां जहां घोंसले होते वहां की फसल को काटे बिना छोड देते थे.चूजे बडे होकर उड जाते तभी उस हिस्से को काटते थे.उसे बया की फसल भी कहा जाता था.एक दूसरे से कहते कि देखो तो पंछी हमारे लिए कितनी फसल छोड गए!?<br />
<br />
हम भी जिएं ,औरों को भी जीने दें,इसीमें असली खुशी मिलती है.जीवन का यह सूत्र सबकी समझ में क्यों नहीं आती?<br />
<br />
* * *<br />
<br />
पैंतीस साल गुज़र गए... नारायण के सामने फिर से खतरनाक समस्या आ खडी हुई.पोलवरम प्राजेक्ट के रूप में खलबली मच गई.जिस खेत को उपजाऊ बनाने केलिए नारायण के परिवार ने खून पसीना एक कर दिया था,उसी में से होते हुए पोलवरम की नहर का अलैनमेंट होना था.फिर एक बार किसानों पर वज्रपात हुआ.सब किसान मिलकर अधिकारियों के पास गए और बिनती करने लगे.सरकार ने दो टूक जवाब दे दिया कि मुआवज़ा ले लो और खेत छोड दो!कई दिनों तक नारायण छटपटाता रहा...न खाने की सुध थी न सोने की.लहलहाता खेत हाथों से निकला जा रहा था...उसे ऐसा लगा कि नवजात शिशु को कसाई उठा ले जा रहा है.वह फफक फफककर रोया.अधिकारियों ने डरा धमकाकर मुआवज़ा लेने केलिए उसे राज़ी किया.<br />
<br />
पैसा लेकर साथी किसानों की सलाह मानकर वह तटवर्ती प्रांत में बसने चला गया.वहां उसने तीन एकड ज़मीन खरीदी.छः एकड की जगह तीन एकड रह गए,पर इस बात का दुःख नहीं था.मां-बाप ने पसीना बहाकर जो खेत कमाया उसके इस तरह चले जाने से वह बहुत ही दुःखी हो गया.<br />
<br />
फिर उसने खूब मन लगाकर काम किया और जीवन की गाडी पटरियों पर आ गई.एक दो साल में बच्चों की पढाई खतम हो जाएगी और कुछ काम धंधा ढूंढ लेंगे.तब जाकर मेरी ज़िम्मेदारी पूरी हो जाएगी,उसने सोचा.<br />
<br />
पर मुश्किल से दो साल बीते होंगे कि फिर से उसका जीवन आफत की चपेट में आ गया!<br />
<br />
तटवर्ती प्रांत में विशेष आर्थिक मंडल(सेज़) बनाए जाएंगे,इस बात की सरकार ने घोषणा कर दी.इसके लिए चार हज़ार एकड ज़मीन इकट्ठा करने का काम ज़ोर शोर से शुरू हो गया.नारायण निढाल हो गया.लगा वह धरती में धंसता जा रहा है.आंसू भी सूख गए,पर मन की पीडा अंदर ही अंदर उसे जलाने लगी.<br />
<br />
किसीने भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि किसानों की क्या राय है.उनकी आपत्तियों पर भी किसीने ध्यान नहीं दिया.चर्चाएं हुईं,पर किसानों की राय जानने के लिए नहीं, सौदेबाज़ी के लिए.गांव में ढिंढोरा पीटा गया कि इस साल किसान खेती का काम छोड दें क्योंकि उनकी ज़मीनों के चारों तरफ लोहे की बाड लगाई जाएगी.कोई भी किसान अपना खेत बेचना नहीं चाहता था.उसके बिना कैसे जियें?एक बार ज़मीन हाथ से निकल गई तो फिर खरीद पाना क्या संभव है?<br />
<br />
नारायण का मन भी उदास था.तरह तरह के खयाल आने लगे.हौसले पस्त हो गए.ज़िंदगी पर से विश्वास उठ गया.श्रम करने की उमर नहीं रही.एक के बाद एक चोट,कहां तक सह सकता था?किसान केलिए बुरे दिन आ गए.खतम हो गया...सबकुछ खतम हो गया!अब गृहस्ती चलाना उसके बस की बात नहीं थी.कहीं भी जाए हालत तो वही है.किसीको खेती से मतलब नहीं...खासकर गरीब किसान तो संकटग्रस्त प्राणी की सूची में गिना जाने लगा...बया और चिडियों की तरह!चिडियों के बारे में तो लिखा जा रहा है...उनकी गिनती की जा रही है,पर किसान के बारे में तो वह भी नहीं!ज़र सी भी सहानुभूति नहीं.इसीलिए तो बार बार उसे अपनी ज़मीन से बेदखल किया जा रहा है.<br />
<br />
नारायण पूरी तरह निराश हो गया.हर तरफ अंधेरा नज़र आने लगा.आत्मविश्वास तो जैसे खतम ही हो गया.<br />
<br />
* * *<br />
<br />
वह धीरे से उठा और खेत का चक्कर काटने लगा.फसल एक महीने के अंदर कटाई के लायक हो जाएगी.पर क्या वह तब तक साबुत रहेगी? नारयण की आंखें डबडबा आईं.पर क्या आंसू ज़मीन के भूखों की प्यास बुझा सकेंगे?उन्हें रोक सकेंगे?जय किसान का नारा लगानेवाला देश जब उसे रुलाने पर उतर आए,मिटाने की तरकीबें सोचने लगे,तो क्या वह देश फल फूल सकेगा?<br />
<br />
आ गई राक्षस जैसी पोक्लैनर मशीनें.खेतों में घुसने लगीं.अधिकारी गाडियों में आ गए.<br />
<br />
अचानक माहौल बदल गया.शोर...हलचल..भाग दौड...कहीं कोई चिल्ला रहा था तो कोई रो रहा था.पेडों पर पक्षी भी शोर मचाने लगे.चारों तरफ हल्ला मच गया.जैसे बाढ आ गई हो...दावानल घेर रहा हो!किसान इधर उधर भागने लगे...<br />
<br />
एक पोक्लैनर नारायण के खेत में घुस गया.अधिकारी सीमाएं नापने में लगे थे.मकई के खेत में सीमा का निशान लगाने के लिए पोक्लैनर की नोक धंस गई.तभी वह नन्ही सी चिडिया शोर मचाती ऊपर उडी.नारायण ने मुडकर उसकी ओर देखा.वह मादा बया थी.बस,जैसे उसके सिर पर भूत सवार हो गया.वह फौरन उस ओर चल पडा.पोक्लैनर की नोक धंसने से मकई के कुछ पौधे एक ओर झुक गए.उनमें बना घोंसला नीचे गिर गया.चिडिया मारे घबराहट के ज़ोर ज़ोर से चिल्ला रही थी.वह पोक्लैनर के चालक के सिर पर मंडराने लगी...उसे अपने पंजों से घायल करने की कोशिश करने लगी.वह पल...वह एक पल,न जाने नारायण के मन में कैसा जादू कर गया,कि उसमें नई शक्ति...एक अजीब हौसला जाग उठा.चिडिया की तडप और वेदना ने उसमें गुस्सा जगा दिया.उसने आव देखा न ताव,अपना बल्लम उठाया और हवा में घुमाकर,चालक की तरफ फेंका.फेंकते वक्त घायल शेर की तरह दहाडा.<br />
<br />
चालक उस वार से बचने केलिए मशीन छोडकर भाग खडा हुआ.अधिकारी चकित होकर देखते रह गए.इतने में बाकी किसान भी वहां आ पहुंचे.उन्होंने कभी नारायण का यह उग्र रूप नहीं देखा था.गुस्से से हांफते हुए नारायण ने झुके पौधों को फिर से खडा किया और नीचे पडे घोंसले को पत्तों के बीच बैठाया.<br />
<br />
"हम चुपचाप देखते बैठे रहेंगे तो वे हमें जीने नहीं देंगे.पीठ दिखाकर भागने लगेंगे तो और दूर भगाएंगे.डटकर सामना करने से ही कोई न कोई नतीजा सामने आएगा,"नारायण ने बल्लम हाथ में लेते हुए कहा.उसकी यह बात दूसरों को एक ललकार सी सुनाई दी.*<br />
<br />
------------------------------------------------------------------------------------------------<br />
मूल तेलुगु कहानी : सत्याजी<br />
<br />
अनुवाद : आर.शांता सुंदरी.<br />
<div><br />
</div></div>santha sundari.rhttp://www.blogger.com/profile/08435993185719238671noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3573628780113893447.post-39695769366205095462011-05-27T19:22:00.001-07:002011-05-27T19:22:16.738-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
आइ सी सी यू<br />
===========<br />
<br />
मेरी आंखें चौबीसों घंटे काम करती रहती हैं.मेरा दिल हरदम धडकता रहता है.मेरे हाथ अविराम चलते रहते हैं.<br />
<br />
दीवार पर है मेरा निवास.मेरा नाम है घडी.<br />
<br />
