Friday, May 27, 2011


आइ सी सी यू
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मेरी आंखें चौबीसों घंटे काम करती रहती हैं.मेरा दिल हरदम धडकता रहता है.मेरे हाथ अविराम चलते रहते हैं.

दीवार पर है मेरा निवास.मेरा नाम है घडी.

यहां इस दीवर पर बसे कुछ ही दिन हुए.जाने से पहले मेरे मालिक ने मुझे और मेरे भाइयों को धन्यवाद प्रकट करने केलिए इस अस्पताल को दे दिया.यहां के डाक्टरों ने दिल निचोड देने वाली बीमारी से बचाया,इस कारण या इस भ्रम में!उससे पहले हम सब एक ही जगह " टिक टिक","डिंग डांग","ठीक ठाक"रटते हुए जीते रहे.

जब से यहां आए,कुतूहल,उत्साह,उद्रेक,उद्वेग,में ही पल पल बीत रहा है... चल रहा है.

ठीक सामने बीच में मानिटर.मेरे सामने तीन बेड.मेरे बिल्कुल नीचे,मेरी आंखों से ओझल ,सिर्फ सुनाई देनेवाला एक बेड.मेरे दांईं ओर एक छोटा कमरे जैसा...पर कमरा नहीं.इसी जगह से वह भी जुडा है.वहां एक और बेड.

यह दिल की बीमारों का विभाग है.यहां जितने भी बीमार हैं उन्हें दिल की छोटी से छोटी शिकायत से लेकर बडी से बडी गंभीर बीमारी तक है.

मानिटर के सामने ज़रा आराम से बैठने लायक एक कुर्सी पर एक युवा डाक्टर,और उसके ठीक सामने मानिटर के उस तरफ,एक गोरी चिट्टी पंजाबी नर्स बैठे हैं.वह लडकी कुछ लिखती जा रही है.वह युवक भी कुछ लिख रहा है.

हां,यह दिन का वक्त है.रोमांस केलिए गलत वक्त!

तीनों बिस्तरों पर तीन बीमार हैं.तीनों को तारों से मानिटर से जोडकर रखा गया है.दिल के धडकने के विवरण इन मानिटरों से होकर सेंट्रल मानिटर में पहुंचते हैं.हरे रंग की लहरों जैसी लकीरें,हडबडी में भागते लोगों की भीड की तरह भाग रही थीं मानिटर पर.दिल के अंदर होनेवाली विद्युत कार्यों के नतीजों को दिखानेवाली हैं ये लकीरें.बीच बीच में होनेवाले छोटे छोटे परिवर्तन उस वक्त हो रहे खतरों या  आनेवाले खतरों के सूचक हैं.वैसे देखने में सभी लकीरें एक जैसी दिखती हैं,पर उनमें कई भिन्नताएं हैं.हर बार नई बीमारी का नाम सुनता हूं.लेकिन ज़्यादातर सुनाई देनेवाले नामों में से एक है,एक्टोपिक्स.

ये लोग ऐसा बर्ताव करते हैं जैसे एक्टोपिक्स होने से कुछ नहीं होता.कभी कभी इसका होना खतरा भी माना जा रहा है.यानी कभी यह खतरा पैदा कर सकता है तो कभी नहीं भी पैदा कर सकता है.पता नहीं, यह सब मेरी समझ में नहीं आ रहा है.मैं बहुत उलझ गया हूं!

पहली बार जब मैंने इस एक्टोपिक्स के बारे में सुना,तो उस डाक्टर के चेहरे पर परेशानी, पसीने की बूंदें,आवाज़ में कंपन...सुनाई दी.मेरा दिल भी धक धक करने लगा.मैं कोई इन्सान नहीं, बेजान घडी हूं!जब मेरा ही कलेजा मुंह को आने लगा हो तो फिर इन्सान...खासकर औरतें... कैसे बर्दाश्त करती होंगी?पहली बार सुनने पर जो डर पैदा होता है,वह बार बार तसल्ली दिए जाने के बावजूद कम से कम शक बनकर मन में  रह जाता है!

अच्छा अब मेरे इन लेक्चरों को बंद करके आइए उनकी बातें सुनें-

पंजाबी नर्स ने युवा डाक्टर के कंधे पर मारा.वह निरीह बनने का नाटक करके बोला,"तेरे लिए यह अच्छा नहीं होगा!"

"मतलब?"

"सोच लो!"

"मैं किसीकी परवाह नहीं करती,"लडकी ने कहा.उसकी बेपरवाही उसके खडे होने के अंदाज़ से ही पता चल रही थी,उसकी आंखों में दिखाई दे रही थी.उस निडरता का कारण अनुभव की कमी है, यह बात वह नहीं जानती थी.

पर आए दिन मैं देख रहा हूं कि निडर इन्सान कोई भी नहीं होता...अरे,फिर मैं बीच में बोलने लग गया!

इनकी बातचीत और बर्ताव न जाने कहां पहुंच जाता,पर इतने में अचानक दरवाज़ा खोलकर एक कन्सल्टेंट, यानी सीनियर डाक्टर अंदर आ गया.

युवक खडा हो गया,लडकी भी संभल गई.इन कन्सल्टेन्टों को देखने से आंधी याद आती है.ये ज़मीन पर खडे नहीं होते,दीवार से पीठ नहीं सटाते,दिन रात भागंभाग लगी रहती है.कम से कम बीमारों को दो मिनट जांचने की भी इनके पास फुरसत नहीं होती.श्रम के सिवा विश्राम को जैसे जानते ही नहीं.चौबीसों घंटे रोगी,प्रेक्टिस, के हिसाब किताब में सर खपाते रहते हैं.

उसने पूछा,"बीमारों का क्या हाल है?"

युवक ने तोते की तरह रट दिया.नर्स ने जो भी कहना था कह डाला."गुड लक!"कहकर कन्सल्टेंट चला गया.
समझ में नहीं आया वह गुड लक किसके लिए था और क्यों था!

पहले रोगी का नाम था मनमोहन कृष्ण.उम्र बत्तीस.एक दिन रात को दिल में ज़ोर से दर्द उठा.कहता है सिगरेट नहीं पीता.कभी कभार,पंद्रह दिन में एक बार पी ज़रूर लेता है.अच्छी नौकरी,सुंदर पत्नी,ज़रूरतों को पूरा करनॆ केलिए पर्याप्त सम्पत्ति इसके पास है.

