Friday, June 3, 2011


बया का घोंसला
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आसमान में बादल युद्ध-सैनिकों की तरह भाग रहे थे.कौव्वे कांव कांव कर रहे थे.माहौल गडबडाहट से भरा था.अभी दोपहर भी नहीं हुई पर अंधेरे घिरने लगे थे.नारायण को लगा कि बाहर का वातवरण उसकी मनःस्थिति को प्रतिबिंबित कर रहा है.बहुत देर से वह एक बडी चट्टान पर उकडूं बैठा हुआ था.एक हाथ में बल्लम था.उसका मन अपने खेत के इर्दगिर्द घूमने लगा.सारी ज़िंदगी यों गुज़र गई जैसे कोई उसका पीछा कर रहा हो और वह भागता जा रहा हो.अब इस उम्र में भागना नामुमकिन जो हो गया,तो उपद्रव उसे ले डूबने को आ गया.कुछ ही देर में अधिकारी ज़मीन पर कब्ज़ा करने आनेवाले हैं.कौन रोकेगा उन्हें?कौन पूछेगा?और अगर पूछ भी लिया तो सोचने की स्थिति कहां है? वरना नारायण की यह हालत न होती.

कहीं बादल गरजा.अचानक शुरू हो गई बूंदाबांदी.गरज से डरकर बछडा रस्सी तोडकर भागा.उस आहट से छोटी सी चिडिया शोर मचाने लगी.नरायण ने मुडकर देखा.वह चिडिया बार बार बछडे के इर्दगिर्द घूमने लगी.अरे,यह तो बया है!कितने दिनों बाद देखने को मिली!नारायण की आंखों में चमक आ गई.जैसे अचानक कोई जिगरी दोस्त दिख गया हो!वह धीरे से खेत में उतरा और बछडे को पकडकर पहले की तरह बांध दिया और फिर वापस वहां पहुंच गया.

वह धीरे से कदम रखते हुए मकई के खेत में उतरा.एक एक पौधे को ज़रा झुकाकर गौर से देखा.मकई के पत्तों के बीच भी देखा.उसका अंदाज़ा सही निकला.उन पत्तों को एक साथ जोडकर सीकर बनाया गया छोटा -सा घोंसला दिखाई दिया जिसमें दो अंडे थे.चिडिया नहीं थी.



              *                                                *                                              *
नारायण को वह दिन याद आया जब पहली बार उसने बया को देखा था.खूब उग आए मकई के खेत याद आए.शाम को वह पाठशाला से लौट आते ही पिता के लिए गरम दलिया लेकर खेत में गया.पिता को दलिया देकर वह खेत में ही खेलने लगा.इतने में अचानक पास से कुछ उडकर गया.उस तरफ देखा तो मकई के पत्तों को जोडकर बनाय गया घोंसला दिखाई दिया.पास गया तो अंदर चोंच खोलकर बैठे दो नन्हे प्राणी दिखे.पहले तो उसे डर लगा ,फिर वह आश्चर्य में बदल गया.वे प्राणी बया के चूजे थे.भूख से छटपटा रहे थे.जो कुछ पल पहले उड गई वह इनकी मां थी.चिडिया वापस आ गई पर नारायण को घोंसले के पास खडा देखकर दूर पर ही चक्कर काटते हुए चिल्लाने लगी. नारायण वहां से हट गया और पिता के पास दौड गया.सबको बया और उसके बच्चों के बारे में बताया और खेत में जाकर उस घोंसले को और चूजों को देखना उसकी दिनचर्या ही बन गई!

नारयण ने किसान मज़दूर से कहकर एक बांस की टोकरी बनवाई.वह पिंजरे की तरह थी.उसने सोचा चूजे जब ज़रा बडे हो जाएंगे तो उसमें रखकर उन्हें पालेगा.पर उसके पिता को जब यह मालूम हुआ तो उन्होंने मना कर दिया,"बेटे,वे चूजे इस टोकरी में आराम से नहीं रह पाएंगे.उन्हें अपने घोंसले में ही रहने दो!"

"नहीं बाबूजी,मैं उन्हें पालूंगा...उनकी अच्छी देखभाल करूंगा...जो खाना चाहे वही खिलाऊंगा!"उसने ज़िद पकडी

"बेटा वे खुद खाना ढूंढकर ही खाते हैं,तुम्हारे खिलाने से नहीं खाएंगे.खेतों में खुले आम उडना उन्हें पसंद है."
पर उसे पिता की बातों पर यकीन नहीं आया.शायद किसी दूसरे के पास रहना चूजे पसंद न करते हों पर मेरे पास तो वे आराम से रह लेंगे! नारायण ने सोचा.