यहां इस दीवर पर बसे कुछ ही दिन हुए.जाने से पहले मेरे मालिक ने मुझे और मेरे भाइयों को धन्यवाद प्रकट करने केलिए इस अस्पताल को दे दिया.यहां के डाक्टरों ने दिल निचोड देने वाली बीमारी से बचाया,इस कारण या इस भ्रम में!उससे पहले हम सब एक ही जगह " टिक टिक","डिंग डांग","ठीक ठाक"रटते हुए जीते रहे.<br />
<br />
जब से यहां आए,कुतूहल,उत्साह,उद्रेक,उद्वेग,में ही पल पल बीत रहा है... चल रहा है.<br />
<br />
ठीक सामने बीच में मानिटर.मेरे सामने तीन बेड.मेरे बिल्कुल नीचे,मेरी आंखों से ओझल ,सिर्फ सुनाई देनेवाला एक बेड.मेरे दांईं ओर एक छोटा कमरे जैसा...पर कमरा नहीं.इसी जगह से वह भी जुडा है.वहां एक और बेड.<br />
<br />
यह दिल की बीमारों का विभाग है.यहां जितने भी बीमार हैं उन्हें दिल की छोटी से छोटी शिकायत से लेकर बडी से बडी गंभीर बीमारी तक है.<br />
<br />
मानिटर के सामने ज़रा आराम से बैठने लायक एक कुर्सी पर एक युवा डाक्टर,और उसके ठीक सामने मानिटर के उस तरफ,एक गोरी चिट्टी पंजाबी नर्स बैठे हैं.वह लडकी कुछ लिखती जा रही है.वह युवक भी कुछ लिख रहा है.<br />
<br />
हां,यह दिन का वक्त है.रोमांस केलिए गलत वक्त!<br />
<br />
तीनों बिस्तरों पर तीन बीमार हैं.तीनों को तारों से मानिटर से जोडकर रखा गया है.दिल के धडकने के विवरण इन मानिटरों से होकर सेंट्रल मानिटर में पहुंचते हैं.हरे रंग की लहरों जैसी लकीरें,हडबडी में भागते लोगों की भीड की तरह भाग रही थीं मानिटर पर.दिल के अंदर होनेवाली विद्युत कार्यों के नतीजों को दिखानेवाली हैं ये लकीरें.बीच बीच में होनेवाले छोटे छोटे परिवर्तन उस वक्त हो रहे खतरों या आनेवाले खतरों के सूचक हैं.वैसे देखने में सभी लकीरें एक जैसी दिखती हैं,पर उनमें कई भिन्नताएं हैं.हर बार नई बीमारी का नाम सुनता हूं.लेकिन ज़्यादातर सुनाई देनेवाले नामों में से एक है,एक्टोपिक्स.<br />
<br />
ये लोग ऐसा बर्ताव करते हैं जैसे एक्टोपिक्स होने से कुछ नहीं होता.कभी कभी इसका होना खतरा भी माना जा रहा है.यानी कभी यह खतरा पैदा कर सकता है तो कभी नहीं भी पैदा कर सकता है.पता नहीं, यह सब मेरी समझ में नहीं आ रहा है.मैं बहुत उलझ गया हूं!<br />
<br />
पहली बार जब मैंने इस एक्टोपिक्स के बारे में सुना,तो उस डाक्टर के चेहरे पर परेशानी, पसीने की बूंदें,आवाज़ में कंपन...सुनाई दी.मेरा दिल भी धक धक करने लगा.मैं कोई इन्सान नहीं, बेजान घडी हूं!जब मेरा ही कलेजा मुंह को आने लगा हो तो फिर इन्सान...खासकर औरतें... कैसे बर्दाश्त करती होंगी?पहली बार सुनने पर जो डर पैदा होता है,वह बार बार तसल्ली दिए जाने के बावजूद कम से कम शक बनकर मन में रह जाता है!<br />
<br />
अच्छा अब मेरे इन लेक्चरों को बंद करके आइए उनकी बातें सुनें-<br />
<br />
पंजाबी नर्स ने युवा डाक्टर के कंधे पर मारा.वह निरीह बनने का नाटक करके बोला,"तेरे लिए यह अच्छा नहीं होगा!"<br />
<br />
"मतलब?"<br />
<br />
"सोच लो!"<br />
<br />
"मैं किसीकी परवाह नहीं करती,"लडकी ने कहा.उसकी बेपरवाही उसके खडे होने के अंदाज़ से ही पता चल रही थी,उसकी आंखों में दिखाई दे रही थी.उस निडरता का कारण अनुभव की कमी है, यह बात वह नहीं जानती थी.<br />
<br />
पर आए दिन मैं देख रहा हूं कि निडर इन्सान कोई भी नहीं होता...अरे,फिर मैं बीच में बोलने लग गया!<br />
<br />
इनकी बातचीत और बर्ताव न जाने कहां पहुंच जाता,पर इतने में अचानक दरवाज़ा खोलकर एक कन्सल्टेंट, यानी सीनियर डाक्टर अंदर आ गया.<br />
<br />
युवक खडा हो गया,लडकी भी संभल गई.इन कन्सल्टेन्टों को देखने से आंधी याद आती है.ये ज़मीन पर खडे नहीं होते,दीवार से पीठ नहीं सटाते,दिन रात भागंभाग लगी रहती है.कम से कम बीमारों को दो मिनट जांचने की भी इनके पास फुरसत नहीं होती.श्रम के सिवा विश्राम को जैसे जानते ही नहीं.चौबीसों घंटे रोगी,प्रेक्टिस, के हिसाब किताब में सर खपाते रहते हैं.<br />
<br />
उसने पूछा,"बीमारों का क्या हाल है?"<br />
<br />
युवक ने तोते की तरह रट दिया.नर्स ने जो भी कहना था कह डाला."गुड लक!"कहकर कन्सल्टेंट चला गया.<br />
समझ में नहीं आया वह गुड लक किसके लिए था और क्यों था!<br />
<br />
पहले रोगी का नाम था मनमोहन कृष्ण.उम्र बत्तीस.एक दिन रात को दिल में ज़ोर से दर्द उठा.कहता है सिगरेट नहीं पीता.कभी कभार,पंद्रह दिन में एक बार पी ज़रूर लेता है.अच्छी नौकरी,सुंदर पत्नी,ज़रूरतों को पूरा करनॆ केलिए पर्याप्त सम्पत्ति इसके पास है.<br />
<br />
वह अपनी पत्नी को दिन में कई कई बार कमरे में बुलाता है.बेचारी वह क्या कर सकती है?आने केलिए युवा डाक्टर की अनुमति चाहिए.और यह कह देता है कि बार बार अंदर नहीं जाने दिया जा सकता,सिर्फ शाम कॆ वक्त आ जाइए.कभी समझाता है तो कभी डांट देता है,और कभी बिनती करने लगता है.<br />
<br />
उस दिन छाती का दर्द बहुत बढ गया.ई सी जी निकाला गया.कहा,’एक्स्टेन्सिव एंटीरियल इन्फार्क्शन"दिल के आगे की दीवार पूरी तरह गायब है.उसकी बीवी से कहा कि हम इसे बता नहीं पाएंगे इसलिए तुम रो भी नही सकोगी!<br />
<br />
"डाक्टर! मेरी बीवी को मेरे पास ही रहने दीजिए!"कहते हुए मनमोहन छाती पर हाथ रख लेता था.सचमुच दर्द है या नहीं यह भी मेरी समझ में नही आ रहा था.<br />
<br />
दूसरे मरीज़ का नाम मैं नहीं जानता.मतलब, याद नहीं रहा.उसकी कश्मीरी गेट के पास एक कपडे की दुकान है.यह भी युवावस्था में है.चालीस पैंतालीस का होगा.ई सी जी के बाद बताया गया कि’एक्स्टेन्सिव एन्टीरियल इन्फार्क्शन’है.<br />
<br />
यह भी सिगरेट तक नहीं पीता.डयबेटिस या,बी पी की शिकायत नहीं.पिछली कुछ पीढियों में भी किसी में यह बीमारियां के लक्षण नहीं दिखाई दिए.<br />
<br />
मनुष्य बहुत सारे दरवाज़े खोल चुका है.पर उसकी जानकारी सीमित है.जब उसे पता ही नहीं कि कुल कितने दरवाज़े हैं,तो क्या कर सकता है?<br />
<br />
तीसरा मरीज़ बूढा है.सांस की बीमारी का इलाज कराने आया है.पर यह तो बताया ही नहीं कि छाती में दर्द है.ई सी जी निकालकर देखा तो’इन्फीरियल इन्फर्क्शन’है,यह मालूम हुआ.आम तौर पर लगाई जानेवाली सुई को वहां न पाकर,बाकी कमरों से अलग तरह का यह विभाग,नीले रंग की दीवारे,यह सब देखकर बूढा बहुत खुश हुआ.बुलाते ही डाक्टर और नर्स हाज़िर हो जाते हैं,यह देखकर उसे संतोष मिला.<br />
<br />
जब युवा डाक्टर ने यह कहा कि दोस्तों और रिश्तेदारों को अंदर नहीं आने दिया जाएगा, तो बूढे ने इंतज़ामात की तारीफ की.<br />
<br />
चौथे बेड पर एंजीना का एक मरीज़ है.थक जाने पर,या ऊंची आवाज़ में बोलने पर इसके सीने में दर्द उठता है.ये सिगरेट बहुत पीता है.रातभर जागना इसकी रोज़ की आदत है.शराब पीने में वक्त या हालत के नियम का पालन नहीं करता.यह बी पी का भी मरीज़ है.पर नमक से परहेज़ नहीं कर सकता.इस वजह से इसे छाती में दर्द की शिकायत रहती है.इस बार ई सी जी के नतीजों में कुछ खराबी नज़र आई तो अब्ज़र्वेशन के लिए अस्पताल में ही उसे रोक लिया गया.<br />
