Saturday, April 9, 2011


मूल तेलुगु कविता :के.शिवारेड्डी

अनुवाद :आर.शांता सुंदरी
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आसमान-सा सिर लेकर
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कौन घूम सकता है आसमान-सा सिर लेकर
धरती जैसे पैरोंवाले के सिवा-
सीपी जितनी बडी आंखें किसकी हो सकती हैं
आंसुओं को छानकर मोती बनानेवाले के सिवा-
अपने बदन को जहाज बनाकर कौन सफर कर सकता है
संसार को सागर समझनेवाले के सिवा-
फूल जैसे मानव-मन में कौन घुस सकता है
मधुभक्षी पक्षी की नाक जैसी नज़रोंवाले के सिवा-
जीवन और सृजन के बीच कौन बांध सकता है पुल
जतन से अनुभवों की कांवर ढोनेवाले कॆ सिवा-
सिर काटकर अपना कौन कर सकता है समर्पित सरस्वती को
कहीं भी किसी का भी सामना करने को तैयार
धीरोदात्त कवि के सिवा !

*             *                *                *                *                *               *                *


एक वाक्य यों घुस आता है
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एक वाक्य ऐसे घुस आता है
अरब के ऊंट की तरह
जैसे
भूखा चोर सबसे पहले रसोईघर में घुस आए
अपरिचित दीवर लांघकर
घर में घुस आए.

दो बजे का वक्त
नींद सडक पर बिखरे दूध -सा
धूल में मिल जाने के बाद का वक्त
बिजली की बत्ती के इर्द गिर्द जैसे मंडराने लगें मधुमक्खियां
ऐसे ही
तरह तरह के खयाल,बेचैनियां,दुःख
खट्टे डकार जैसी पुरानी बातें.

एक वाक्य ऐसे घुस आता है
निडर,निस्संकोच
तो तुम्हें उठकर बैठने को कर देता है मजबूर
लाठी लिए आता है कोई
लालटेन लेकर आता है कोई
अप्रत्याशित मोडों से होते हुए
गुज़रने लगता है जब जीवन
ऐसे विचित्र विच्छिन्न स्थिति में
तुम्हें दफनाया जाता है जब
और कुछ नहीं बचा रह जाता
धरती के शून्य तल को छोड.

सोचने लगते हो जब तुम यों
घुस आता है एक वाक्य अचानक
तब बदल जाती हैं तुम्हारी सारी रूप-रेखाएं
खिलोगे तुम
एक तेज का वलय बन
पेडों का एक झुरमुट बन
मीठी रहस्यमयी आवाज़ें
निकलने लगती हैं तुममें से
एक वाक्य घुस आता है तब
और
बुढापा खत्म हो जाता है.

*                      *                      *                 *                    *                 *                    *

टूटे बिना
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टूटे बिना
खडे रहने का समय है यह
चूर चूर हुए बिना
चलते रहना है इस वक्त
सबकुछ ढहता जा रहा हो जैसे-
बिना पकड में आए
हाथ से फिसलता जा रहा हो जैसे-

कल परसों तक
हाथों में जो था सुरक्षित
आज बिखरता जा रहा हो जैसे-

चारों कोने मिलाकर बांधकर
सबकुछ उसमें डालकर
कंधे पर रख निकल पडना है
इस वक्त.

अबतक
सबकुछ तुम्हारे अधीन लगता था
अब अचानक
हर तरफ छितर गया हो जैसे-
इकट्ठा नहीं किया जा सकता हो जिसे-

*                      *                          *                             *                           *

एक सपना
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वह लेटी है यों ही
सिकुडकर कुत्ते के पिल्ले की तरह
उसके ऊपर से निकलती जा रही हैं
गर्मियां,बरसातें
और सर्दी के मौसम की सर्द हवाएं
पर
देर से आई वसंत ऋतु
बैठ गई उसके पैरों के पास,


वह यों ही लेटी है
जैसे किसी लंबे सपने को
किसीने गठरी बांधकर रख दी हो
जाते वक्त साथ ले जाना भूल गया हो.

*                    *                      *                          *                            *  

एक और सपना
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आठवां महीना लग गया
चलना भी मुश्किल हो गया
आंखें धंस गईं
लेकिन
डोल रहे हैं कुछ सपने
उसकी आंखों के इर्द गिर्द
उसके बदन को घेरे हैं
तरह तरह की तितलियां रंगबिरंगी
बार बार
पेट पर हाथ फेरती उस बिटिया रनी के पेट में
एक युद्ध है
एक स्वर्ग है
एक देश है!

*                        *                           *                           *                           *  

पानी
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वह देखता रहता है बैठकर वहीं पर
आते-जाते लोगों को
गाडियों को
और समस्त संसार को
उसी जगह बैठकर देखता रहता है.
घंटे,दिन,साल बीत जाते हैं
शायद लत लग गई है उसे देखने की
सांस लेने जैसी ज़रूरत बन गई -

बुत-सा दिखता है
पर
नित नई हरकतों से
कई नदियों को
अपने अंदर बहा लेने का स्वभाव है उसका
अनवरत वहीं
नदिया के तट पर या बगीचे के बीच रहता हो जैसे-
या व्योम में घूम रहा हो जैसे-

बिना हिले ही हिलना,हिल जाना
कंपन से भर जाना
जानता है वह-
उसकी आंखों में भरा है एक प्रवाह
हवा हो चाहे हो पानी
या हो सुनसान एकांत सडक
देखने की आदत जो है
बिना देखे क्या रह सकता है?

देखते देखते अचानक लेता है डुबकी
ऊपर आता है फिर बत्तख की तरह.
कैसे देखना है किसे देखना है
यह हमें उससे सीखना होगा
क्योंकि
वह जानता है
देख देखकर पसीज जाना.

*                      *                          *                         *                           *

अब भी
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अब भी
वे वहां मिलते ही रहते हैं
जब कि
सबकुछ जहां का तहां टूटकर
गिरता जा रहा है
इन्सान माल बनते जा रहे हैं
सभी रास्ते
कटे सांप बन छटपटा रहे हैं
पेडों के सिर कटकर
नींद न आने से रो रहे हैं
आवेश खून की बरसात कर रहे हैं
बादलों के परिंदों के पर
कटकर गिर रहे हैं
बच्चों के चेहरों में बूढे नज़र आ रहे हैं

मानसिक संसार के कैदखानों को पार कर
निरर्थक व्यापार के लोभ की भीड को चीरते हुए
वे वहां मिलते ही रहते हैं-

बहुतों के लिए यह एक अचंभा है
ज़रा-सा प्यार,एक चुटकी ज़िंदगी,थोडी सी दया
रत्ती भर निस्वार्थ भाव बचे हों जिनमें
वे अब भी मिलते ही रहते हैं वहां!

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