धीरे धीरे चूजों के पर निकल आए.घोंसले के बाहर झांकने लगे.मौके का फायदा उठाकर एक दिन नारायण ने उन्हें पकड लिया और एहतियात से टोकरी में रख दिया.मादा चिडिया ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगी.घबराकर इधर उधर उडने लगी.टोकरी में से चूजे भी आर्तनाद करने लगे.पर उन्हें पालने के शौक की वजह से नारायण ने उनकी बेचैनी को नज़रंदाज़ कर दिया.वह टोकरी लेकर भागता हुआ घर आ गया.अपने दोस्तों को दिखा दिखाकर खुश होने लगा.

चूजे चिल्ला चिल्लाकर थक गए.नारायण ने मकई के दाने,चावल,और गुड खिलाने की बहुत कोशिश की,पर चूजों ने उन्हें छुआ तक नहीं.नारायण ने सोचा एक दो दिन में ठीक हो जाएंगे.पर दो दिन बाद भी यही हाल रहा तो नारायण का सारा उत्साह खत्म हो गया.रोनी सी सूरत बनाकर मां को बताया.मां हंस पडी.बोली,"अगर तुझे कोई जबर्दस्ती उठाकर ले जाए और पकवान और मिठाइयां खिलाए तो तू खाएगा? मुझसे और बाबूजी से दूर रह पाएगा? रोएगा नहीं?ये भी ऐसे ही हैं बेटा!खेत में मां के पास रहकर ही खुशी मिलती है इन्हें.अपने घर में रहना ही पसंद करते हैं."

बस!

टोकरी लेकर वह खेत की ओर भागा.घोंसले के पास चूजों को छोड दिया.चूजे गिरते पडते खेत के अंदर चले गए.खुशी  से उन्हें चहचहाते देख नारायण भी बेहद खुश हुआ.

*                                                                  *                                              *

सच है... जिसे जहां जीना हो वहीं जीने की सुविधा मिले.तभी आराम से जिया जा सकता है.अपना घर बार छोडकर किसी दूसरी जगह पर दोबारा बसना कितना मुश्किल है,यह नारायण भली बांति जानता है.जब वह बारह साल का था,उसने वह तकलीफ खुद झेली थी.

१९६८ में विशाख ज़िले की तांडव नदी पर सरकार ने बांध बनाने का निर्णय लिया था.लोग यह सोचकर खुश हुए कि उस परियोजना में मकई, जौ वगैरह  की जगह चावल के खेत लगाए जा सकते हैं.चावल को आंखों से देख भर लेने को वहां के लोग तरस जाते थे.कभी त्योहार के दिन थोडा सा पका लेते थे.नारायण और उसके दोस्त समझते थे कि चावलों का तो स्वाद इतना बढिया है कि खाली चावल ही खाया जा सकता है,सब्ज़ी की भी ज़रूरत नहीं.ऐसी जगह खेतों के लिए पानी मिल जाएगा,यह सोचकर लोग फूले नहीं समा रहे थे.

पर वह खुशी ज़्यादा दिन नहीं रही.एक दिन अधिकारी आए और बता गए कि रिज़र्वायर में नारायण का गांव और खेत पूरे के पूरे डूब जाएंगे.गांव के लोगों पर मानों गाज गिरी.सरकारी अधिकारियों ने कहा कि संक्रांति के त्योहार से पहले गांव खाली करके चले जाएं.सारी खुशी मिट्टी में मिल गई.आबाद गांव मरघट बन गया.सब के दिलों में घबराहट,चिंता और दुःख की लहरें उठने लगीं.अपना गांव अपने खेत छोडकर कहां जाएं?पत्ते पत्ते से जो लगाव जुड गया है उसे कैसे तोडें? दिल दुःख के भार से भर गए.

रोज़गार,मुआवज़ा,पुनर्वास देना जैसी बातों पर ज़्यादा बहस नहीं हुई.अगर मिल जाए तो ठीक है,नहीं तो नहीं.किसानों की तरफ से इनकी मांग करने वाला कोई नहीं था.गांव के लोग यही समझते थे कि ज़मीन तो सरकार की है,जब चाहे वह उसे ले सकती हैं.