<br />
पांचवें नंबर बेड पर फिलहाल कोई नहीं है.पहले एक लडकी थी.उसका दिल कभी महम्मद रफी के गीत की तरह,’आहिस्ता...आहिस्ता...’धडकता तो कभी ’चाहे कोई मुझे जंगली कहे...’ गीत की तरह भागने लगता.उस बीमारी को’सिक साइनस सिंड्रोम’नाम देकर उसे कुछ दिन अस्पताल में रखा.कई तरह के परीक्षण करने के बावजूद कुछ समझ में नहीं आया तो,’वाइरल मयोकार्डाइटिस’,कहकर कल ही उसे घर भेज दिया.<br />
<br />
आइ सी सी यू में भर्ती किये गये हर मरीज़ के बारे में पांच खास बातें पहचानकर,लिखने को कहती है छोटी लेडी कन्सल्टेन्ट.उन बातों में से एक है,’पीता है कि नहीं.’अमेरीकी किताबों के सिवा अपने देश की किताबें छूकर भी न देखनेवाला युवा डाक्टर कहता है कि इस लेडी डाक्टर को कुछ भी नहीं मालूम."मतलब, हो सकता है मुझसे दो बातें ज़्यादा जानती हो.पर उसका छः साल का अनुभव है,उस हिसाब से तो वह कम ही जानती है.अब इस पीने की बात को ही लें,यहां साफ लिखा है कि आल्कहाल और मयोकार्डियल इन्फार्क्शन में कोई संबंध नहीं है,"पंजाबी नर्स के कंधे पर एक चपत लगाकर युवा डाक्टर ने कहा.फिर उसने मेज़ पर रखी,कार्डियो वास्क्युलर डयाग्नोसिस अंड थेरपी,नामक किताब खोली.<br />
<br />
"देखो छोटी है,पर कितनी प्यारी है यह...तुम्हारी तरह!"<br />
<br />
"क्या? क्या कहा?"<br />
<br />
"तुम्हारी तरह प्यारी है!पर एक फर्क है,इस किताब को जब चाहे चूम सकता हूं.तुम्हारे साथ ऐसा नहीं कर सकता!"<br />
<br />
नर्स खिलखिलाकर हंस पडी.उसके गाल लाल हो गए.उसकी आंखों में शर्म और उस युवक के प्रति प्यार का भाव चमक उठे.उसने धीरे से कहा,"क्यों?"<br />
<br />
"हाय...ऐसे तो ना देखो...!"वह गुनगुनाया.<br />
<br />
"क्या कह रहे हो?"<br />
<br />
"कुछ नहीं.सोच रहा हूं काश यहां ये मरीज़ न होते और सिर्फ तुम और हम होते..."<br />
<br />
"डाक्टर!"बेड नंबर वन का मरीज़,मनमोहन कृष्ण ने आवाज़ दी.<br />
<br />
"येस!"युवक ने जवाब दिया.<br />
<br />
"आर यू बिज़ी?"<br />
<br />
आदत के मुताबिक युवक के मुंह से निकला,"नो!"<br />
<br />
"यहां आकर बैठिए ना?"उसने कहा.<br />
<br />
"कोई बात नहीं वहीं से कहिए. मैं सुन रहा हूं,"कहकर युवक ने नर्स की ओर देखा.उसकी आंखें कह रही थीं,’इसकी कहानी आज खतम नहीं होगी और हमारी शुरू नहीं होगी.’नर्स ने लंबी सांस छोडी और साथ के कमरे में चली गई.<br />
<br />
मनमोहन ने कहना शुरू किया...<br />
<br />
"मैं जब कालेज में पढता था..."<br />
<br />
युवा डाक्टर गुस्सा पीते हुए बीच में बोल पडा,"क्या कोर्स किया आपने?"<br />
<br />
"बी.काम."<br />
<br />
उसने आगे कहा कि कालेज में वह लडकियों को बहुत छेडता था."मेरी कई लडकियों के साथ दोस्ती थी.वैसे साफ साफ कहूं तो औरत की पवित्रता पर मुझे विश्वास नहीं था.जिन्हें मौका नहीं मिलता वे ही पवित्र बनी रहती हैं,ऐसा मेरा मानना है.पर मैं यह ज़रूर चाहता था कि मेरी पत्नी पवित्र लडकी हो.मैं जब स्कूटर पर उसके साथ जाता हूं तो कोई उसकी ओर बिना पलक झपकाए देखता है तो मेरा खून खौल उठता है!सुन रहे हैं ना डाक्टर? यही है मेरा स्वभाव..."वह कहता जा रहा था,इतने में कमरे के अंदर उसकी पत्नी आई.हरे रंग के कपडों में उसका गुलाबी बदन फूल जैसा खिला था.उसपर टिकी नज़रों और मनमोहन की बातों में उलझे युवक को होश में आने में कुछ समय लगा.<br />
<br />
वह जाकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया.मेज़ पर पडी लाल रंग की किताब उठाई.उसमें दिल के मरीज़ों केलिए दी गई सलाहों का अनुच्छेद खोलकर पढने लगा.पहले पढी गई बातों में भी नयी दृष्टि ,नया कोण दिखाई देने लगा,यह देखकर वह आश्चर्य से भर गया.छोटी उम्र में जो लोग इन्फार्क्शन के शिकार हो जाते हैं,उनके लिए उसमें कुछ सालाहें दी गई थीं.वे बातें सेक्स और शृंगार से संबंधित थीं.लिखा था कि सेक्स से पूरी तरह परहेज़ ठीक नहीं होता.ऐसा करने से मन में चिंता बढती जायेगी और दिमाग पर उसका बुरा असर पड जाएगा.<br />
<br />
तो फिर कमज़ोर दिल के मरीज़ उद्रेक से भरे काम करेंगे तो यह कहां तक ठीक होगा?इससे संबंधित बातें पढते हुए आराम से बैठकर सोचने लगा वह युवा डाक्टर.<br />
<br />
"डाक्टर!"फिर मनमोहन ने बुलाया.<br />
<br />
युवक उठकर उसके पास गया. इस बार उसके मन में मनमोहन की बातें सुनने की उत्सुकता थी.मनमोहन ने भी अपने मन की बातें,अपनी सारी शंकाएं साफ साफ युवक के सामने रख दीं.उसने कहा :<br />
<br />
"मैं नहीं चाहता कि मेरी पत्नी मेरी इस नाज़ुक हालत की वजह से अपनी कमज़ोरियों का शिकार हो जाए.यह मैं बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगा.यही बात पल पल मुझे खाए जा रही है.इसीलिए मैं चाहता हूं कि मेरी पत्नी हमेशा मेरी आंखों के सामने रहे."<br />
<br />
युवा डाक्टर औरतों के प्रति अपनी राय के बारे में नहीं सोच रहा था.वह दिखावा करने लगा.भारतीय स्त्रियां,उनकी पवित्रता,इंडियन ट्रेडिषन,उसका प्रभाव...(मनमोहन की पत्नी के प्रति अपने असली भाव...उसके स्लीवलेस ब्लाउज,लोनेक की तरफ खुद ब खुद दौडने वाली अपनी नज़रें...इन सब बातों को चुपाकर,) उसके प्रति गौरव भाव प्रकट करने लगा.उसने कहा,"चाहे कितने भी कदम आगे बढा दे,भारतीय महिला तो भारतीय महिला ही रहेगी."यह कहने के बाद उसके मन में भरतीय महिलाओं के मन का संकोचशील और डरपोक स्वभाव के प्रति सचमुच ममता उभरी.<br />
<br />
उसके बाद उसने आसानी से समझ में आने वाली भाषा में यह बताया कि,मनमोहन सेक्स में बिल्कुल कमज़ोर नहीं है. यकीन न हो तो लाल किताब एक बार पढने को कहा.एक दो वाक्य पढकर भी सुनाये.<br />
<br />
* * * *<br />
<br />
एक दो दिन बाद मनमोहन को वार्ड में शिफ्ट किया गया.युवा डाक्टर सबको बताता फिरता था कि कभी कभी उसकी पत्नी लिफ्ट के पास दिखाई दे गई,या केंटीन में बैठी मिली.फिर उसने उन लोगों का ज़िक्र करना ही छोड दिया.शायद वे अपने घर चले गए.<br />
<br />
* * * *<br />
<br />
दूसरे मरीज़ को एक्स्टेन्सिव एंटीरियर इन्फार्क्शन था,जिसका कारण साफ समझ में नहीं आ रहा था.इसकी वजह से मैं जान पाया कि एक्टोपिक्स कितनी भयानक चीज़ होती है. कई तरह के एक्टोपिक्स जल्दी जल्दी इसके बदन में आकर बस गए.दो दिन ड्रिप लगाया गया.दवाइयां दी गईं.यह सब करने के बावजूद वह ठीक नहीं हुआ तो डाक्टर सिर पकडकर बैठ गए.इसके घर वालों ने इसे हर तरह के छोटे बडे डाक्टर को...नामी और अनामी वैद्यों को दिखाया.उनका क्या है,आए,देखा और अपनी फीस लेकर खुशी खुशी चले गए.एक ने कोई दवाई लिखकर दी और दूसरे ने उसे लेने से मना कर दिया.अंत में मरीज़ को वे ही दवाइयां दी गईं,जो युवा डाक्टर और नर्स के पास थीं.<br />