वह अपनी पत्नी को दिन में कई कई बार कमरे में बुलाता है.बेचारी वह क्या कर सकती है?आने केलिए युवा डाक्टर की अनुमति चाहिए.और यह कह देता है कि बार बार अंदर नहीं जाने दिया जा सकता,सिर्फ शाम कॆ वक्त आ जाइए.कभी समझाता है तो कभी डांट देता है,और कभी बिनती करने लगता है.

उस दिन छाती का दर्द बहुत बढ गया.ई सी जी निकाला गया.कहा,’एक्स्टेन्सिव एंटीरियल इन्फार्क्शन"दिल के आगे की दीवार पूरी तरह गायब है.उसकी बीवी से कहा कि हम इसे बता नहीं पाएंगे इसलिए तुम रो भी नही सकोगी!

"डाक्टर! मेरी बीवी को मेरे पास ही रहने दीजिए!"कहते हुए मनमोहन छाती पर हाथ रख लेता था.सचमुच दर्द है या नहीं यह भी मेरी समझ में नही आ रहा था.

दूसरे मरीज़ का नाम मैं नहीं जानता.मतलब, याद नहीं रहा.उसकी कश्मीरी गेट के पास एक कपडे की दुकान है.यह भी युवावस्था में है.चालीस पैंतालीस का होगा.ई सी जी के बाद बताया गया कि’एक्स्टेन्सिव एन्टीरियल इन्फार्क्शन’है.

यह भी सिगरेट तक नहीं पीता.डयबेटिस या,बी पी की शिकायत नहीं.पिछली कुछ पीढियों में भी किसी में यह बीमारियां के लक्षण नहीं दिखाई दिए.

मनुष्य बहुत सारे दरवाज़े खोल चुका है.पर उसकी जानकारी सीमित है.जब उसे पता ही नहीं कि कुल कितने दरवाज़े हैं,तो क्या कर सकता है?

तीसरा मरीज़ बूढा है.सांस की बीमारी का इलाज कराने आया है.पर यह तो बताया ही नहीं कि छाती में दर्द है.ई सी जी निकालकर देखा तो’इन्फीरियल इन्फर्क्शन’है,यह मालूम हुआ.आम तौर पर लगाई जानेवाली सुई को वहां न पाकर,बाकी कमरों से अलग तरह का यह विभाग,नीले रंग की दीवारे,यह सब देखकर बूढा बहुत खुश हुआ.बुलाते ही डाक्टर और नर्स हाज़िर हो जाते हैं,यह देखकर उसे संतोष मिला.

जब युवा डाक्टर ने यह कहा कि दोस्तों और रिश्तेदारों को अंदर नहीं आने दिया जाएगा, तो बूढे ने इंतज़ामात की तारीफ की.

चौथे बेड पर एंजीना का एक मरीज़ है.थक जाने पर,या ऊंची आवाज़ में बोलने पर इसके सीने में दर्द उठता है.ये सिगरेट बहुत पीता है.रातभर जागना इसकी रोज़ की आदत है.शराब पीने में वक्त या हालत के नियम का पालन नहीं करता.यह बी पी का भी मरीज़ है.पर नमक से परहेज़ नहीं कर सकता.इस वजह से इसे छाती में दर्द की शिकायत रहती है.इस बार ई सी जी के नतीजों में कुछ खराबी नज़र आई तो अब्ज़र्वेशन के लिए अस्पताल में ही उसे रोक लिया गया.

पांचवें नंबर बेड पर फिलहाल कोई नहीं है.पहले एक लडकी थी.उसका दिल कभी महम्मद रफी के गीत की तरह,’आहिस्ता...आहिस्ता...’धडकता तो कभी ’चाहे कोई मुझे जंगली कहे...’ गीत की तरह भागने लगता.उस बीमारी को’सिक साइनस सिंड्रोम’नाम देकर उसे कुछ दिन अस्पताल में रखा.कई तरह के परीक्षण करने के बावजूद कुछ समझ में नहीं आया तो,’वाइरल मयोकार्डाइटिस’,कहकर कल ही उसे घर भेज दिया.

आइ सी सी यू में भर्ती किये गये हर मरीज़ के बारे में पांच खास बातें पहचानकर,लिखने को कहती है छोटी लेडी कन्सल्टेन्ट.उन बातों में से एक है,’पीता है कि नहीं.’अमेरीकी किताबों के सिवा अपने देश की किताबें छूकर भी न देखनेवाला युवा डाक्टर कहता है कि इस लेडी डाक्टर को कुछ भी नहीं मालूम."मतलब, हो सकता है मुझसे दो बातें ज़्यादा जानती हो.पर उसका छः साल का अनुभव है,उस हिसाब से तो वह कम ही जानती है.अब इस पीने की बात को ही लें,यहां साफ लिखा है कि आल्कहाल और मयोकार्डियल इन्फार्क्शन में कोई संबंध नहीं है,"पंजाबी नर्स के कंधे पर एक चपत लगाकर युवा डाक्टर ने कहा.फिर उसने मेज़ पर रखी,कार्डियो वास्क्युलर डयाग्नोसिस अंड थेरपी,नामक किताब खोली.

"देखो छोटी है,पर कितनी प्यारी है यह...तुम्हारी तरह!"

"क्या? क्या कहा?"

"तुम्हारी तरह प्यारी है!पर एक फर्क है,इस किताब को जब चाहे चूम सकता हूं.तुम्हारे साथ ऐसा नहीं कर सकता!"

नर्स खिलखिलाकर हंस पडी.उसके गाल लाल हो गए.उसकी आंखों में शर्म और उस युवक के प्रति प्यार का भाव चमक उठे.उसने धीरे से कहा,"क्यों?"

"हाय...ऐसे तो ना देखो...!"वह गुनगुनाया.

"क्या कह रहे हो?"

"कुछ नहीं.सोच रहा हूं काश यहां ये मरीज़ न होते और  सिर्फ तुम और हम होते..."

"डाक्टर!"बेड नंबर वन का मरीज़,मनमोहन कृष्ण ने आवाज़ दी.

"येस!"युवक ने जवाब दिया.

"आर यू बिज़ी?"

आदत के मुताबिक युवक के मुंह से निकला,"नो!"

"यहां आकर बैठिए ना?"उसने कहा.

"कोई बात नहीं वहीं से कहिए. मैं सुन रहा हूं,"कहकर युवक ने नर्स की ओर देखा.उसकी आंखें कह रही थीं,’इसकी कहानी आज खतम नहीं होगी और हमारी शुरू नहीं होगी.’नर्स ने लंबी सांस छोडी और साथ के कमरे में चली गई.

मनमोहन ने कहना शुरू किया...