उस रात चांदनी छिटकी हुई थी.सुबह से जो सामन बांधा था उसे बैलगाडी पर चढाया.नारायण और उसकी मां गाडी में बैठ गए.गाडी के पीछे तीन गाय , दो भैंस और दो बछडे.उनके पीछे दूसरी गाडी में मामाजी का परिवार था.जब गांव के सिवानों को गाडी पार करने लगी तो किसी के दिल दहला देनेवाला रुदन सुनाई दिया.मां भी सारा रास्ता रोती बैठी रही. सब अपने अपने रिश्ते नातों के गांवों की तरफ निकल पडे.पता नहीं पिता के दिल पर क्या बीत रही थी.वे गाडियों के आगे पैदल चल रहे थे.बस,नारायण की आंखों में सिर्फ बया और उसके चूजे छाये थे.आदमी तो कहीं भी जाकर बस सकते हैं,पर बया कहां जाएगी?उसे लगा,साथ लाता तो अच्छा था.उसीके बारे में सोचते सोचते सो गया.सुबह सुबह मां के रिश्तेदारों के गांव पहुंच गए.

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उस गांव में फिर से बसने के लिए बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पडा.मां के सारे गहने बेचने पडे.दुधारी भैंस बेच डाले.उन पैसों में पास में बचाकर रखी थोडी बहुत रकम जोडकर पिता ने चार एकड ज़मीन खरीदी.वहां पहले कभी खेती नहीं की गई थी.ज़मीन पथरीला था.छः महीने परिवार के सब लोग मेहनत करते रहे.झाड झंखाड काटना,पत्थर तोडना,सूखे ठूंठ उखाडना, गड्ढे भरना,और मेंड बनाना...नींद और आराम जैसे भूल ही गए थे.बरसात के मौसम से पहले ज़मीन खेती के लायक बना दी गई.पिता ने साथ लाए मकई के बीज डाल दिए.कुछ ही दिनों में हरे हरे पत्ते उग आए.फसल खूब बढने लगी और साथ ही परिवार की खुशी भी.उस साल उनकी मेहनत रंग लाई.पथरीली ज़मीन अब उर्वरा बन गई.धान,ईख,तम्बाकू,साग सब्ज़ियां...हर वह फसल उगाई जिससे फायदा मिलता.दस साल बाद और दो एकड खरीदे.

नारायण की शादी हो गई.दो बेटे हुए.कुछ ही समय बाद मां और बाप एक के बाद एक चल बसे.

इस बीच नारायण को कई बार बया और उसके बच्चे याद आए.पर नई जगह पर वह चिडिया दिखी नहीं.जिस तरह अपना बडा सा खेत रिज़र्वायर में डूब गया,चिडिया को आश्रय देनेवाले खेत भी खतम होते जा रहे हैं!धान के खेत में घोंसला बनाना असंभव है.पहले कीटनाशक दवाइयां और खाद इस्तेमाल नहीं किए जाते थे.अब उनके बिना फसल उगाई ही नहीं जाती.वाणिज्य फसल ,अधिक उत्पादन के नाम पर कृषि के खर्च बढ गए.प्रकृति के विरुद्ध खेती करने के नए तरीके आ गए.तभी से किसानों और चिडियों केलिए बुरा समय शुरू हो गया.पहले कभी फसल नहीं होती तो जो है उसीसे पेट पालते थे.अब फसल होने के बावजूद हमेशा कर्ज़ में फंसे रहते हैं.यह सब देखने से समझ में नहीं आ रहा था कि विकास कहां हो रहा है!नारायण के मन में ये विचार हलचल मचाने लगे.

*                                                           *                                                *

बहुत दिनों बाद एक ऐसा दृश्य दिखाई दिया कि मन बाग बाग हो गया!नारायण एक दिन खेत की मेंड पर चल रहा था.मेंड पर कंटीले झाड उग आए थे.उनमें से किसी पक्षी के अचानक फुर्र से उडने की आवाज़ सुनाई दी.उसने सोचा हो न हो वह बया ही होगा.पास जाकर गौर से देखा तो आक के पौधे में पत्तों के बीच छोटा सा घोंसला नज़र आया.उसमें नन्हे से अंडे थे.नारायण का मन खुशी से उछल पडा.रोज़ उन अंडों को देखना दिनचर्या बन गई.पूरे खेत में वह झाड ही उसकी पसंदीदा जगह बन गई.

एक दिन किसान मज़दूर मेंड पर उग आए झाड काटने लगा,तो नारायण ने मना कर दिया,"उसमें चिडिया का घोंसला है.उसे उखाड दोगे तो चिडिया कहां जाएगी?"