<br />
एक स्पेशलिस्ट डाक्टर ने कहा,"पेसिंग केलिए यह आइडियल केस है!"<br />
<br />
दूसरे ने कहा,"पेसिंग बेकार है."<br />
<br />
एक दिन सुबह एक्टोपिक्स ने पूरी तरह फैलकर भयानक रूप ले लिया.इसी को वी.एफ. कहते हैं."वी एफ ...वी एफ..."चिल्लाकर,डीफिब्रिलेटर से मरीज़ को बिजली का झटका दिया युवा डाक्टर ने.बंद दिल की धडकन फिर से काम कर सकती है, यह मैंने पहली बार देखा.<br />
<br />
धीरे धीरे मरीज़ ठीक होने लगा.दिन बीतते गए.<br />
<br />
* * * *<br />
<br />
सुना है इलस्ट्रेटेड वीकली वालों ने दिल की बीमारियों और खून की नलियों से संबंधित आपरेशनों के बारे में एक विशेषांक प्रकाशित किया.उसके निकलने के हफ्ते दस दिन बाद दिल्ली और बंबई में दिल के मरीज़ बडी संख्या में डाक्टरों के पास जाने लग गए.इसी के बारे में गेट के पास खडे दो कन्सल्टेंट बात कर रहे थे.बात करके वे दोनों बाहर चले गए.युवा डाक्टर और पंजाबी नर्स मेज़ के पास बैठकर खानों में +,०,भरने वाला खेल खेल रहे थे.उनकी उस दिन की ड्यूटी खतम हो चुकी थी.<br />
<br />
"मैं जीत गया तो तुम मुझे टाफी से भी बडी टाफी दोगी,और तुम जीती तो मैं दूंगा!"युवा डाक्टर ने कहा.<br />
<br />
"क्या मतलब?"<br />
<br />
"नहीं जानती?!"शरारती मुस्कान के साथ डाक्टर ने कहा.<br />
<br />
"नहीं!"<br />
<br />
"स्वीट स्वीट के...ओके?"उस लडकी की समझ में कुछ कुछ आया.तो कहा,"नो!"<br />
<br />
"तो फिर मैं नहीं खेलता,जाओ!"<br />
<br />
"चलो आरेंज जूस को दांव पर लगाते हैं.टाफी नहीं."<br />
<br />
नहीं...टाफी..!"<br />
<br />
नर्स ने हंसकर कहा,"ठीक है,टाफी ही सही."<br />
<br />
दोनों खेलने लगे.<br />
<br />
उस दिन तीन खास बातें हुईं.<br />
<br />
एक - तीसरा मरीज़,बूढा,सुबह डिस्चार्ज होकर चला गया.<br />
<br />
दो - दोपहर को आइ सी सी यू में जब कोई तीसरा नहीं था,दूसरे नम्बर बेड के मरीज़ ने अपनी पत्नी को चूम लिया.पर युवा डाक्तर ने देख लिया और पत्नी को डांट भी दिया.<br />
<br />
मरीज़ ने आवेग और उद्रेक के कारण ऐसा किया था या प्यार और मुहब्बत के कारण मैं नहीं जान सका.<br />
<br />
पंद्रह मिनट के बाद फिर वी.एफ वी. एफ. चिल्लाया गया.फिर वह सारी प्रक्रिया की गई...पर इस बार कोई फायदा नहीं हुआ. बात नहीं बनी.<br />
<br />
दूसरे नंबर का मरीज़ नहीं रहा.<br />
<br />
क्या सचमुच भावोद्रेक के कारण ही ऐसा हुआ था?!<br />
<br />
इस तरह आइ सी सी यू में किसी के न होने की वजह से युवा डाक्टर और पंजाबी नर्स का खेल ज़ोरों पर था.<br />
<br />
अचानक तीसरी खास बात हो गई.<br />
<br />
शाम को साढे सात बजे,जब युवा डाक्टर की ड्यूटी खत्म होने को आई,मनमोहन कृष्ण फिर छाती में तेज़ दर्द के कारण वापस आया.उसे अडमिट करना पडा.<br />
<br />
ई सी जी में हुए परिवर्तन दोबारा सामान्य स्थिति में पहुंचने से पहले ऐसा दर्द उठा है,इसलिए हम नहीं कह सकते कि यह सचमुच हार्ट अट्टेक है या नहीं,"छोटी लेडी डाक्टर ने कहा.थोडा रुककर फिर कहा, "इसे कुछ नहीं हुआ.फौरन डिस्टिल् वाटर का इंजक्शन दे दो,"<br />
<br />
"उसके सीने पर ’पेरिकार्डिअयल रब’ साफ सुनाई दे रहा है,और वह दिल की बीमारी का सूचक है."कन्सल्टेंट ने कहा.<br />
<br />
खेल और आरेंज जूस के नशे में डूबे युवा डाक्टर का सिर चकरा गया.समझ में नहीं आया कि लाल किताब से उसने जो वाक्य पढकर सुनाए वह कहां तक काम आए.<br />
<br />
अगर मनमोहन को दिल की बीमारी न होने की बात सच है तो...फिर यह सारी गडबड इस बंद माहौल में रहने की वजह से ही हुई थी?<br />
<br />
इतने आधुनिक ढंग से, बडे ध्यान से मरीज़ों की सुरक्षा का प्रबंध किए जाने के बावजूद,इस आइ सी सी यू का प्रयोजन बस,इतना ही रह जाता है?<br />
<br />
तीसरा मरीज़,इसी माहौल में,इन नीली दीवारों के बीच आराम पाकर,ठीक होकर घर चला गया था ना?यह सब इस प्रबंध के कारण नहीं हुआ?आज सुबह ही मैं आइ सी सी यू का कमाल देखकर खुश हो रहा था ना?<br />
<br />
पढी हुई बातें,जिनपर यकीन किया था,जिन बातों को बडे बडे डाक्टरों ने बताया,वे सब बातें मरीज़ों को पढकर सुनाया और उनपर यकीन करके मात खा बैठा.<br />
<br />
अब मुझे क्या करना चाहिए?<br />
<br />
लोगों को क्या संदेश दूं? उसका मन उलझन में पड गया.<br />
<br />
जब खुद इतने सारे सम्देहों से दिमाग भर गया हो तो दूसरों को क्या संदेश दे सकूंगा? खुद को पानी की बूंद से भी छोटा महसूस करके युवा डाक्टर पंजाबी नर्स से आरेंज जूस या टाफी मांगना भूल गया.<br />
<br />
<br />
--------------------------------------------------------------------------------------------------<br />
<br />
मूल तॆलुगु कहानी :डा.श्याम<br />
<br />
अनुवाद :आर्.शांता सुंदरी<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
</div>santha sundari.rhttp://www.blogger.com/profile/08435993185719238671noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3573628780113893447.post-59456289266931390142011-05-24T18:35:00.001-07:002011-05-24T18:35:15.133-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
गिद्ध<br />
----<br />
<br />
"आज भी पानी नहीं आएगा.इन खेतों में फसल नहीं होगी!"तालाब के किनारे इमली के पेड पर बैठा तोता बोला.<br />
<br />
"अरे, यह कैसी गलत भविष्यवाणी कर रहे हो भाई?रात देर तक मुन्नॊरु के किसान संघ की दीवार पर बैठा रहा.उन लोगों ने कहा था कि पौ फटने से पहले तालाब पानी से भर जाएगा.सुना है पसा भी लिया था इसके लिए!"पास ही बैठे मैना ने कहा.<br />
<br />
"असली मामला तो वही है.इंजीनियर को मालूम हो गया कि गांव में एकड के हिसाब से पैसा वसूल किया गया था.एक बूंद पानी भी देने केलिए वह राज़ी नहीं है...अड गया है."<br />
<br />
"लगता है बेचारा सतजुग का आदमी है.क्या पैसे वसूल करने की बात सुनकर उसे बुरा लगा?"<br />
<br />
"बुरा तो मान गया वह, पर इस बात से नहीं बल्कि इसलिए कि उसका हिस्सा उसे क्यों नहीं मिला!"<br />
<br />
"यह कैसा अत्याचारी है भाई? लोग बडी तकलीफ में हैं.कर्ज़ लेकर बुवाई कर चुके हैं और पानी के इंतज़ार में आंखें बिछाये बैठे हैं और यह महाशय अपने हिस्से की मांग कर रहा है? तो फिर उसका हिस्सा उसके मुंह पर क्यों नहीं दे मारा?<br />
<br />
"कैसे देते?सूपरवैज़र का बेटा तो इंटर में फेल हो गया ना?"<br />
<br />
"उसके फेल होने का इंजीनियर के हिस्से से क्या संबंध है?"मैना ने पूछा<br />
<br />
"तू तो निरा बुद्धू है रे!इंटर फेल होने पर सूपरवैज़र ने बेटे को बहुत डांटा.और वह पैसा लेकर भाग गया!"<br />