"मैं जब कालेज में पढता था..."

युवा डाक्टर गुस्सा पीते हुए बीच में बोल पडा,"क्या कोर्स किया आपने?"

"बी.काम."

उसने आगे कहा कि कालेज में वह लडकियों को बहुत छेडता था."मेरी कई लडकियों के साथ दोस्ती थी.वैसे साफ साफ कहूं तो औरत की पवित्रता पर मुझे विश्वास नहीं था.जिन्हें मौका नहीं मिलता वे ही पवित्र बनी रहती हैं,ऐसा मेरा मानना है.पर मैं यह ज़रूर चाहता था कि मेरी पत्नी पवित्र लडकी हो.मैं जब स्कूटर पर उसके साथ जाता हूं तो कोई उसकी ओर बिना पलक झपकाए देखता है तो मेरा खून खौल उठता है!सुन रहे हैं ना डाक्टर? यही है मेरा स्वभाव..."वह कहता जा रहा था,इतने में कमरे के अंदर उसकी पत्नी आई.हरे रंग के कपडों में उसका गुलाबी बदन फूल जैसा खिला था.उसपर टिकी नज़रों और मनमोहन की बातों में उलझे युवक को होश में आने में कुछ समय लगा.

वह जाकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया.मेज़ पर पडी लाल रंग की किताब उठाई.उसमें दिल के मरीज़ों केलिए दी गई सलाहों का अनुच्छेद खोलकर पढने लगा.पहले पढी गई बातों में भी नयी दृष्टि ,नया कोण दिखाई देने लगा,यह देखकर वह आश्चर्य से भर गया.छोटी उम्र में जो लोग इन्फार्क्शन के शिकार हो जाते हैं,उनके लिए उसमें कुछ सालाहें दी गई थीं.वे बातें सेक्स और शृंगार से संबंधित थीं.लिखा था कि सेक्स से पूरी तरह परहेज़ ठीक नहीं होता.ऐसा करने से मन में चिंता बढती जायेगी और दिमाग पर उसका बुरा असर पड जाएगा.

तो फिर कमज़ोर दिल के मरीज़ उद्रेक से भरे काम करेंगे तो यह कहां तक ठीक होगा?इससे संबंधित बातें पढते हुए आराम से बैठकर सोचने लगा वह युवा डाक्टर.

"डाक्टर!"फिर मनमोहन ने बुलाया.

युवक उठकर उसके पास गया. इस बार उसके मन में मनमोहन की बातें सुनने की उत्सुकता थी.मनमोहन ने भी अपने मन की बातें,अपनी सारी शंकाएं साफ साफ युवक के सामने रख दीं.उसने कहा :

"मैं नहीं चाहता कि मेरी पत्नी मेरी इस नाज़ुक हालत की वजह से अपनी कमज़ोरियों का शिकार हो जाए.यह मैं बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगा.यही बात पल पल मुझे खाए जा रही है.इसीलिए मैं चाहता हूं कि मेरी पत्नी हमेशा मेरी आंखों के सामने रहे."

युवा डाक्टर औरतों के प्रति अपनी राय के बारे में नहीं सोच रहा था.वह दिखावा करने लगा.भारतीय स्त्रियां,उनकी पवित्रता,इंडियन ट्रेडिषन,उसका प्रभाव...(मनमोहन की पत्नी के प्रति अपने असली भाव...उसके स्लीवलेस ब्लाउज,लोनेक की तरफ खुद ब खुद दौडने वाली अपनी नज़रें...इन सब बातों को चुपाकर,) उसके प्रति गौरव भाव प्रकट करने लगा.उसने कहा,"चाहे कितने भी कदम आगे बढा दे,भारतीय महिला तो भारतीय महिला ही रहेगी."यह कहने के बाद उसके मन में भरतीय महिलाओं के मन का संकोचशील और डरपोक स्वभाव के प्रति सचमुच ममता उभरी.

उसके बाद उसने आसानी से समझ में आने वाली भाषा में यह बताया कि,मनमोहन सेक्स में बिल्कुल कमज़ोर नहीं है. यकीन न हो तो लाल किताब एक बार पढने को कहा.एक दो वाक्य पढकर भी सुनाये.

*                                    *                                 *                                    *

एक दो दिन बाद मनमोहन को वार्ड में शिफ्ट किया गया.युवा डाक्टर सबको बताता फिरता था कि कभी कभी उसकी पत्नी लिफ्ट के पास दिखाई दे गई,या केंटीन में बैठी मिली.फिर उसने उन लोगों का ज़िक्र करना ही छोड दिया.शायद वे अपने घर चले गए.

*                                     *                                 *                                    *

दूसरे मरीज़ को एक्स्टेन्सिव एंटीरियर इन्फार्क्शन था,जिसका कारण साफ समझ में नहीं आ रहा था.इसकी वजह से मैं जान पाया कि एक्टोपिक्स कितनी भयानक चीज़ होती है. कई तरह के एक्टोपिक्स जल्दी जल्दी इसके बदन में आकर बस गए.दो दिन ड्रिप लगाया गया.दवाइयां दी गईं.यह सब करने के बावजूद वह ठीक नहीं हुआ तो डाक्टर सिर पकडकर बैठ गए.इसके घर वालों ने इसे हर तरह के छोटे बडे डाक्टर को...नामी और अनामी वैद्यों को दिखाया.उनका क्या है,आए,देखा और अपनी फीस लेकर खुशी खुशी चले गए.एक ने कोई दवाई लिखकर दी और दूसरे ने उसे लेने से मना कर दिया.अंत में मरीज़ को वे ही दवाइयां दी गईं,जो युवा डाक्टर और नर्स के पास थीं.

एक स्पेशलिस्ट डाक्टर ने कहा,"पेसिंग केलिए यह आइडियल केस है!"

दूसरे ने कहा,"पेसिंग बेकार है."

एक दिन सुबह एक्टोपिक्स ने पूरी तरह फैलकर भयानक रूप ले लिया.इसी को वी.एफ. कहते हैं."वी एफ ...वी एफ..."चिल्लाकर,डीफिब्रिलेटर से मरीज़ को बिजली का झटका दिया युवा डाक्टर ने.बंद दिल की धडकन फिर से काम कर सकती है, यह मैंने पहली बार देखा.

धीरे धीरे मरीज़ ठीक होने लगा.दिन बीतते गए.

