Sunday, April 24, 2011


साफ और हराभरा
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                                                                                            अनुवाद :आर.शांता सुंदरी



चट्टान पर बैठा खांड्या दुःख में पूरी तरह डूबा था.उसकी जान से भी ज़्यादा प्यारी गाय सुबह से चारे को मुंह तक नहीं लगा रही थी.जब पिता ने उसे बताया कि वह एक दो दिन से ज़्यादा ज़िंदा नहीं रहेगी तब से वह रोता जा रहा था. फिर वह उठा और गाय के पास गया.वह चारे से मुंह मोडे कहीं और देख रही थी.वह पास पहुंचा तो भी हमेशा की तरह वह खुशी से उछली नहीं.खांड्या ने प्यार से उसके शरीर पर हाथ फेरा.तब भी उसने उसकी ओर नहीं देखा.

असल में खांड्या और उस गाय के बीच का रिश्ता खून के रिश्ते से कम नहीं था.दोनों का जन्म भी एक ही समय हुआ था.गाय का नाम सीता रखा गया था.सब मज़ाक करते थे कि खांड्या की वह बहन हो गई.उसे भी बचपन से ही सीता से बहुत प्यार रहा. ढूंढ ढूंढकर उसके लिए हरी हरी दूब लाता और खुद अपने हाथों से खिलाता था.वह बीमार हो जाती तो उसे लगता जैसे वह खुद बीमार पड गया हो!जानवर और इन्सान के बीच का संबंध,किसान और फसल के बीच के संबंध जैसा ही होता है.उसका सिर्फ अनुभव किया जा सकता है,बताना मुश्किल है.

मां ने आकर पूछा, "क्यों बेटा,खाना नहीं खाना है?"

"ना, मुझे भूख नहीं है!"उसने जवाब दिया.

"ऐसे कैसे चलेगा बेटा? उसके साथ तू भी मर जाएगा क्या?" मां झुंझला उठी.

वह चुप रहा,पर अगले पल ज़ोर ज़ोर से रोने लग गया.

"चुप हो जा बेटा! जब से यह निगोडी फेक्टरी बनी,हमारे गांव को जैसे पिशाच ने जकड लिया!उसका सारा गंदा पानी नदी नालों में छोडा जाता है.उसे पीकर जानवर मर रहे हैं.खेतों में नमक भर गई और फसलों का सर्वनाश हो रहा है.गांव छोडकर परदेस जाने के दिन आ गए शायद!" आंसू पोंछते हुए मां ने कहा.

"मां,तुम जाओ,मैं थोडी देर बाद खा लूंगा." खांड्या को मन हल्का करने केलिए अकेला छोडकर वह चली गई.

                                   *                      *                    *


खांड्या फिर चट्टान पर चढ गया.वहां बैठने पर पेडों के बीच से जी एन टी फेक्टरी दिखाई देती थी.देखने में बडी सुंदर थी.अजगर जैसी सुंदरता थी उसकी!फेक्टरी का पूरा नाम क्या है,उसके मालिक कौन है, ये सब बातें किसीको मालूम नहीं थीं.पर इतना ज़रूर जानते थे कि वह कपडों की मिल थी.कहीं से धागा मंगाते हैं और यहां उसे रंग लगाकर ले जाते हैं.

इसके आने से पहले यहां के लोग आराम से जीते थे.मवेशियों से आंगन भरे रहते थे.लोगों ने सोचा था कि फेक्टरी के आने से सबको रोज़गार मिल जाएगा,पर छः महीनों में ही उसका असली रंग सामने आ गया.पहले ही सोच समझकर उसे नदिया के किनारे बनाया गया,ताकि उसकी सारी गंदगी...काला बदबूदार पानी...नदिया में छोडा जा सके.