यह सुनकर बगल के खेत में खडा किसान ज़ोर से हंसा,"अरे,चिडिया के पीछे अपना सोना उगाने वाले खेत को खराब करना कहां की अकलमंदी है,भाई?"

नारायण ने बात को अनसुनी कर दी.

*                                                               *                                              *

जब नारायण छोटा बच्चा था तब खेत को सिर्फ खुद की संपत्ति नहीं समझा जाता था.मकई के खेतों में बया पक्षी जगह जगह घोंसले बना लेते थे.जब फसल बढकर कटने योग्य हो जाती,तबतक चूजे भी पैदा हो जाते थे.
जहां जहां घोंसले होते वहां की फसल को काटे बिना छोड देते थे.चूजे बडे होकर उड जाते तभी उस हिस्से को काटते थे.उसे बया की फसल भी कहा जाता था.एक दूसरे से कहते कि देखो तो पंछी हमारे लिए कितनी फसल छोड गए!?

हम भी जिएं ,औरों को भी जीने दें,इसीमें असली खुशी मिलती है.जीवन का यह सूत्र सबकी समझ में क्यों नहीं आती?

*                                                             *                                                 *

पैंतीस साल गुज़र गए... नारायण के सामने फिर से खतरनाक समस्या आ खडी हुई.पोलवरम प्राजेक्ट के रूप में खलबली मच गई.जिस खेत को उपजाऊ बनाने केलिए नारायण के परिवार ने खून पसीना एक कर दिया था,उसी में से होते हुए पोलवरम की नहर का अलैनमेंट होना था.फिर एक बार किसानों पर वज्रपात हुआ.सब किसान मिलकर अधिकारियों के पास गए और बिनती करने लगे.सरकार ने दो टूक जवाब दे दिया कि मुआवज़ा ले लो और खेत छोड दो!कई दिनों तक नारायण छटपटाता रहा...न खाने की सुध थी न सोने की.लहलहाता खेत हाथों से निकला जा रहा था...उसे ऐसा लगा कि नवजात शिशु को कसाई उठा ले जा रहा है.वह फफक फफककर रोया.अधिकारियों ने डरा धमकाकर मुआवज़ा लेने केलिए उसे राज़ी किया.

पैसा लेकर साथी किसानों की सलाह मानकर वह तटवर्ती प्रांत में बसने चला गया.वहां उसने तीन एकड ज़मीन खरीदी.छः एकड की जगह तीन एकड रह गए,पर इस बात का दुःख नहीं था.मां-बाप ने पसीना बहाकर जो खेत कमाया उसके इस तरह चले जाने से वह बहुत ही दुःखी हो गया.

फिर उसने खूब मन लगाकर काम किया और जीवन की गाडी पटरियों पर आ गई.एक दो साल में बच्चों की पढाई खतम हो जाएगी और कुछ काम धंधा ढूंढ लेंगे.तब जाकर मेरी ज़िम्मेदारी पूरी हो जाएगी,उसने सोचा.

पर मुश्किल से दो साल बीते होंगे कि फिर से उसका जीवन आफत की चपेट में आ गया!

तटवर्ती प्रांत में विशेष आर्थिक मंडल(सेज़) बनाए जाएंगे,इस बात की सरकार ने घोषणा कर दी.इसके लिए चार हज़ार एकड ज़मीन इकट्ठा करने का काम ज़ोर शोर से शुरू हो गया.नारायण निढाल हो गया.लगा वह धरती में धंसता जा रहा है.आंसू भी सूख गए,पर मन की पीडा अंदर ही अंदर उसे जलाने लगी.

किसीने भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि किसानों की क्या राय है.उनकी आपत्तियों पर भी किसीने ध्यान नहीं दिया.चर्चाएं हुईं,पर किसानों की राय जानने के लिए नहीं, सौदेबाज़ी के लिए.गांव में ढिंढोरा पीटा गया कि इस साल किसान खेती का काम छोड दें क्योंकि उनकी ज़मीनों के चारों तरफ लोहे की बाड लगाई जाएगी.कोई भी किसान अपना खेत बेचना नहीं चाहता था.उसके बिना कैसे जियें?एक बार ज़मीन हाथ से निकल गई तो फिर खरीद पाना क्या संभव है?

