Thursday, March 24, 2011


क्वारन्टैन
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परकटा कबूतर ऎक ज़मीन पर उड रहा है.बीच सडक पर कल ही का उगा नन्हा श्मशान ऎक अपनॆ छॊटॆ दांतॊं कॊ मीनारॊं पर गडाकर खॆल रहा है.बदन कॆ अंदरूनी हिस्सॊं मॆं घूमती ज़ंग लगी गॊली की तरह वह आदमी सडक पर ड्यूटी कर रहा है.हॊंठॊं पर फैलॆ रॆगिस्तानॊं कॊ छुपाकर वहां सब लॊगॊं नॆ चॆहरॊं कॆ बुर्ज़ॊं पर जुम्मॆ की नमाज़ॆं ऒढ लीं.और कुछ लॊगॊं नॆ कर्पूर दीपॊं कॆ नीचॆ मंदिर छुपा लिऎ.नन्हॆ सॆ कब्र पर चार फूल,और कुछ दानॆ डालकर उस औरत नॆ अपनॆ बच्चॆ कॊ नहलाया,यूनिआर्म पहनाया,जूतॆ पहनाऎ.’अम्मीजान,स्कूल कैसॆ जाऊं?’बच्चॆ की आंखॊं मॆं लॊहॆ की कील .अब्बाजान कॆ हाथॊं मॆं आइडॆंटिटी कार्ड.चूल्हॆ कॆ नीचॆ जल रही हैं आंतॆं और ऊपर भुन रहॆ हैं हृदय.जैसॆ कानॊं मॆं सीसा डाल दिया गया हॊ,मॆरी खजूर की सडक पर कर्फ्यू किसनॆ उंडॆल दी?जहां तक मॆरॆ पैर जानतॆ हैं,यह सडक तॊ सिर्फ चलनॆ कॆ काम आती थी.पर ऎक सौ चवालीस की ज़ंजीरॊं मॆं इन पैरॊं,और सडक का कैद हॊ जाना...इसकी कल्पना भी नहीं की थी मैनॆ.जबसॆ चलना सीखा, मुझॆ लगा जीना ही ऎक मात्र समस्या है.पर अब लगता है यहां चलना ही सबसॆ बडी समस्या है.कॊई भी चार पैर मिलकर न चल सकनॆवाली इन अकॆली राहॊं मॆं शहर मॆं ही ऎक घना जंगल उग आया है लाठियॊं का.ज़मीन की डाली सॆ छाया कॆ फूल झटककर तॊडनॆ की कठॊरता मौत कॊ’रीचार्ज’ कर रही है.आर ऎ ऎफ,सी आर पी ऎफ कॆ जूतॊं कॆ नीचॆ मॆरॆ सारॆ पैर पंखविहीन हॊ गऎ.

लौटनॆ कॆ लिऎ पीछॆ न मुडनॆ वालॆ सारॆ रास्तॆ उस औरत कॆ साथ खिलवाड कर रहॆ हैं.
दॊ हाथॊं कॆ मिलनॆ सॆ भी आहट न हॊनॆवालॆ
सन्नाटॆ मॆं खडॆ हॊकर चुपचाप
कर रहॆ हॊ किसका इंतज़ार ?
किसकॆ लिऎ लाऎ यह बांसुरी?
किवाड खॊला किसकॆ लिऎ?
’उसकॆ लिऎ...’
कहांगया है वह?
कितनी दूर गया है?
कुछ बताकर गया है?
’बाज़ार गया है...’
साथ लॆ गया क्या किसीकॊ?
कुछ पता बता गया?
जल्दी लौट आयॆगा?
’हमॆशा की तरह गया
थैली हाथ मॆं लॆकर
चावल लानॆ
बता नहीं सकती कबतक आयॆगा...
काम पर जाता तॊ कहती
खानॆ कॊ घर आ जायॆगा
दूर गांव जाता
तॊ कहती कल परसॊं आ जायॆगा
परदॆस जाता तॊ कहती
साल दॊ साल मॆं आयॆगा
मुझॆ छॊड दूसरी किसी कॆ पास जाता
तॊ ज़रूर कह दॆती कि मर गया...
पर अब तॊ वह गया है
मुट्ठी भर चावल लानॆ
पिछली गली मॆं.
इसीलिऎ कुछ नहीं कह सकती
कि आयॆगा कि नहीं !
जबतक मैं बांसुरी लाती
हवा कॆ चलनॆ सॆ
ऎक बूंद भी नहीं बचा था कॊई गीत
सूख गऎ थॆ हॊंठ
अब इस बंसी मॆं कैसॆ घुसूं?
जबतक मैं युद्ध लाती
यॊद्धा सब मर चुकॆ थॆ
अब इस युद्ध का मैं क्या करूं?
मैं दरवाज़ा खॊल पाती
तबतक आंगन मॆं अलविदा फैल चुकी थी
अब सिर्फ आंसुऒं सॆ भरी
बॆपलक मॆरी चौखट कॊ कौन बंद करॆ?’