*                         *                              *                                           *

सुना है इलस्ट्रेटेड वीकली वालों ने दिल की बीमारियों और खून की नलियों से संबंधित आपरेशनों के बारे में एक विशेषांक प्रकाशित किया.उसके निकलने के हफ्ते दस दिन बाद दिल्ली और बंबई में दिल के मरीज़ बडी संख्या में डाक्टरों के पास जाने लग गए.इसी के बारे में गेट के पास खडे दो कन्सल्टेंट बात कर रहे थे.बात करके वे दोनों बाहर चले गए.युवा डाक्टर और पंजाबी नर्स मेज़ के पास बैठकर खानों में +,०,भरने वाला खेल खेल रहे थे.उनकी उस दिन की ड्यूटी खतम हो चुकी थी.

"मैं जीत गया तो तुम मुझे टाफी से भी बडी टाफी दोगी,और तुम जीती तो मैं दूंगा!"युवा डाक्टर ने कहा.

"क्या मतलब?"

"नहीं जानती?!"शरारती मुस्कान के साथ डाक्टर ने कहा.

"नहीं!"

"स्वीट स्वीट के...ओके?"उस लडकी की समझ में कुछ कुछ आया.तो कहा,"नो!"

"तो फिर मैं नहीं खेलता,जाओ!"

"चलो आरेंज जूस को दांव पर लगाते हैं.टाफी नहीं."

नहीं...टाफी..!"

नर्स ने हंसकर कहा,"ठीक है,टाफी ही सही."

दोनों खेलने लगे.

उस दिन तीन खास बातें हुईं.

एक - तीसरा मरीज़,बूढा,सुबह डिस्चार्ज होकर चला गया.

दो - दोपहर को आइ सी सी यू में जब कोई तीसरा नहीं था,दूसरे नम्बर  बेड के मरीज़ ने अपनी पत्नी को चूम लिया.पर युवा डाक्तर ने देख लिया और पत्नी को डांट भी दिया.

मरीज़ ने आवेग और उद्रेक के कारण ऐसा किया था या प्यार और मुहब्बत के कारण मैं नहीं जान सका.

पंद्रह मिनट के बाद फिर वी.एफ वी. एफ. चिल्लाया गया.फिर वह सारी प्रक्रिया की गई...पर इस बार कोई फायदा नहीं हुआ. बात नहीं बनी.

दूसरे नंबर का मरीज़ नहीं रहा.

क्या सचमुच भावोद्रेक के कारण ही ऐसा हुआ था?!

इस तरह आइ सी सी यू में किसी के न होने की वजह से युवा डाक्टर और पंजाबी नर्स का खेल ज़ोरों पर था.

अचानक तीसरी खास बात हो गई.

शाम को साढे सात बजे,जब युवा डाक्टर की ड्यूटी खत्म होने को आई,मनमोहन कृष्ण फिर छाती में तेज़ दर्द के कारण वापस आया.उसे अडमिट करना पडा.

ई सी जी में हुए परिवर्तन दोबारा सामान्य स्थिति में पहुंचने से पहले ऐसा दर्द उठा है,इसलिए हम नहीं कह सकते कि यह सचमुच हार्ट अट्टेक है या नहीं,"छोटी लेडी डाक्टर ने कहा.थोडा रुककर फिर कहा, "इसे कुछ नहीं हुआ.फौरन डिस्टिल् वाटर का इंजक्शन दे दो,"

"उसके सीने पर ’पेरिकार्डिअयल रब’ साफ सुनाई दे रहा है,और वह दिल की बीमारी का सूचक है."कन्सल्टेंट ने कहा.

खेल और आरेंज जूस के नशे में डूबे युवा डाक्टर का सिर चकरा गया.समझ में नहीं आया कि लाल किताब से उसने जो वाक्य पढकर सुनाए वह कहां तक काम आए.

अगर मनमोहन को दिल की बीमारी न होने की बात सच है तो...फिर यह सारी गडबड इस बंद माहौल में रहने की वजह से ही हुई थी?

इतने आधुनिक ढंग से, बडे ध्यान से मरीज़ों की सुरक्षा का प्रबंध किए जाने के बावजूद,इस आइ सी सी यू का प्रयोजन बस,इतना ही रह जाता है?

तीसरा मरीज़,इसी माहौल में,इन नीली दीवारों के बीच आराम पाकर,ठीक होकर घर चला गया था ना?यह सब इस प्रबंध के कारण नहीं हुआ?आज सुबह ही मैं आइ सी सी यू का कमाल देखकर खुश हो रहा था ना?

पढी हुई बातें,जिनपर यकीन किया था,जिन बातों को बडे बडे डाक्टरों ने बताया,वे सब बातें मरीज़ों को पढकर सुनाया और उनपर यकीन करके मात खा बैठा.

अब मुझे क्या करना चाहिए?

लोगों को क्या संदेश दूं? उसका मन उलझन में पड गया.

जब खुद इतने सारे सम्देहों से दिमाग भर गया हो तो दूसरों को क्या संदेश दे सकूंगा? खुद को पानी की बूंद से भी छोटा महसूस करके युवा डाक्टर  पंजाबी नर्स से आरेंज जूस या टाफी मांगना भूल गया.


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मूल तॆलुगु कहानी :डा.श्याम

अनुवाद :आर्.शांता सुंदरी




Tuesday, May 24, 2011


गिद्ध
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"आज भी पानी नहीं आएगा.इन खेतों में फसल नहीं होगी!"तालाब के किनारे इमली के पेड पर बैठा तोता बोला.

"अरे, यह कैसी गलत भविष्यवाणी कर रहे हो भाई?रात देर तक मुन्नॊरु के किसान संघ की दीवार पर बैठा रहा.उन लोगों ने कहा था कि पौ फटने से पहले तालाब पानी से भर जाएगा.सुना है पसा भी लिया था इसके लिए!"पास ही बैठे मैना ने कहा.

"असली मामला तो वही है.इंजीनियर को मालूम हो गया कि गांव में एकड के हिसाब से पैसा वसूल किया गया था.एक बूंद पानी भी देने केलिए वह राज़ी नहीं है...अड गया है."

"लगता है बेचारा सतजुग का आदमी है.क्या पैसे वसूल करने की बात सुनकर उसे बुरा लगा?"

"बुरा तो मान गया वह, पर इस बात से नहीं बल्कि इसलिए कि उसका हिस्सा उसे क्यों नहीं मिला!"

"यह कैसा अत्याचारी है भाई? लोग बडी तकलीफ में हैं.कर्ज़ लेकर बुवाई कर चुके हैं और पानी के इंतज़ार में आंखें बिछाये बैठे हैं और यह महाशय अपने हिस्से की मांग कर रहा है? तो फिर उसका हिस्सा उसके मुंह पर क्यों नहीं दे मारा?