<br />
"तो वह पैसा किसानों से वसूल करना चाहता था वह?"<br />
<br />
"अरे नहीं ,यार! वह तो किसानों का ही पैसा था. उसने कहा, इसमे से सबको हिस्सा मिलेगा.अगले दिन यह किस्सा हुआ.अब वह अपनी असहायता प्रकट कर रहा है.तब बेचारे किसान ही क्या कर सकते हैं बोलो?"<br />
<br />
"करना क्या है? सब जाकर सूपरवैज़र के घर के सामने धरने पर बैठ जाएं.अखबार में इसकी खबर छपेगी तो अपनेआप बंदा मान जाएगा."<br />
<br />
वहां बैठने से क्या होगा? यहां इसके घर के सामने बैठो तो पता चले.इसीलिए किसीको कुछ भी नहीं बताता है वह.कल परसों कहकर टालता जा रहा है.पानी केलिए रोज़ चक्कर काटने वाले सज्जन सुबह के गए रात को लौट रहे हैं...वह भी खाली हाथ.पर वे भी क्या कर सकते हैं बेचारों ने तो सबकुछ करके देख लिया है !"<br />
<br />
"अरे सबकुछ करनेवाले तो किसान थे!हमने कितना मना किया था कि तालाब में पानी नहीं हैफिर भी धान की फसल बो दी!बडों की बात मानकर ऐसी फसल डालते जिन्हें ज़्यादा पानी की ज़रूरत नहीं होती.वैसे भी इन्हें कोई क्यों नहीं कहता कि रिश्वत मांगने वाले को जूता मारे?"<br />
<br />
"सुना है लिंगरावु ने सलाह दी कि ऐसे लोगों से दूर ही रहो!तमाचा खाकर भी ऐसी सलाह् देता है कंबख्त!"<br />
<br />
"तुम तो बडे भोले हो जी? वह ऐसी ही सलाह देगा ना?काशय्य का खेत नाले के नीचे ही है ना,इसीलिए ऐसी सलाह दी उसने."<br />
<br />
"ऐसा क्यों?" अब भी मैना की समझ में बात नहीं आई.तब तोता मैना के बिल्कुल पास आकर बैठ गया और उसे बांहों में लेकर बोला,"ऐसा ही होता है जी!तालाब में पानी आए इससे पहले काशय्या के खेत में नाले का पानी पहुंच जाता है.पांच एकड में है फसल.पानी बहेगा तो खूब फसल होगी!"<br />
<br />
"तो?"मैना ने भोलेपन से पूछा.<br />
<br />
"लिंगरावु को तमाचा मरा था शंकर ने.शंकर और काशय्या ने मिलकर खेती की है.फसल अच्छी होगी तो दोनों मज़ा करेंगे.तो फिर लिंगरावु को गुस्सा आएगा ना?"<br />
<br />
"अरे बद्माश!ऐसी सलाह देता है जिससे दूसरे का नुकसान हो?उसे तो कभी न कभी इसकी सज़ा ज़रूर मिलेगी.वेंकट को देखा कितना दुःखी है?उसका दुःख देखकर मुझे भी रोना आ गया!पर इतना क्यों रो रहा है वह?"<br />
<br />
"नहीं तो क्या करेगा?उधार के पैसे लेकर सबसे पहले पांच एलड ज़मीन में बीज बो दिए."<br />
<br />
"तो खेत सूख जाने से रो रहा है क्या बेचारा?"<br />
<br />
"हां सूख तो गया है खेत.पर वह इसलिए नहीं रो रहा है.सब कह रहे हैं कि अब तालाब में पानी आने लगा है."<br />
<br />
"पर यह तो खुशी की बात है ना? इसमे दुःखी होने की क्या ज़रूरत है?"<br />
<br />
"उसका पूरा खेत सूख चुका है,तो ऐसे में दूसरों के खेतों में फसल क्यों उगेयही सोचकर दुःखी है!"<br />
<br />
"कम्बख्त! सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे निकले!इसीलिए ये कभी सुखी नहीं रह सकते.सब मिलकर चलें तो कोई काम हो सकता है.है ना?"मैना ने प्यार से तोते की गर्दन को अपनी चोंच से सहलाते हुए कहा.<br />
<br />
पौ फटने लगी है.काला आसमान सूरज के इर्दगिर्द अंगडाई लेते हुए उठने लगा.अंधेरे की ज़ुल्फों से झरते फूलों जैसे लग रहे थे पंछी.<br />
<br />
"हां सच कहा तुमने.पर एक बात है,जितनी जल्दी बुराई फैलती है,भलाई नहीं फैलती.सबको मिलकर चलने के लिए कहने वाले नामपल्ली तो समझो गया काम से!"<br />
<br />
"क्यों ,नामपल्ली को क्या हुआ?"<br />
<br />
"अभी हुआ नहीं,होगा!सब लोग उसपर हमला करेंगे.खेत के पानी की बात उठाएंगे."<br />
<br />
"मुझे नादान समझकर झूट बोल रहे हो ना?"मैना ने तोते से कहा,"तालाब में पानी लाने का वादा करनेवालों से नामपल्ली का कोई लेना देना नहीं? फिर उसपर क्यों हमला करेंगे?"<br />
<br />
"लेना देना नहीं है इसीलिए.छः महीने पहले गांव में क्या हुआ था, याद है ना?"<br />
<br />
"याद क्यों नहीं है?गांव में फाइनान्स खोलने की कोशिश का नामपल्ली ने विरोध किया और उसे रोक दिया था.पहले भी दो रुपये ब्याज्पर लोग उधार देते रहे.और जल्दी वापस भी नहीं मांगते थे.चुकाते वक्त पांच दस रुपये कम भर दिए तो भी चलता था.फाइनान्स खुलेगा तो कागज़ पत्र सबका खर्च बढेगा.ब्याज भी बढेगा.फिर उस ब्याज पर भी ब्याज वसूल करेंगे वे.तो उसे रोककर नामपल्ली ने अच्छा ही किया..."<br />
<br />
"हां, अच्छा काम था इसीलिए याद रखा उन लोगों ने.किसी को तो ज़िम्मेदार ठहराना है, तो पुरानी दुश्मनी नामपल्ली पर निकाल रहे हैं.राजनीति के माने यही है,समझे?"<br />
<br />
"यह तो सरासर नाइन्साफी है!भोले भालों को शिकार बनाएंगे?पर किसान भी अंधे नहीं हैं.सच झ्हूठ का फर्क नहीं जानते? कोई कुछ भी कह देगा तो यकीन कर लेंगे?"<br />
<br />
"यकीन नहीं करेंगे तो क्या करेंगे?अगर यकीन न हो तो भी नाटक करेंगे कि यही सच है!मुंह नहीं खोलेंगे.क्यों कि गांव में बसएं आती जाती नहीं हैं ना?"<br />
<br />
"अब बसों का यकीन से क्या संबंध है?"<br />
<br />
"बहुत है,गाहालीस फुट सडक की आवश्यकता पर उसने सवाल उठाया.अधा गांव उससे नाराज़ है.अभी से यह बात फैलाने लगे हैं कि गांव के विकास में वह टांग अडा रहा है.लोग तो भेड बकरे हैं...सिर हिलाते रहते हैं.फिर सूपरवैज़र भी तो उन्हीम्के पक्ष में हैं.!एक ही वार में दो चिडियां खतम!"<br />
<br />
"दो चिडियां? कौन हैं वे दो?"<br />
<br />
"तुम्हें सबकुछ बताना पडेगा क्या?क्या आज ही अमेरिका या सिंगापूर से आई हो?"<br />
<br />
"अच्छा सिंगापूर के नाम से याद आया.सैदिरेड्डी की बात कर रहे हो ,क्यों?बेचारा किसीके भी मुंह नहीं लगता था.अपने काम से मतलब रखनेवाला और कमर तोड मेहनत करनेवाला सैदिरेड्डी.उसका ये लोग क्या बिगाडेंगे?"<br />
<br />
"सबकुछ बेच बाचने केलिए मजबूर कर देंगे.उसपर मुकद्दमे चलाकार गांव गांव घुमाएंगे.आखिर भिकमंगा बन जाए उसकी ऐसी हालत कर देंगे! उसका तो गांव में नाम है ना? कैसे बर्दाश्त कर सकेंगे?"<br />
<br />
"पर वे ऐसा क्यों करेंगे?मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है!"<br />
<br />
"देखो,फाइनान्स के जो अधिकारी हैं वे ही सडकों के कांट्राक्टर भी हैं.वे ही पानी का मामला देखनेवाले अधिकारी भी हैं.उनमें से दो सैदिरेड्डी के पक्ष में हैं.सैदिरेद्देए ने मोती पूंजी लगाकर तालाब के नीचले ज़मीन में दस एकड में ब्<br />
फसल बोई है.अब वह खूब लहलहा रही है ना, इसलिए."<br />
<br />
"यह तो गलत बात है.ऐसा नहीं होना चाहिए!"<br />
<br />