आंगन मॆं टुकडॊं मॆं कटा पडा ऎक इन्सान अपनॆ बदन कॆ टुकडॆ बीन रहा है.इस पूरॆ भूमंडल कॊ मांसखंड मॆं तबदील करनॆवालॆ ईश्वर नॆ मानवता कॊ बहिष्कृत कर डाला.
मांस कॆ टुकडॆ अलग अलग छटपटा रहॆ हैं .आंखॆं बंद किऎ आइमॆक्स कॆ परदॊं पर थ्री डी मॆं मृत शरीर ,जॊ दफ्न कॆ लिऎ तरसतॆ रह गऎ,अंतिम कुसंस्कार कॊ दॆख खिल्ली उडा रहॆ हैं.
वहां वह औरत यूं ही सब्ज़ी खरीदनॆ खडी थी लाइन मॆं.संदॆह जावॆलिन फॆंक तमाशा दॆख  रहा था,पर साथ खडा कॊई आदमी  घायल हॊकर लॊहॆ की सलाखॊं मॆं फंस गया.हमॆशा की तरह दिन और रात...रात और दिन...क्या हमॆशा की तरह ही?नहीं...रात और दिन कॆ बीच कॊई और विषण्ण समय.समूचॆ शहर कॊ सुलानॆ कॆ बाद यह रात सिर्फ उस जगह चाबुक चला रही है पलकॊं पर.सभी राहॆं नींद मॆं बुला रही हैं राहगीरॊं कॊ.सुध बुध खॊकर दिन मॆं ही सडकॊं पर फैली रात.पॆड कॆ नीचॆ पसीनॆ सॆ सराबॊर पुलिस का सिपाही.विजिल कॆ नीचॆ टूटनॆ वाली बातचीत.चिडियॆ कॆ घॊंसलॆ मॆं चिहुंक पडनॆवाली चहचहाहटॆं.लॊहॆ की तितलियां कांच कॆ फूलॊं पर बैठनॆ लगी हैं.सुबह क्यॊं नहीं हॊ रही है अभी तक?
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मूल तॆलुगु कविता : पी(पसुपुलॆटि).गीता

अनुवाद :आर. शांता सुंदरी.