"कैसे देते?सूपरवैज़र का बेटा तो इंटर में फेल हो गया ना?"

"उसके फेल होने का इंजीनियर के हिस्से से क्या संबंध है?"मैना ने पूछा

"तू तो निरा बुद्धू है रे!इंटर फेल होने पर सूपरवैज़र ने बेटे को बहुत डांटा.और वह पैसा लेकर भाग गया!"

"तो वह पैसा किसानों से वसूल करना चाहता था वह?"

"अरे नहीं ,यार! वह तो किसानों का ही पैसा था. उसने कहा, इसमे से सबको हिस्सा मिलेगा.अगले दिन यह किस्सा हुआ.अब वह अपनी असहायता प्रकट कर रहा है.तब बेचारे किसान ही क्या कर सकते हैं बोलो?"

"करना क्या है? सब जाकर सूपरवैज़र के घर के सामने धरने पर बैठ जाएं.अखबार में इसकी खबर छपेगी तो अपनेआप बंदा मान जाएगा."

वहां बैठने से क्या होगा? यहां इसके घर के सामने बैठो तो पता चले.इसीलिए किसीको कुछ भी नहीं बताता है वह.कल परसों कहकर टालता जा रहा है.पानी केलिए रोज़ चक्कर काटने वाले सज्जन सुबह के गए रात को लौट रहे हैं...वह भी खाली हाथ.पर वे भी क्या कर सकते हैं बेचारों ने तो सबकुछ करके  देख लिया है !"

"अरे सबकुछ करनेवाले तो किसान थे!हमने कितना मना किया था कि तालाब में पानी नहीं हैफिर भी धान की फसल बो दी!बडों की बात मानकर ऐसी फसल डालते जिन्हें ज़्यादा पानी की ज़रूरत नहीं होती.वैसे भी इन्हें कोई क्यों नहीं कहता कि रिश्वत मांगने वाले को जूता मारे?"

"सुना है लिंगरावु ने सलाह दी कि ऐसे लोगों से दूर ही रहो!तमाचा खाकर भी ऐसी सलाह् देता है कंबख्त!"

"तुम तो बडे भोले हो जी? वह ऐसी ही सलाह देगा ना?काशय्य का खेत नाले के नीचे ही है ना,इसीलिए ऐसी सलाह दी उसने."

"ऐसा क्यों?" अब भी मैना की समझ में बात नहीं आई.तब तोता मैना के बिल्कुल पास आकर बैठ गया और उसे बांहों में लेकर बोला,"ऐसा ही होता है जी!तालाब में पानी आए इससे पहले काशय्या के खेत में नाले का पानी पहुंच जाता है.पांच एकड में है फसल.पानी बहेगा तो खूब फसल होगी!"

"तो?"मैना ने भोलेपन से पूछा.

"लिंगरावु को तमाचा मरा था शंकर ने.शंकर और काशय्या ने मिलकर खेती की है.फसल अच्छी होगी तो दोनों मज़ा करेंगे.तो फिर लिंगरावु को गुस्सा आएगा ना?"

"अरे बद्माश!ऐसी सलाह देता है जिससे दूसरे का नुकसान हो?उसे तो कभी न कभी इसकी सज़ा ज़रूर मिलेगी.वेंकट को देखा कितना दुःखी है?उसका दुःख देखकर मुझे भी रोना आ गया!पर इतना क्यों रो रहा है वह?"

"नहीं तो क्या करेगा?उधार के पैसे लेकर सबसे पहले पांच एलड ज़मीन में बीज बो दिए."

"तो खेत सूख जाने से रो रहा है क्या बेचारा?"

"हां सूख तो गया है खेत.पर वह इसलिए नहीं रो रहा है.सब कह रहे हैं कि अब तालाब में पानी आने लगा है."

"पर यह तो खुशी की बात है ना? इसमे दुःखी होने की क्या ज़रूरत है?"

"उसका पूरा खेत सूख चुका है,तो ऐसे में दूसरों के खेतों में फसल क्यों उगेयही सोचकर दुःखी है!"

"कम्बख्त! सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे निकले!इसीलिए ये कभी सुखी नहीं रह सकते.सब मिलकर चलें तो कोई काम हो सकता है.है ना?"मैना ने प्यार से तोते की गर्दन को अपनी चोंच से सहलाते हुए कहा.

पौ फटने लगी है.काला आसमान सूरज के इर्दगिर्द अंगडाई लेते हुए उठने लगा.अंधेरे की ज़ुल्फों से झरते फूलों जैसे लग रहे थे पंछी.

"हां सच कहा तुमने.पर एक बात है,जितनी जल्दी बुराई फैलती है,भलाई नहीं फैलती.सबको मिलकर चलने के लिए कहने वाले नामपल्ली तो समझो गया काम से!"

"क्यों ,नामपल्ली को क्या हुआ?"

"अभी हुआ नहीं,होगा!सब लोग उसपर हमला करेंगे.खेत के पानी की बात उठाएंगे."

"मुझे नादान समझकर झूट बोल रहे हो ना?"मैना ने तोते से कहा,"तालाब में पानी लाने का वादा करनेवालों से नामपल्ली का कोई लेना देना नहीं? फिर उसपर क्यों हमला करेंगे?"

"लेना देना नहीं है इसीलिए.छः महीने पहले गांव में क्या हुआ था, याद है ना?"

"याद क्यों नहीं है?गांव में फाइनान्स खोलने की कोशिश का नामपल्ली ने विरोध किया और उसे रोक दिया था.पहले भी दो रुपये ब्याज्पर लोग उधार देते रहे.और जल्दी वापस भी नहीं मांगते थे.चुकाते वक्त पांच दस रुपये कम भर दिए तो भी चलता था.फाइनान्स खुलेगा तो कागज़ पत्र सबका खर्च बढेगा.ब्याज भी बढेगा.फिर उस ब्याज पर भी ब्याज वसूल करेंगे वे.तो उसे रोककर नामपल्ली ने अच्छा ही किया..."

"हां, अच्छा काम था इसीलिए याद रखा उन लोगों ने.किसी को तो ज़िम्मेदार ठहराना है, तो पुरानी दुश्मनी नामपल्ली पर निकाल रहे हैं.राजनीति के माने यही है,समझे?"

"यह तो सरासर नाइन्साफी है!भोले भालों को शिकार बनाएंगे?पर किसान भी अंधे नहीं हैं.सच झ्हूठ का फर्क नहीं जानते? कोई कुछ भी कह देगा तो यकीन कर लेंगे?"

