समय का खेल
----------
बांझ हूं
पिता नहीं हूं
प्रेम की कोंपलों के पैर
सृजन कलियों के हाथ
न छू सकने वाला अभागा लोह-देह हूं
हृदय सीपीयू रहित सिर्फ खोखला वीडीयू का डिब्बा हूं
जहां
इन्सान नहीं पैदा हो
इन्सान न चलता हो
इन्सान न जीवित रहता हो न ही मरता हो
ऐसी मानव-भूमि हूं
हज़ारों रंगों से भरे कागज़ पर
बहुत सुंदर पोटली में बंधे अनावश्यक मैल को
अत्यावश्यक सोना कहकर प्रचार करनेवाला हूं
इस भूगोल पर
मूर्ख, शून्य दिमागों वाले कुत्ते जैसे
अधमतम शीलरहित सौदागरों के साथ पाणिग्रहण कर
सृजन संसार के मेधावियों की तीसरी आंख के टुकडे टुकडे करनेवाला हूं मैं
मैंने ही सभी दार्शनिकों को अपने सर काटने पर मजबूर किया था
सारे सैद्धांतिकों को सजीव समाधि में भेजनेवाला भी मैं ही
आंदोलनकारियों को सूली पर चढानेवाला
भविष्य के नेता को गर्भ में ही खतम करनेवाला भी मैं हूं
रुपयों के मर्मांग के सिवा,निर्लज्ज इंद्रिय सुख के सिवा कुछ भी नहीं समझता
बिना सोच के,बिना आशा के भक्ति,श्रद्धा नीति और राजनीति को खतम करनेवाला
मैं हूं मैं ही हूं हां मैं हूं
मेरे प्यारे भेड बकरियो
आपको मेरे साथ चरम आनंदप्राप्ति से पहले
धोती और साडी उठाकर ऊपर-
त्रिकाल प्रवक्ताओ हमें बचालो...कहकर
समस्त देवतागणो कोई तो फिर से जनम लेकर मार डालो इसे...कहकर
रोओ...चिल्लाओ...यही आखरी मौका है!
--------------------------------------------------------------------------------
अनुवाद : आर. शांता सुंदरी
No comments:
Post a Comment