नारायण का मन भी उदास था.तरह तरह के खयाल आने लगे.हौसले पस्त हो गए.ज़िंदगी पर से विश्वास उठ गया.श्रम करने की उमर नहीं रही.एक के बाद एक चोट,कहां तक सह सकता था?किसान केलिए बुरे दिन आ गए.खतम हो गया...सबकुछ खतम हो गया!अब गृहस्ती चलाना उसके बस की बात नहीं थी.कहीं भी जाए हालत तो वही है.किसीको खेती से मतलब नहीं...खासकर गरीब किसान तो संकटग्रस्त प्राणी की सूची में गिना जाने लगा...बया और चिडियों की तरह!चिडियों के बारे में तो लिखा जा रहा है...उनकी गिनती की जा रही है,पर किसान के बारे में तो वह भी नहीं!ज़र सी भी सहानुभूति नहीं.इसीलिए तो बार बार उसे अपनी ज़मीन से बेदखल किया जा रहा है.

नारायण पूरी तरह निराश हो गया.हर तरफ अंधेरा नज़र आने लगा.आत्मविश्वास तो जैसे खतम ही हो गया.

*                                                          *                                                 *

वह धीरे से उठा और खेत का चक्कर काटने लगा.फसल एक महीने के अंदर कटाई के लायक हो जाएगी.पर क्या वह तब तक साबुत रहेगी? नारयण की आंखें डबडबा आईं.पर क्या आंसू ज़मीन के भूखों की प्यास बुझा सकेंगे?उन्हें रोक सकेंगे?जय किसान का नारा लगानेवाला देश जब उसे रुलाने पर उतर आए,मिटाने की तरकीबें सोचने लगे,तो क्या वह देश फल फूल सकेगा?

आ गई राक्षस जैसी पोक्लैनर मशीनें.खेतों में घुसने लगीं.अधिकारी गाडियों में आ गए.

अचानक माहौल बदल गया.शोर...हलचल..भाग दौड...कहीं कोई चिल्ला रहा था तो कोई रो रहा था.पेडों पर पक्षी भी शोर मचाने लगे.चारों तरफ हल्ला मच गया.जैसे बाढ आ गई हो...दावानल घेर रहा हो!किसान इधर उधर भागने लगे...

एक पोक्लैनर नारायण के खेत में घुस गया.अधिकारी सीमाएं नापने में लगे थे.मकई के खेत में सीमा का निशान लगाने के लिए पोक्लैनर की नोक धंस गई.तभी वह नन्ही सी चिडिया शोर मचाती ऊपर उडी.नारायण ने मुडकर उसकी ओर देखा.वह मादा बया थी.बस,जैसे उसके सिर पर भूत सवार हो गया.वह फौरन उस ओर चल पडा.पोक्लैनर की नोक धंसने से मकई के कुछ पौधे एक ओर झुक गए.उनमें बना घोंसला नीचे गिर गया.चिडिया मारे घबराहट के ज़ोर ज़ोर से चिल्ला रही थी.वह पोक्लैनर के चालक के सिर पर मंडराने लगी...उसे अपने पंजों से घायल करने की कोशिश करने लगी.वह पल...वह एक पल,न जाने नारायण के मन में कैसा जादू कर गया,कि उसमें नई शक्ति...एक अजीब हौसला जाग उठा.चिडिया की तडप और वेदना ने उसमें गुस्सा जगा दिया.उसने आव देखा न ताव,अपना बल्लम उठाया और हवा में घुमाकर,चालक की तरफ फेंका.फेंकते वक्त घायल शेर की तरह दहाडा.

चालक उस वार से बचने केलिए मशीन छोडकर भाग खडा हुआ.अधिकारी चकित होकर देखते रह गए.इतने में बाकी किसान भी वहां आ पहुंचे.उन्होंने कभी नारायण का यह उग्र रूप नहीं देखा था.गुस्से से हांफते हुए नारायण ने झुके पौधों को फिर से खडा किया और नीचे पडे घोंसले को पत्तों के बीच बैठाया.

"हम चुपचाप देखते बैठे रहेंगे तो वे हमें जीने नहीं देंगे.पीठ दिखाकर भागने लगेंगे तो और दूर भगाएंगे.डटकर सामना करने से ही कोई न कोई नतीजा सामने आएगा,"नारायण ने बल्लम हाथ में लेते हुए कहा.उसकी यह बात दूसरों को एक ललकार सी सुनाई दी.*

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मूल तेलुगु कहानी : सत्याजी

अनुवाद : आर.शांता सुंदरी.

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