"यकीन नहीं करेंगे तो क्या करेंगे?अगर यकीन न हो तो भी नाटक करेंगे कि यही सच है!मुंह नहीं खोलेंगे.क्यों कि गांव में बसएं आती जाती नहीं हैं ना?"

"अब बसों का यकीन से क्या संबंध है?"

"बहुत है,गाहालीस फुट सडक की आवश्यकता पर उसने सवाल उठाया.अधा गांव उससे नाराज़ है.अभी से यह बात फैलाने लगे हैं कि गांव के विकास में वह टांग अडा रहा है.लोग तो भेड  बकरे हैं...सिर हिलाते रहते हैं.फिर सूपरवैज़र भी तो उन्हीम्के पक्ष में हैं.!एक ही वार में दो चिडियां खतम!"

"दो चिडियां? कौन हैं वे दो?"

"तुम्हें सबकुछ बताना पडेगा क्या?क्या आज ही अमेरिका या सिंगापूर से आई हो?"

"अच्छा सिंगापूर के नाम से याद आया.सैदिरेड्डी की बात कर रहे हो ,क्यों?बेचारा किसीके भी मुंह नहीं लगता था.अपने काम से मतलब रखनेवाला और कमर तोड मेहनत करनेवाला सैदिरेड्डी.उसका ये लोग क्या बिगाडेंगे?"

"सबकुछ बेच बाचने केलिए मजबूर कर देंगे.उसपर मुकद्दमे चलाकार गांव गांव घुमाएंगे.आखिर भिकमंगा बन जाए उसकी ऐसी हालत कर देंगे! उसका तो गांव में नाम है ना? कैसे बर्दाश्त कर सकेंगे?"

"पर वे ऐसा क्यों करेंगे?मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है!"

"देखो,फाइनान्स के जो अधिकारी हैं वे ही सडकों के कांट्राक्टर भी हैं.वे ही पानी का मामला देखनेवाले अधिकारी भी  हैं.उनमें से दो सैदिरेड्डी के पक्ष में हैं.सैदिरेद्देए ने मोती पूंजी लगाकर तालाब के नीचले ज़मीन में दस एकड में ब्
फसल बोई है.अब वह खूब लहलहा रही है ना, इसलिए."

"यह तो गलत बात है.ऐसा नहीं होना चाहिए!"

"हां,गलत तो है ही. कल पहले सैदिरेड्डी नामपल्ली को पीटेगा.क्या वह गलत नहीं होगा?और सैदिरेड्डी को शराब पिलाकर उकसाना उससे भी बडी गलती होगी,है ना?और नामपल्ली भी चुप नहीं रहेगा...हाथापाई होगी...एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाएंगे दोनों.दोनों के सर फूटेंगे.गांव दो वार्गों में बंट जाएगा...क्या ये सब गलत काम नहीं?इतना सब होने के बाद भी दोनों न्याय मांगने गांव के बडों के पास ही जाएंगे!फैसला सुनाने का नाटक कर वे इन्हें पुलिस के हवाले कर देंगे.वह भी गलत होगा.पर बडों की सोच यही है कि एक वार में दोनों को खतम किया जाए.इस झगडे से एक और फायदा भी है.पानी की समस्या पीछे रह जाएगी और यही सबसे बडी समस्या बन जाएगी.बस यही होनेवाला है,देख लेना!"

"हां हां भविष्य बताना तो तेरा काम ही है!फिरभी इससे इन लोगों को क्या फायदा होगा?"

"फायदा नुक्सान की बात छोडो.अभी चुनाव होनेवाले हैं...इसलिए."

"चुनाव होंगे तो क्या?"

नामपल्ली पुराने सरपंच का आदमी है.पुराना सरपंच लोगों की भलाई चाहनेवाला है.वह जीत जएगा...फिर उसपर कीचड उछाले बिना कैसे रह सकतेहैं ये?"

"अच्छा ये पासे फेंककर इंतज़ार करेंगे और जो कुछ होना है अपने आप होता रहेगा?ईमांदारॆ से पानी लाकर गांव के लोगों की मदद करनेवाला नेता कोई नहीं रहेगा?गांव के गांव मरघट बनते जाएंगे तो भी कोई चूं तक नहीं करेगा!पर यह तो बताओ कि गांव में पानी कब आएगा? आयेगा भी या नहीं?"

"आयेगा क्यों नहीं?आयेगा...ज़रूर आएगा.पर तब जब लोगों के आंसू सूख चुके होंगे.सारे खेत सूख गए होंगे!"

"तब आने से क्या होगा?"

"तबतक अधिकारी चेतेंगे नहीं.वह तो उनकी आदत है!एमएलए को या एम पी को यह बता देंगे कि फलां गांव को पानी दे दिया है और फिर उनकी ज़िम्मेदारी खतं समझो."

धूप तेज़ हो गई थी.तोते ने चारों ओर नज़र दौडाई.दूर गिद्ध बैठे दिखाई दिए.निढाल होकर पडे बैल को नोचकर खाने के इंतज़ार करतए आसमान में चक्कर काट रहे थे.

घबराकर तोता और मैना पेड की शाखों में छुप गए.

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मूल तेलुगु कहानी : पेद्दिंटि अशोक कुमार

अनुवाद : आर. शांता सुंदरी.

Saturday, May 21, 2011


अ...

अक्षर मेरा अस्तित्व की रचनाकार डॉ.सी.भवानी देवी प्रमुख समकालीन तेलुगु कवयित्री हैं। उन्होंने समय और समाज के प्रति जागरूक शब्दकर्मी के रूप में अपनी पहचान बनाई हैं। विषय वैविध्य से लेकर शिल्प वैचित्र्य तक पर उनकी गहरी पकड़ ने उन्हें बड़ा रचनाकार बनाया है। 

मनुष्य के रूप में एक स्त्री के अस्तित्व की चिंता डॉ.भवानी के रचनाधर्म की पहली चिंता है। भारत की आम स्त्री उनकी कविता में अपनी तमाम पीड़ा और जिजीविषा के साथ उपस्थित है। इस स्त्री को तरह तरह के भेदभाव और अपमान का शिकार होना पड़ता है, फिर भी यह तलवार की धार पर चलती जाती है, मुस्कुराहटों के झड़ने पर भी अक्षर बनकर उठती है और प्रवाह के विपरीत तैरने का जीवट दिखाती है। माँ इसके लिए दोहरी संवेदनाओं का आधार है - जूझने के संस्कार का भी और आत्मसमर्पण करके पहचान खो देने के संस्कार का भी। इस द्वन्द्वात्मक संबंध में कवयित्री स्वतंत्र अस्तित्व के पक्ष को चुनती है - "पर माँ! / अब मैं अक्षर बन उठ रही हूँ / यह प्रवाह मुझे अच्छा नहीं लगता /  इसलिए मैं विपरीत दिशा में तैर रही हूँ / तुम्हारी पीढ़ी हैरान रह जाए / इस अंदाज से / अपनी पीढ़ी में सिर उठा रही हूँ / अब आगे / अक्षर ही मेरा अस्तित्व होगा!" 