"हां,गलत तो है ही. कल पहले सैदिरेड्डी नामपल्ली को पीटेगा.क्या वह गलत नहीं होगा?और सैदिरेड्डी को शराब पिलाकर उकसाना उससे भी बडी गलती होगी,है ना?और नामपल्ली भी चुप नहीं रहेगा...हाथापाई होगी...एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाएंगे दोनों.दोनों के सर फूटेंगे.गांव दो वार्गों में बंट जाएगा...क्या ये सब गलत काम नहीं?इतना सब होने के बाद भी दोनों न्याय मांगने गांव के बडों के पास ही जाएंगे!फैसला सुनाने का नाटक कर वे इन्हें पुलिस के हवाले कर देंगे.वह भी गलत होगा.पर बडों की सोच यही है कि एक वार में दोनों को खतम किया जाए.इस झगडे से एक और फायदा भी है.पानी की समस्या पीछे रह जाएगी और यही सबसे बडी समस्या बन जाएगी.बस यही होनेवाला है,देख लेना!"<br />
<br />
"हां हां भविष्य बताना तो तेरा काम ही है!फिरभी इससे इन लोगों को क्या फायदा होगा?"<br />
<br />
"फायदा नुक्सान की बात छोडो.अभी चुनाव होनेवाले हैं...इसलिए."<br />
<br />
"चुनाव होंगे तो क्या?"<br />
<br />
नामपल्ली पुराने सरपंच का आदमी है.पुराना सरपंच लोगों की भलाई चाहनेवाला है.वह जीत जएगा...फिर उसपर कीचड उछाले बिना कैसे रह सकतेहैं ये?"<br />
<br />
"अच्छा ये पासे फेंककर इंतज़ार करेंगे और जो कुछ होना है अपने आप होता रहेगा?ईमांदारॆ से पानी लाकर गांव के लोगों की मदद करनेवाला नेता कोई नहीं रहेगा?गांव के गांव मरघट बनते जाएंगे तो भी कोई चूं तक नहीं करेगा!पर यह तो बताओ कि गांव में पानी कब आएगा? आयेगा भी या नहीं?"<br />
<br />
"आयेगा क्यों नहीं?आयेगा...ज़रूर आएगा.पर तब जब लोगों के आंसू सूख चुके होंगे.सारे खेत सूख गए होंगे!"<br />
<br />
"तब आने से क्या होगा?"<br />
<br />
"तबतक अधिकारी चेतेंगे नहीं.वह तो उनकी आदत है!एमएलए को या एम पी को यह बता देंगे कि फलां गांव को पानी दे दिया है और फिर उनकी ज़िम्मेदारी खतं समझो."<br />
<br />
धूप तेज़ हो गई थी.तोते ने चारों ओर नज़र दौडाई.दूर गिद्ध बैठे दिखाई दिए.निढाल होकर पडे बैल को नोचकर खाने के इंतज़ार करतए आसमान में चक्कर काट रहे थे.<br />
<br />
घबराकर तोता और मैना पेड की शाखों में छुप गए.<br />
<br />
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मूल तेलुगु कहानी : पेद्दिंटि अशोक कुमार<br />
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अनुवाद : आर. शांता सुंदरी.<br />
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</div>santha sundari.rhttp://www.blogger.com/profile/08435993185719238671noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3573628780113893447.post-65432710446036347092011-05-21T18:46:00.001-07:002011-05-21T18:46:32.961-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<table border="0" cellpadding="0" cellspacing="0" class="MsoNormalTable" style="mso-cellspacing: 0in; mso-padding-alt: 0in 0in 0in 0in; mso-yfti-tbllook: 1184;"><tbody>
<tr style="mso-yfti-firstrow: yes; mso-yfti-irow: 0; mso-yfti-lastrow: yes;"> <td style="padding: 0in 0in 0in 0in; width: 463.5pt;" width="618"> <table border="0" cellpadding="0" cellspacing="0" class="MsoNormalTable" style="mso-cellspacing: 0in; mso-padding-alt: 0in 0in 0in 0in; mso-yfti-tbllook: 1184;"><tbody>
<tr style="mso-yfti-firstrow: yes; mso-yfti-irow: 0; mso-yfti-lastrow: yes;"> <td style="padding: 0in 0in 0in 0in;"> <div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 24.0pt; mso-bidi-language: HI;">अ...</span></b><b><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 24.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><br />
</div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span style="color: red; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">‘<span lang="HI">अक्षर मेरा अस्तित्व</span></span><span style="color: blue; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">’</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"> <span lang="HI">की रचनाकार</span> <span lang="HI" style="color: blue;">डॉ.सी.भवानी देवी</span> <span lang="HI">प्रमुख समकालीन तेलुगु कवयित्री हैं। उन्होंने समय और समाज के प्रति जागरूक शब्दकर्मी के रूप में अपनी पहचान बनाई हैं। विषय वैविध्य से लेकर शिल्प वैचित्र्य तक पर उनकी गहरी पकड़ ने उन्हें बड़ा रचनाकार बनाया है।</span> <o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><br />
</div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">मनुष्य के रूप में एक स्त्री के अस्तित्व की चिंता डॉ.भवानी के रचनाधर्म की पहली चिंता है। भारत की आम स्त्री उनकी कविता में अपनी तमाम पीड़ा और जिजीविषा के साथ उपस्थित है। इस स्त्री को तरह तरह के भेदभाव और अपमान का शिकार होना पड़ता है</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">, <span lang="HI">फिर भी यह तलवार की धार पर चलती जाती है</span>, <span lang="HI">मुस्कुराहटों के झड़ने पर भी अक्षर बनकर उठती है और प्रवाह के विपरीत तैरने का जीवट दिखाती है। माँ इसके लिए दोहरी संवेदनाओं का आधार है - जूझने के संस्कार का भी और आत्मसमर्पण करके पहचान खो देने के संस्कार का भी। इस द्वन्द्वात्मक संबंध में कवयित्री स्वतंत्र अस्तित्व के पक्ष को चुनती है -</span><span style="color: blue;"> "<span lang="HI">पर माँ! / अब मैं अक्षर बन उठ रही हूँ / यह प्रवाह मुझे अच्छा नहीं लगता / इसलिए मैं विपरीत दिशा में तैर रही हूँ / तुम्हारी पीढ़ी हैरान रह जाए / इस अंदाज से / अपनी पीढ़ी में सिर उठा रही हूँ / अब आगे / अक्षर ही मेरा अस्तित्व होगा!"</span> </span><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><br />
</div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">डॉ.भवानी देवी की स्त्री अतीत को एक पूजाघर मानती है जिसमें थोड़ी देर ठहरना तो ठीक है पर हमेशा के लिए बसना नहीं। यह स्त्री निरंतर उछलते जल प्रपात की तरह यात्रा में है - इस बोध के साथ कि</span><span style="color: blue; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"> ‘<span lang="HI">जीवन तो लहर नहीं / कि दोबारा पीछे की ओर बह जाए।</span>’</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"> <span lang="HI">इस स्त्री को यह भी बोध है कि अस्मिता की बात करने पर</span>, <span lang="HI">अक्षर अस्तित्व की चर्चा करने पर पुरुष समाज उसके स्त्रीत्व तक को कटघरे</span> <span lang="HI">में खड़ा कर देगा</span>, <span lang="HI">लेकिन वह पिंजड़ों को गले लगाने के पागलपन को दुहराने के लिए तैयार नहीं है। घर गृहस्थी में जब घरवाली के हिस्से में सिर्फ टूटा फूटा प्यार और उपचार के नाम पर उपहास ही आता है तो वह इस बेगार से छुटकारे के लिए आवाज लगाती ही है -</span> <o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span style="color: blue; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">"<span lang="HI">तरंग बनूँ तट को पार करूँ...