तब से तहस नहस शुरू हो गई.उस नदिया को पास जाकर देखने से रोंगटे खडे कर देनेवाला दृश्य दिखाई देता है.मीलों तक साफ सुथरे पानी की जगह,काला और मैला पानी बहता रहता है.नदिया के बीच इधर उधर बनी छोटी छोटी चट्टनों के इर्द गिर्द मछलियां नहीं, लटकती काई दिखाई देती है.उसमें कहीं किसी प्राणी का आभास नहीं मिलता.नदिया के जीवन को गंदले पानी ने घेर लिया और खतम कर दिया.वह ज़िंदा नदिया न होकर,’मृत नदिया’बनकर रह गई!उसके आस पास बेकार होने से फेंकी गई लोहे की नलियां,और मशीन के फालतू पुर्ज़े नज़र आते हैं. हर तरफ गंदगी फैली रहती है.

जानवर खतम होते जा रहे हैं,फसलें नहीं होतीं, हवा तक ज़हरीली हो चुकी थी.पर पूछनेवाला कोई नहीं था.मिल का मालिक नामी महाशय था.उसे किसीने नहीं देखा.यहां तक कि उसका नाम भी कोई नहीं जानता था.वहां काम करने वाले कर्मचारी भी नहीं.सारा मामला एम.डी ही देखता है.

                                  *                         *                         *

उस दिन सुबह स्कूल में ’सफाई और हरियाली ’ कार्यक्रम बडे जोर शोर से हुआ था.दूर  दूर से पौधे आए.बच्चों ने बडे उत्साह से क्यारियां खोदकर ,पौधे लगाकर,उनमें पानी दिया था.जब वे काम कर रहे थे उनकी तसवीरें भी ली गई थीं.हरेक क्लास को कुछ पौधों की ज़िम्मेदारी दी गई.हरे भरे पौधों का महत्व भी उन्हें बताया गया था.’ हरे भरे पौधे- प्रगति की सीढियां ’,’ साफ सुथरा जीवन-स्वास्थ्य का पहला कदम ’,जैसे नारे दीवारों पर सुंदर अक्षरों में लिखवाए गए थे.

वह गांव मंडल का मुख्य कार्यालय था,इसलिए,ज्वायिंट कलक्टर स्कूल में पधारे थे.बडा ही रोबदार भाषण देकर,स्कूल की उस कोशिश की तारीफ की.जैसे जीवन में पहली बार उन्हें पेड पौधों और साफ सफाई का महत्व मालूम हुआ हो!
वे सब बातें खांड्या को अब याद आने लगीं.

खांड्या को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था.स्कूल में तो हरियाली और सफाई की ही बात पर हमेशा ज़ोर दिया जाता है, पर अपनी बस्ती में उसका उलटा दिखाई देता है.सरकार कहती कुछ है,और करती उसका बिल्कुल उलटा है! इसी लिए खांड्या उधेडबुन में पड गया.

                                   *                       *                  *

उस दिन फेक्टरी के पास माहौल गरमाया हुआ था.फाटक के पास चार भैंसों की लाशें पडी थीं.उनके पीछे कुछ बंजारे गुस्से से झूमते खडे थे.सुबह के नौ बजे थे.कर्मचारी काम पर आने लगे.पर बंजारे फाटक के सामने बैठ गए और उन्हें अंदर जाने से रोक रहे थे.

"आज कुछ फैसला होकर रहेगा!"एक बंजारे ने कहा.

"हां, हमारे जानवर कबतक ऐसे मरते रहेंगे?हमारी ज़िंदगियों का क्या होगा?"दूसरे ने सवाल किया.

"आज या तो काम बंद करो या हमें न्याय दिलाने को कुछ करो.चाहे  हमारी जान ही क्यों न चली जाए!हम यहां से नहीं हटनेवाले!"किसी और ने तैश में आकर ललकारा.

"बुलाना ज़रा अपने एम डी को...कब तक छुपा बैठेगा अंदर?...बाहर आने को कहो..."सब मिलकर चिल्लाने लगे.