डॉ.भवानी देवी की स्त्री अतीत को एक पूजाघर मानती है जिसमें थोड़ी देर ठहरना तो ठीक है पर हमेशा के लिए बसना नहीं। यह स्त्री निरंतर उछलते जल प्रपात की तरह यात्रा में है - इस बोध के साथ कि ‘जीवन तो लहर नहीं / कि दोबारा पीछे की ओर बह जाए। इस स्त्री को यह भी बोध है कि अस्मिता की बात करने पर, अक्षर अस्तित्व की चर्चा करने पर पुरुष समाज उसके स्त्रीत्व तक को कटघरे में खड़ा कर देगा, लेकिन वह पिंजड़ों को गले लगाने के पागलपन को दुहराने के लिए तैयार नहीं है। घर गृहस्थी में जब घरवाली के हिस्से में सिर्फ टूटा फूटा प्यार और उपचार के नाम पर उपहास ही आता है तो वह इस बेगार से छुटकारे के लिए आवाज लगाती ही है - 
"तरंग बनूँ तट को पार करूँ...
पतंग बनूँ आकाश के  अंतिम छोर तक उडूँ...
हिम बनूँ जी भर बहने लगूँ...
पेड़ की जड़ बनूँ कोपलों को सीने से लगा लूँ...
प्रातः बनूँ आराम से बाग़ में घूमूँ फिरूँ...
मानवी बनूँ
प्यूपा को तोड़कर 
तितली बनकर हवा के संग-संग उड़ जाऊँ...।"

इसके अलावा कवयित्री भूमंडलीकरण के नाम पर उभर रही एकजैसेपन से ग्रस्त संवेदनहीन ठंडी दुनिया को देखकर मनुष्‍यता के भविष्य के बारे में बेहद चिंतित हैं। घर हो या बाहर, आज का मनुष्य सर्वत्र एक ऊष्म आत्मीय स्पर्श के लिए तरस रहा है। संबंधशून्यता और असंपृक्ति की यह  बीमारी शहरों से चलकर अब गाँवों तक पहुँच गई है जिस पिशाच ने सारे शहरों को निगला है वह अब हमारे गाँवों पर भी टूट पड़ा है। अब खेतो में फसल नहीं नोटों की गड्डियाँ उगाई जाने लगी हैं। परिवार टूट रहे हैं; बाजार फैल रहे हैं। बाजार के इस दैत्य ने घर की बोली को चबा लिया है और पराई भाषा अपनों को पराया करके भारत को अमेरिका की ओर उन्मुख कर रही है। लेकिन इसी समय का सच यह भी है कि बाजार के साम्राज्य  के बरक्स छोटी छोटी स्थानीय संवेदनाएँ अंधेरे के विस्तार के समक्ष दिये की तरह सिर तानकर खड़ी हैं। वर्तमान समय में कविता की सबसे बड़ी प्रासंगिकता स्थानीयता की इस संवेदना को बनाए रखने में ही निहित है - "आज गाँव है / एक उजड़ा मंदिर / फिर भी मेरे पैर उसी ओर खींच ले जाते हैं मुझे / भले ही मंदिर उजड़ गया हो / वहाँ एक छोटा-दीया जलाने की इच्छा है।"

कवयित्री धरती पर फैलते रेगिस्तान और दिलों में फैलती अमानुषता के प्रति बेहद चिंतित हैं। वे जानती हैं कि सृजन के लिए कोमलता चाहिए होती है, द्रवणशीलता की दरकार होती है। शिशिर वन जैसे सूखे दिलों में आग के तूफान उठते रहेंगे तो भला हरियाली के अंकुर कहाँ से फूटेंगे? अगर यही हाल रहा तो ‘पिघलने वाले मनुष्य का नामोनिशान भी नहीं रहेगा! अगर ऐसा हुआ तो दुनिया को बेहतर बनाने के सपने अकारथ  हो जाएँगे: लेकिन मनुष्यविद्ध कविता के रहते यह संभव नहीं.   

डॉ.सी.भवानी देवी की काव्यभाषा अपनी बिंबधर्मिता और विशिष्‍ट सादृश्‍यविधान के कारण मुझे खास तौर पर आकर्षित करती है। आवाजों के बीच जमने वाले शून्य  की तरह हाथ मिलाने में, सारे दृश्‍य़ बर्फ के टुकड़ों की तरह टूटते गिरते रहते हैं, मन को घेरने वाली धुंध जैसे मौन को छोड़कर, मौन हजारों लाखों शब्दों को बर्फ की तरह घनीभूत कर देता है, एक एक पन्ने में से उठतीं चमेली के फूलों की ज्वालाएँ, युद्ध के बड़े बड़े दाँतों के बीच फँसकर कटनेवाले बचपन, रीढ़ की हड्डी बनता हुआ तकिया, नाभिनाल के कटते ही पगहे से बाँध दी गई लड़की, बिना साए का इंसान, दोनों हाथ ऊपर उठाकर बुलाती स्त्री, पीछे रस्सी से बँधे हाथों वाली स्त्री, पिंजरे में बँधी पंछी की तरह नरक भोगती स्त्री, मकबरे  को तोड़कर निकलने वाली पुकार जैसी तलवार से बुरके को सिर से पाँव तक काटती हुई स्त्री, चिकने पहाड़ पर चढ़ती, फिसलती और फिर फिर चढ़ती हुई स्त्री, चारों ओर समुद्र ही समुद्र होते हुए प्यास बुझाने को एक बूँद पानी के लिए तरसना, दोस्त के इंतजार में आँखें बिछाए बैठा घोंसला, मेरा बचपन किताबों में मोर पंख सा छिपा हुआ है, उस घर की ईंट ईंट पर मेरे नन्हे हाथों की छापें अब भी गीली दिखती हैं - ये सारे शब्दचित्र कवयित्री की गहन संवेदनशीलता और सटीक अभिव्यक्‍ति क्षमता के जीवंत साक्ष्य हैं।