Saturday, March 19, 2011


स्वतंत्रता की प्रतिमा
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                 बहुत दिन पहले की बात है. एक छोटा देश एक बडे देश से बडी मुश्किल से आज़ादी हासिल करने में कामयाब हो गया.उस छोटे देश की जनता ने चाहा कि स्वतंत्रता प्राप्ति की यादगार में एक प्रतिमा बनाई जाए और उसे राजधानी में प्रतिष्ठित किया जाए.यह प्रस्तावना उन्होंने सरकार के सामने रखी.सरकार को भी लोगों की बात ठीक लगी और एक शिल्पी को बुलाया गया.वह शिल्पी बहुत ही प्रसिद्ध था और अपनी कला से बेहद प्यार करने वाला था.उसने कई प्रतिमाएं बनाई थीं,जो जीवन से भरपूर  लगती थीं.एक सुमुहूर्त में शिल्पी ने स्वतंत्रता की प्रतिमा को गढना आरंभ किया.संग मरमर के पत्थर से वह प्रतिमा बनाने लगा.
                आज़ादी कडे संघर्ष के बाद मिली थी, इसलिए अपने संघर्ष के इतिहास को हमेशा याद दिलाती रहने वाली, एक महान वीर योद्धा की प्रतिमा बनाने का आदेश शिल्पी को दिया गया.शिल्पी सरकार के आदेशानुसार यॊद्धा की प्रतिमा बनाने लगा.
                पर अमीर लोग पहले से डरते थे कि आम जनता लडकर आज़ादी हासिल करेगी तो उनके अधिकार को नुकसान पहुंचेगा, इसलिए उन्होंने बडे देश के शासकों से संबंध बनाकर,अज़ादी मिलने से पहले ही समस्त अधिकार अपने हाथों में ले लिए.उन्होंने कहा,"यह स्वतंत्रता की प्रतिमा ऐसी हो कि उसे देखते ही लोगों के मन मे नई सरकार के प्रति विनम्र भाव जाग उठे,और शांति बनाए रखने का संदेश भी मिले.इसलिए उसे एक शांत तपस्वी का रूप दिया जाए!"शिल्पी ने उनके आदेश का पालन करते हुए प्रतिमा का रूप बदलकर ,फिर से तराशना शुरू किया.
               देश के पूंजी पतियों में से और कुछ महाशय देश की आर्थिक परिस्थिति को अपनी जेबों और तिजोरियों में छिपाए हुए थे.उन्हें ये आदेश पसंद नहीं आए.उन सबने मिलकर शिल्पी को बुलाकर कहा, "उस प्रतिमा को हमारे देश के व्यापार की आत्मनिर्भरता को दूर दूर तक फैलाने वाले एक महान नौका व्यापारी के रूप में तराशा जाए!"श्ल्पी ने उस आदेश के पीछे काम करने वाले आर्थिक सूत्र को ध्यन में रखकर जी हुज़ूर कहा और अब उस प्रतिमा को एक व्यापारी के रूप में तराशने को उद्यत हो गया.
             इस बीच सरकार में ऊंचे ओहदों पर बैठे कुछ लोगों ने कहा कि यह सब रहने देते हैं और दो तीन सब कमेटियां और चार पांच जांच समितियां बिठाते हैं.फिर उनके सारे रिपोर्ट मंगाकर पढे और सबको अस्वीकार कर दिया, और कहा,"स्वतंत्रता की प्रतिमा में सरकार के प्रति आदर और विनम्रता के भाव दिखने चाहिए.लोगों के मन में सरकार के प्रति भय,भक्ति और श्रद्धा जगाना चाहिए.इसलिए इस प्रतिमा को सायुध सैनिक के रूप में तराशे जाने का आदेश सरकार देती है.सच्ची शांति और लोकतंत्र की रक्षा करने वाली तो सेना ही है.इसके अलावा, कुछ लोग हमेशा खाना ,कपडा और रहने की जगह की मांग करते रहते हैं...आंदोलन करते हैं...आर्थिक समानता का नारा लगाते हुए शोर मचाते रहते हैं...शांति-भंग करते हैं.आज़ाद देश में उनके ये हथकंडे नहीं चलेंगे, यह संदेश देनेवाली प्रतिमा हमें चाहिए.हथियारबंद सैनिक की प्रतिमा बनाई जाए!"इस बात की सार्वजनिक घोषणा भी की गई.शिल्पी फिर प्रतिमा का रूप बदलने में जुट गया.अबतक उसने प्रतिमा में कई बार परिवर्तन कर दिए थे.हथियारबंद सैनिक की प्रतिमा बनकर तैयार हो गई.उसे देखकर पूंजीपति और व्यापारी समान रूप से खुश हुए.दोनों तरफ के समर्थक भी सहमत हो गए.पर आम जनता सरकार के इस रवैयेको देखकर हैरान रह गई.
                      अब एक अच्छा दिन देखकर प्रतिमा को राजधानी में प्रतिष्ठित करना था.प्रतिमा को रखने केलिए वेदी पहले से तैयार करा दी गई थी.उसपर प्रतिमा को रखा गया.सरकार का एक अग्रणी नेता ने पहले एक लंबा चौडा भाषण दिया.उसके बाद प्रतिमा पर पडॆ मखमली कपडे को हटाया.स्वतंत्रता की प्रतिमा आधुनिक हथियार हाथों में लेकर प्रकट हुई...एक भयानक पिशाच के रूप में-
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मूल तेलुगु रचना : शारदा (एस नटराजन.)

अनुवाद :आर.शांता सुंदरी.

anusrujana:

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