</span></span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="color: blue; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">पतंग बनूँ आकाश के</span><span style="color: blue; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"> <span lang="HI">अंतिम छोर तक उडूँ...</span></span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="color: blue; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">हिम बनूँ जी भर बहने लगूँ...</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="color: blue; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">पेड़ की जड़ बनूँ कोपलों को सीने से लगा लूँ...</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="color: blue; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">प्रातः बनूँ आराम से बाग़ में घूमूँ फिरूँ...</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="color: blue; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">मानवी बनूँ</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="color: blue; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">प्यूपा को तोड़कर</span><span style="color: blue; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"> </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="color: blue; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">तितली बनकर हवा के संग-संग उड़ जाऊँ...।"</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><br />
</div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">इसके अलावा</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"> <span lang="HI">कवयित्री भूमंडलीकरण के नाम पर उभर रही</span> <span lang="HI">एकजैसेपन से ग्रस्त संवेदनहीन ठंडी दुनिया को देखकर मनुष्यता के भविष्य के बारे में बेहद चिंतित हैं। घर हो या बाहर</span>, <span lang="HI">आज का मनुष्य सर्वत्र एक ऊष्म आत्मीय स्पर्श के लिए तरस रहा है। संबंधशून्यता और असंपृक्ति की</span> <span lang="HI">यह</span> <span lang="HI">बीमारी शहरों से चलकर अब गाँवों तक पहुँच गई है जिस पिशाच ने सारे शहरों को निगला है वह अब हमारे गाँवों पर भी टूट पड़ा है। अब खेतो में फसल नहीं नोटों की गड्डियाँ उगाई जाने लगी हैं। परिवार टूट रहे हैं</span>; <span lang="HI">बाजार फैल रहे हैं। बाजार के इस दैत्य ने घर की बोली को चबा लिया है और पराई भाषा अपनों को पराया करके भारत को अमेरिका की ओर उन्मुख कर रही है। लेकिन इसी समय का सच यह भी है कि बाजार के साम्राज्य</span> <span lang="HI">के बरक्स छोटी छोटी स्थानीय संवेदनाएँ अंधेरे के विस्तार के समक्ष दिये की तरह सिर तानकर खड़ी हैं। वर्तमान समय में कविता की सबसे बड़ी प्रासंगिकता स्थानीयता की इस संवेदना को बनाए रखने में ही निहित है -</span> <span style="color: blue;">"<span lang="HI">आज गाँव है / एक उजड़ा मंदिर / फिर भी मेरे पैर उसी ओर खींच ले जाते हैं मुझे / भले ही मंदिर उजड़ गया हो / वहाँ एक छोटा-दीया जलाने की इच्छा है।"</span></span><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><br />
</div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">कवयित्री धरती पर फैलते रेगिस्तान और दिलों में फैलती अमानुषता</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"> <span lang="HI">के प्रति बेहद चिंतित हैं। वे जानती हैं कि सृजन के लिए कोमलता चाहिए होती है</span>, <span lang="HI">द्रवणशीलता की दरकार होती है। शिशिर वन जैसे सूखे दिलों में आग के तूफान उठते रहेंगे तो भला हरियाली के अंकुर कहाँ से फूटेंगे</span>? <span lang="HI">अगर यही हाल रहा तो</span><span style="color: blue;"> ‘<span lang="HI">पिघलने वाले मनुष्य का नामोनिशान भी नहीं रहेगा!</span>’</span> <span lang="HI">अगर ऐसा हुआ तो दुनिया को बेहतर बनाने के सपने अकारथ</span> <span lang="HI">हो जाएँगे: लेकिन मनुष्यविद्ध कविता के रहते यह संभव नहीं.</span> <o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><br />
</div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">डॉ.सी.भवानी देवी की काव्यभाषा अपनी बिंबधर्मिता और विशिष्ट सादृश्यविधान के कारण मुझे खास तौर पर आकर्षित करती है।</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"> <span lang="HI" style="color: blue;">आवाजों के बीच जमने वाले शून्य</span><span style="color: blue;"> <span lang="HI">की तरह हाथ मिलाने में</span>, <span lang="HI">सारे दृश्य़ बर्फ के टुकड़ों की तरह टूटते गिरते रहते हैं</span>, <span lang="HI">मन को घेरने वाली धुंध जैसे मौन को छोड़कर</span>, <span lang="HI">मौन हजारों लाखों शब्दों को बर्फ की तरह घनीभूत कर देता है</span>, <span lang="HI">एक एक पन्ने में से उठतीं चमेली के फूलों की ज्वालाएँ</span>, <span lang="HI">युद्ध के बड़े बड़े दाँतों के बीच फँसकर कटनेवाले बचपन</span>, <span lang="HI">रीढ़ की हड्डी बनता हुआ तकिया</span>, <span lang="HI">नाभिनाल के कटते ही पगहे</span> <span lang="HI">से बाँध दी गई लड़की</span>, <span lang="HI">बिना साए का इंसान</span>, <span lang="HI">दोनों हाथ ऊपर उठाकर बुलाती स्त्री</span>, <span lang="HI">पीछे रस्सी से बँधे हाथों वाली स्त्री</span>, <span lang="HI">पिंजरे में बँधी पंछी की तरह नरक भोगती स्त्री</span>, <span lang="HI">मकबरे</span> <span lang="HI">को तोड़कर निकलने वाली पुकार जैसी तलवार से बुरके को सिर से पाँव तक काटती हुई स्त्री</span>, <span lang="HI">चिकने पहाड़ पर चढ़ती</span>, <span lang="HI">फिसलती और फिर फिर चढ़ती हुई स्त्री</span>, <span lang="HI">चारों ओर समुद्र ही समुद्र होते हुए प्यास बुझाने को एक बूँद पानी के लिए तरसना</span>, <span lang="HI">दोस्त के इंतजार में आँखें बिछाए बैठा घोंसला</span>, <span lang="HI">मेरा बचपन किताबों में मोर पंख सा छिपा हुआ है</span>, <span lang="HI">उस घर की ईंट ईंट पर मेरे नन्हे हाथों की छापें अब भी गीली दिखती हैं</span></span><span style="color: cyan;"> </span>- <span lang="HI">ये सारे शब्दचित्र कवयित्री की गहन संवेदनशीलता और सटीक अभिव्यक्ति क्षमता के जीवंत साक्ष्य हैं।</span><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><br />