कर्मचारी भी असमंजस में थे कि क्या करे.असल में उनकी ज़मीनें भी इस फेक्टरी की वजह से छिन गई थीं.बंजारों से उनके मन में सहानुभूति भी थी. पर पेट का सवाल था जो कर्मचारी बनने पर मजबूर कर गया! देर हो जाए तो एमडी का बच्चा काम पर नहीं आने देगा.एक दो ने हिम्मत करके फाटक खुलवाने की कोशिश की, पर बंजारों ने उन्हें रोक लिया.

बंजारों ने चौकीदार को अंदर भेजा कि एम डी को बुला लाए.पर वह अकेला ही वापस आया.कहा कि वे व्यस्त हैं अभी बाहर नहीं आएंगे.यह भी कहला भेजा कि ज़्यादा शोर मचाने पर पुलिस को बुलाया जाएगा!

बस यह सुनते ही बंजारे गुस्से से पागल हो गए.एक तो उनकी भैंसें मर गईं,और ऊपर से पुलिस बुलाने की धमकी मिली."अरे देखते क्या हो भाई,...तोड डालो फाटक को...अंदर जाकर देखें तो सही ...उसे ठिकाने लगा देंगे...!"बंजारे आपे से बाहर हो गए.

" तोडो ...मिटा दो इस मुई फेक्टरी को!"

"खतम कर दो एम डी को..." हर तरफ शोर बढ गया था.

इस बीच बस्ती से और भी लोग आकर इनमें जुड गए.लगभग तीन सौ लोग इकट्ठे हो गए.बस अब तो मामला हाथ से निकला जा रहा था.चौकीदार को धक्के मारकर वहां से हटाया...फाटक पर चढकर फेक्टरी के अंदर घुस गए.काफी तोड फोड की...मशीनें, कुर्सी मेज़,सब तोडे.एम डी के कमरे में पहुंचकर उसे बाहर घसीट लाए.एम डी थर थर कांपने लगा.

इतने में न जाने क्या हुआ,पहली पारी के कर्मचारी लोगों से उलझ गए.उनमें कुछ गुंडे भी आ मिले.लोहे की छडियां,लट्ठ ...जो भी हाथ लगता,उससे पीटने लगे.फाटक पर ताला लगा दिया और लोगों पर टूट पडे.जो फाटक कूदकर जा सके वे बच निकले.पर जो अंदर फंस गए,उनमें से कुछ के सर फूटे,टांगें टूटी. कुछ ही घंटों में पुलिस की गाडियां आ गईं.घायलों को अस्पताल पहुंचा दिया गया और बाकी लोगों को पुलिस पकडकर ले गई.

बचे थे तो सिर्फ छोटे बच्चे... वे अचानक जैसे बडे हो गए!चाहे मन में कितना भी डर क्यों न हो,उनमें प्रतिशोध का बहुत ही कडवा भाव जाग उठा.इतना बडा अन्याय? फेक्टरी लगाने वाले भी वे,और हमें मिटानेवाले भी वे ही...पूछने पर मारते हैं!पुलिस के हवाले करते हैं!...हमसे तो कुत्ते बेहतर हैं... बच्चों के मन में ऐसे बडे बडे विचार आने लगे.

                                 *                       *                           *

उस रात खांड्या के घर में चार पांच बच्चे इकट्ठे हो गए. सबों के दिल में पीडा थी,डर था, गुस्सा था, और प्रतिशोध की भावना थी.कुछ देर सब चुप बैठे रहे.

अचानक एक ने पूछा,"अरे बता तो सही,ये बम कहां मिलेंगे?"

"क्या? ब...बम...किसलिए?"दूसरे ने पूछा.

"किसलिए...अरे एक बम लाकर इस फेक्टरी पर फेंको...पिंड छूटेगा...!"

"उसपर फेंकने से उसमें काम करने वाले मर न जाएंगे?"खांड्या ने कहा.

"यह कौन सी मुश्किल काम है? लोगों को बाहर बुलाते हैं.उस साले एम डी को अंदर बंद करके बम फेंक देते हैं...खतम!"पहले बच्चे ने हंसते हुए कहा.