चाहे सुनामी हो या तसलीमा नसरीन पर हमला, कुंभकोणम के स्कूल में अग्निकांड में बच्चों की मृत्यु हो या 25 अगस्त 2007 को लुंबिनी पार्क और गोकुल चाट भंडार में आतंकवादी बम विस्फोट की घटनाएँ - हर छोटी बड़ी चीज़  कवयित्री डॉ.सी.भवानी देवी के मन मस्तिष्क के तारों को झनझना देती है। धर्म, भाषा, जाति, राजनीति और न जाने कितनी तरह के आतंकवाद और युद्धों को झेलती हुई  मनुष्यता का आक्रोश भवानी देवी के शब्दों में ढल कर  श्‍लोकत्व प्राप्त करता है - 
"हे धर्म...
अब तुझे ख़त्म करके ही
हम जीवन पाएँगे!
तुझे सिंहासन पर चढ़ाते रहेंगे जब तक
तब तक 
मैं आँसुओं से भरी घटा ही बनी रहूँगी
तेरे पैरों तले कबूतरी-सी कुचलती रहूँगी!"

श्रीमती आर.शांता सुंदरी ने डॉ.सी.भवानी देवी की इन कविताओं को अत्यंत सहज और प्रवाहपूर्ण अनूदित पाठ के रूप में प्रस्तुत किया है। अक्षर मेरा अस्तित्वमें संकलित यह अनुवाद हिंदी भाषा की प्रकृति और हिंदी कविता के मुहावरे में इस तरह ढला हुआ है कि अनुवाद जैसा लगता ही नहीं। वस्तुतः आर.शांता सुंदरी के पास स्रोत भाषा तेलुगु और लक्ष्य भाषा हिंदी दोनों ही के साहित्य और समाज का इतना आत्मीय अनुभव है कि अनुवाद उनके लिए अनुसृजन बन जाता है। इस कृति के माध्यम से उन्होंने तेलुगु की एक प्रमुख कवयित्री की प्रतिनिधि रचनाओं से हिंदी जगत का परिचय कराकर सही अर्थों में भारतीय साहित्य की अवधारणा को समृद्ध किया है। 

हिंदी जगत में अक्षर मेरा अस्तित्व को स्नेह और सम्मान मिलेगा, ऐसा मेरा दृढ़ विश्‍वास है।

- ऋषभदेव शर्मा
21 मई, 2011


Friday, May 6, 2011


ईश्वर की फिर मृत्यु हो गई
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मैंने प्यार किया था
एक सत्य शिव सौंदर्य को
तीन वसंतों के बाद वह मेरी पत्नी बनी-प्यार मर गया

सत्रह हेमंत और दस हज़ार सलीबें ढोकर
गढा था हिमालय एक हिमकण से मैंने
वह एक सूअर की औलाद के साथ भाग गई-प्यार मर  गया

तीस शिशिरों से अग्नि और अश्रु  मिलाकर  पिला रहा हूं दूध शब्द को
मेरा प्रिय पाठक शब्द की हत्या कर पब में या पर्स में छुप गया ,सेल में फंस गया-प्यार मर गया

पच्चीस ग्रीष्म ऋतुओं से रंगमंच के रणक्षेत्र में
करा रहा हूं खड्ग चालन
लाशों को सुंघा रहा हूं
कोमल मकरध्वज खिला रहा हूं अपने सहृदय दर्शक को
वह रंगमंच पर पेशाब करके
एक छोटी फिल्मी अभिनेत्री के साथ भाग गया-प्यार मर गया

चालीस शरदऋतुएं भट्टी में बैठकर मुखौटे पिघलाकर दोस्ती निभाई
उन्हें फिर से मुझे पहनाने की कोशिश की उन लोगों ने-प्यार मर गया

साठ बरसातें बेकार ज़िंदगी गुज़ार दी मैंने
हमेशा समूह में जीता रहा गलत किया मैंने
माफ कर दो भाई
कोई तो आओ भाई
एक हाथ का सहारा दो भाई
ऊपर उठाओ भाई
दिन ढल रहा है,अंधेरा घिर रहा है,रास्ता नहीं दिखेगा
श्मशान का फाटक बंद हो जाएगा-प्यार मर गया!

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मूल तेलुगु कविता : देंचनाल श्रीनिवास

अनुवाद : आर. शांता सुंदरी

समय का खेल
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बांझ हूं
पिता नहीं हूं
प्रेम की कोंपलों के पैर
सृजन कलियों के हाथ
न छू सकने वाला अभागा लोह-देह हूं
हृदय सीपीयू रहित सिर्फ खोखला वीडीयू का डिब्बा हूं
जहां
इन्सान नहीं पैदा हो
इन्सान न चलता हो
इन्सान न जीवित रहता हो न ही मरता हो
ऐसी मानव-भूमि हूं
हज़ारों रंगों से भरे कागज़ पर
बहुत सुंदर पोटली में बंधे  अनावश्यक मैल को
अत्यावश्यक सोना कहकर प्रचार करनेवाला हूं
इस भूगोल पर
मूर्ख, शून्य दिमागों वाले कुत्ते जैसे
अधमतम शीलरहित सौदागरों के साथ पाणिग्रहण कर
सृजन संसार के मेधावियों की तीसरी आंख के टुकडे टुकडे करनेवाला हूं मैं
मैंने ही सभी दार्शनिकों को अपने सर काटने पर मजबूर किया था
सारे सैद्धांतिकों को सजीव समाधि में भेजनेवाला भी मैं ही
आंदोलनकारियों को सूली पर चढानेवाला
भविष्य के नेता को गर्भ में ही खतम करनेवाला भी मैं हूं
रुपयों के मर्मांग के सिवा,निर्लज्ज इंद्रिय सुख के सिवा कुछ भी नहीं समझता
बिना सोच के,बिना आशा के भक्ति,श्रद्धा नीति और राजनीति को खतम करनेवाला

मैं हूं   मैं ही हूं  हां मैं हूं

मेरे प्यारे भेड बकरियो
आपको  मेरे साथ चरम आनंदप्राप्ति से पहले
धोती और साडी उठाकर ऊपर-
त्रिकाल प्रवक्ताओ हमें बचालो...कहकर
समस्त देवतागणो कोई तो फिर से जनम लेकर मार डालो इसे...कहकर
रोओ...चिल्लाओ...यही आखरी मौका है!

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अनुवाद : आर. शांता सुंदरी