</div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">चाहे सुनामी हो या तसलीमा नसरीन पर हमला</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">, <span lang="HI">कुंभकोणम के स्कूल में अग्निकांड में बच्चों</span> <span lang="HI">की मृत्यु हो या </span>25<span lang="HI"> अगस्त </span>2007<span lang="HI"> को लुंबिनी पार्क और गोकुल चाट भंडार में आतंकवादी बम विस्फोट की घटनाएँ - हर छोटी बड़ी चीज़</span> <span lang="HI">कवयित्री डॉ.सी.भवानी देवी के मन मस्तिष्क के तारों को झनझना देती है। धर्म</span>, <span lang="HI">भाषा</span>, <span lang="HI">जाति</span>, <span lang="HI">राजनीति और न जाने कितनी तरह के आतंकवाद और युद्धों को झेलती हुई मनुष्यता का आक्रोश भवानी देवी के शब्दों में ढल कर</span> <span lang="HI">श्लोकत्व प्राप्त करता है -</span> <o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span style="color: blue; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">"<span lang="HI">हे धर्म...</span></span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="color: blue; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">अब तुझे ख़त्म करके ही</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="color: blue; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">हम जीवन पाएँगे!</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="color: blue; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">तुझे सिंहासन पर चढ़ाते रहेंगे जब तक</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="color: blue; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">तब तक</span><span style="color: blue; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"> </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="color: blue; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">मैं आँसुओं से भरी घटा ही बनी रहूँगी</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="color: blue; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">तेरे पैरों तले कबूतरी-सी कुचलती रहूँगी!"</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><br />
</div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="color: blue; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">श्रीमती आर.शांता सुंदरी</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"> <span lang="HI">ने</span> <span lang="HI" style="color: blue;">डॉ.सी.भवानी देवी</span><span style="color: blue;"> </span><span lang="HI">की इन</span> <span lang="HI">कविताओं को अत्यंत सहज और प्रवाहपूर्ण अनूदित पाठ के रूप में प्रस्तुत किया है। </span>‘<span lang="HI">अक्षर मेरा अस्तित्व</span>’ <span lang="HI">में संकलित यह अनुवाद हिंदी भाषा की प्रकृति और हिंदी कविता के मुहावरे में इस तरह ढला हुआ है कि अनुवाद जैसा लगता ही नहीं। वस्तुतः आर.शांता सुंदरी के पास स्रोत भाषा तेलुगु और लक्ष्य भाषा हिंदी दोनों ही के साहित्य और समाज का इतना आत्मीय अनुभव है कि अनुवाद उनके लिए अनुसृजन बन जाता है। इस कृति के माध्यम से उन्होंने तेलुगु की एक प्रमुख कवयित्री की प्रतिनिधि रचनाओं से हिंदी जगत का परिचय कराकर सही अर्थों में भारतीय साहित्य की अवधारणा को समृद्ध किया है।</span> <o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><br />
</div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">हिंदी जगत में</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"> <span style="color: red;">‘<span lang="HI">अक्षर मेरा अस्तित्व</span>’</span> <span lang="HI">को स्नेह और सम्मान मिलेगा</span>, <span lang="HI">ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है।</span><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><br />
</div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span style="color: red; font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">- <span lang="HI">ऋषभदेव शर्मा</span></span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">21 <span lang="HI">मई</span>, 2011<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><br />
</div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in;"><br />
</div></td> </tr>
</tbody></table></td> </tr>
</tbody></table></div>santha sundari.rhttp://www.blogger.com/profile/08435993185719238671noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3573628780113893447.post-49380677574188962392011-05-06T22:27:00.001-07:002011-05-06T22:27:12.113-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
ईश्वर की फिर मृत्यु हो गई<br />
-------------------------<br />
<br />
मैंने प्यार किया था<br />
एक सत्य शिव सौंदर्य को<br />
तीन वसंतों के बाद वह मेरी पत्नी बनी-प्यार मर गया<br />
<br />
सत्रह हेमंत और दस हज़ार सलीबें ढोकर<br />
गढा था हिमालय एक हिमकण से मैंने<br />
वह एक सूअर की औलाद के साथ भाग गई-प्यार मर गया<br />
<br />
तीस शिशिरों से अग्नि और अश्रु मिलाकर पिला रहा हूं दूध शब्द को<br />
मेरा प्रिय पाठक शब्द की हत्या कर पब में या पर्स में छुप गया ,सेल में फंस गया-प्यार मर गया<br />
<br />
पच्चीस ग्रीष्म ऋतुओं से रंगमंच के रणक्षेत्र में<br />
करा रहा हूं खड्ग चालन<br />
लाशों को सुंघा रहा हूं<br />
कोमल मकरध्वज खिला रहा हूं अपने सहृदय दर्शक को<br />
वह रंगमंच पर पेशाब करके<br />
एक छोटी फिल्मी अभिनेत्री के साथ भाग गया-प्यार मर गया<br />
<br />
चालीस शरदऋतुएं भट्टी में बैठकर मुखौटे पिघलाकर दोस्ती निभाई<br />
उन्हें फिर से मुझे पहनाने की कोशिश की उन लोगों ने-प्यार मर गया<br />
<br />
साठ बरसातें बेकार ज़िंदगी गुज़ार दी मैंने<br />
हमेशा समूह में जीता रहा गलत किया मैंने<br />
माफ कर दो भाई<br />
कोई तो आओ भाई<br />
एक हाथ का सहारा दो भाई<br />
ऊपर उठाओ भाई<br />
दिन ढल रहा है,अंधेरा घिर रहा है,रास्ता नहीं दिखेगा<br />
श्मशान का फाटक बंद हो जाएगा-प्यार मर गया!<br />
<br />
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<br />
मूल तेलुगु कविता : देंचनाल श्रीनिवास<br />
<br />
अनुवाद : आर. शांता सुंदरी<br />
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