"अरे छोडो भी यह सब बातें.ज़रा काम की बात करते हैं,"दूसरे ने कहा.

बच्चे देर तक दबी आवाज़ में बात करते रहे.भविष्य के बारे में अपनी समझ के मुताबिक योजनाएं बनाईं.अंत में सब बच्चों में गुस्से का भाव ही ईंधन बनकर स्थिर हो गया.

उस रात चार मानवाकार फेक्टरी की ओर चल पडे.

                                  *                       *                        *

अगली सुबह फेक्टरी की दीवारों पर यह लिखा दिखाई दिया...

यह फेक्टरी एक राक्षस है...इसे खतम करना है!

हमें अपनी फसलें वापस चाहिए... अपने मवेशी वापस चाहिए...अपनी ज़िंदगी वापस चाहिए!

एम डी क बच्चा मुर्दाबाद!

फेक्टरी मुर्दाबाद!

कोयले से...ईंटों से...स्याही से,जो हाथ लगा उससे दीवारों पर लिख डाला. सुंदर दीवारें कालिख से पुत गईं.फेक्टरी के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ.बात एम डी के कानों तक पहुंच गई,"इन सालों को तो पिटाई कराके जेल भेज दिया गया था.फिर यह सब किसने लिखा होगा?"बहुत देर तक सोचते रहने के बाद भी कुछ पल्ले नहीं पडा तो उसने उन वाक्यों को पोंछ डालने का हुक्म दिया.

                         *                       *                    *

उस दिन सब बच्चे स्कूल केलिए निकल पडे.उनका रास्ता फेक्टरी से होता हुआ जाता है.वहां सब ओर शांति थी.बच्चे फेक्टरी के नज़दीक पहुंच गए.अंदर हमेशा की तरह काम चल रहा था...बडे इतमीनान से!बच्चों की आंखें कुछ ढूंढ रही थीं.

"देखो तो, रात में हमने जो भी लिखा सब पोंछ डाला इन बदमाशों ने!"गण्या नामक बच्चा ज़ोर से बोला.

"चुप...इतने ज़ोर से मत बोलो!"खांड्या ने मना किया.

"पूरी रात जागकर काम किया था रे!"एक और ने कहा.

"देखते हैं.कल लिखा...आज पोंछ डाला,कल लिखेंगे फिर उसे भी मिटा देगा...परसों फिर लिखेंगे...देखते हैं कब तक यह चलता रहेगा!" रामलाल नामक लडका बोला.

चलते चलते खांड्या अचानक रुक गया.बाकी बच्चे भी रुके.खांड्या ने सर उठाकर देखा, फेक्टरी में सुंदर रंगबिरंगे शीशे लगे थे.सुबह की धूप में और भी चमक रहे थे...

खांड्या ने झुककर एक पत्थर उठाया,इधर उधर नज़र दौडाई.अगले पल सब बच्चों ने कंकड पत्थर हाथों में ले लिए और पीठ पीछे छुपा लिए.

खांड्या ने कहा,"देखो, हम में से हरेक अलग अलग खिडकियों को अपना निशाना बनाएगा.निशाना चूक न जाए इसका ध्यान रहे.बस पत्थर फेंकते ही पेडों में छुप जाओ,समझ गए?"

बच्चों में युद्ध जैसा उत्साह जाग गया.

खांड्या का निशाना कभी चूकता नहीं था.उसने हाथ के पत्थर में अपने मन का सारा आक्रोश भरकर, ज़ोर से एक खिडकी पर दे मारा.तुरंत पांच छः पत्थर और आकर बाकी खिडकियों पर गिरे.अचूक निशाने की शिकार हुईं बहुत सारी खिडकियां.

जिस रफ्तार से पत्थर गिरे उसी रफ्तार से सब बच्चे भागकर पेडों के पीछे ओझल हो गए!


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