Sunday, November 18, 2012


सूपर सिंड्रोम
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तेलुगु मूल : सलीम
अनुवाद : आर.शांता सुंदरी
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गुरुवार का दिन था.शाम के छः बज रहे थे.सब्ज़ी खरीदने थैली लेकर चप्पल पहनने लगी तो बेटी मधु ने कहा,"मां मैं भी साथ चलूं?"
"नहीं बेटा,तू पढाई कर.मैं आधे घंटे में आ जाऊंगी."
मधु ने मीठी हंसी हंसते हुए कहा,"कहने पर भी नहीं मानती ना? बडी मंडी में सब्ज़ियां सस्ती मिलती हैं,यही बहाना बनाकर जाती तो हो,पर सोचो,जाने आने का आटो का खर्चा भी जोडकर देखो तो सस्ता थोडे ही पडता है?"
मैं तो हर हफ्ते यही सुनती हूं,आदत सी हो गई! मैं बाहर निकलने लगी तो पीछे से मधु ने कहा,"अब थोडे दिनों की बात है.फिर घर के पास ही फुड वर्ल्ड सूपर मार्केट खुल जाएगा.तब हम वहीं से सारा सामान खरीद सकेंगे!"
"मुझे तो बेटा,बडी मंडी जाना ही अच्छा लगता है.वहां सब जाने पहचाने लोग हैं."
"अरे आदत वादत छोडो मां.अब तो ऐसा वक्त आ गया है कि अपनी सहूलियत देखनी पडती है.दाल,चावल,सब्ज़ी,मसाले,फल सब एक ही छत के नीचे मिल जाते हैं तो कितना अच्छा है ना? और फिर साफ करके पेकेटों में बंद होकर बेचे जाते हैं.कीमतें भी ज़्यादा नहीं होतीं."
मैं उसे कुछ जवाब दिए बिना बाहर आकर मंडी के लिए आटो पकड ली.
मैं आटो से उतरकर पैसे चुकाने लगी तो रामुलम्मा ने आवाज़ दी.वह औरत पत्तेवाली सब्ज़ियां बेचती है.मुझे देखते ही उसका चेहरा खिल उठा.मैं भी उसकी तरफ खिंची चली गई.
"पिछले हफ्ते नहीं आई बीबी जी?मैं ने बहुत इंतज़ार किया था!कहीं बाहर गई थी क्या?"रामुलम्मा ने पूछा.
मैं उसके आगे बिछी बोरी पर से हरा धनिया,कडी पत्ता,पुदीना वगैरह लेते हुए कहा,"नहीं, बुखार हो गया था."
"तभी कहूं कि इतनी कमज़ोर दिख रही हो आप!मैं भी सोच रही थी कि कम से कम फूल खरीदने तो ज़रूर आती हर वीर वार को!"
"अच्छा कितने पैसे हुए,बोलो?"मैंने पैसे चुकाए और पूछा,"तेरी बेटी की गिरस्ती कैसी चल रही है?सब ठीक तो है ना?"
"क्या बताऊं बीबी जी?बार बार पैसा मांगता है मेरा जमाई.कहां से लाऊं? अभी परसों फिर पच्चीस हज़ार मांग रहा था.कहां से लाती इतना रुपया?"
मैं चुप रही.मन खराब था पर कुछ सूझा नहीं कि क्या कहूं.फिर भी उसे दिलासा देकर आगे बढ गई.
चार कदम चलकर सब्ज़ी वाले के पास पहुंची.कनकय्या सब्ज़ी बेचता था.सत्तर साल की उम्र,उसके तीन बेटे थे,जो अच्छी नौकरियां करते थे.फिर भी उसे धूप बारिश और सर्दी में सब्ज़ी की मंडी आना पडता.एक भी बेटा उसकी देख भाल करने को तैयार नहीं था.पहले रेडी पर सब्ज़ी डालकर गली गली घूमता था,पर अब कमज़ोरी की वजह से एक ही जगह रहकर बेचता है.
कभी मेरे पूछने पर उसने अपनी रामकहानी मुझे बताई थी.
मुझे देखते ही बच्चे की तरह मुस्कुराया.सामने के दांत टूट जाने से उसका मुंह पोपला हो गया था."पिछले हफ्ते आप नहीं आईं तो समझा किसी और से सब्ज़ी खरीद ली होगी,"उसने कहा.
"हमेशा तुमसे ही लेती हूं ना?और कहां जाती?"
"तुम्हारे बेटे कैसे हैं?"मैंने पूछा और उसकी मुस्कुराहट पुंछ गई.बहुत देर तक सब्ज़ी तोलते हुए चुप रहा.मुझे लगा उसकी आंखें नम हो गईं हैं.फिर उसने सब्ज़ी मेरी टोकरी में डालते हुए मेरी ओर देखा और कहा,"सच कहूं बेटी? कल को मैं मर गया तो लाश को ठिकाने लगाना तो दूर ,देखने भी नहीं आएंगे.तुम जैसी कोई भला मानुस ही शायद वह काम कर दे,मैं भगवान से रोज़ यही दुआ मांगता रहता हूं!"
इन लोगों की बातें सुनकर मेरा मन खराब तो होता है,पर उन्हें लगता है कि चलो हमार दुखडा सुननेवाला कोई तो है!मैंने हिम्मत बंधाते हुए कहा,"यह कैसी बातें कर रहे हो?तुम्हें कुछ नहीं होगा.सौ साल ज़िंदा रहोगे!"
"नहीं बेटी ,मुझे ऐसी आशा बिल्कुल नहीं है.अकेले जीना बहुत मुश्किल है.सबके होते हुए भी मैं अकेला हूं.ऐसी ज़िंदगी भगवान किसीको न दे!"
अपनी तरफ से उसे तसल्ली के दो चार शब्द कहकर मैं फूल खरीदने चली गई.मस्तानम्मा ने भी मेरे पिछले हफ्ते न आने की वजह पूछी.हमेशा मैं उससे पांच हाथ चमेली के फूल खरीदती हूं.मुझे देखते ही फूलों की तरह हंस् दी और पूछा,"क्या बात है?पिछले हफ्ते नहीं आईं?"उसकी हंसी बडी खूबसूरत् है.मुझे वह हंसी बहुत अच्छी लगती है.एकदम स्वच्छ और निष्कपट.और वह मुस्कुराती भी बहुत है.शायद इसके शौहर  कहता हो कि तेरी हंसी बडी खूबसूरत है!
"दस हाथ फूल मालाएं देदूं?"उसने पूछा.मैं तो हमेशा पांच हाथ ही लेती हूं,सॊ कहा कि पांच काफी हैं."क्यों बहन जी,हमेशा सारे फूल भगवान को ही चढा देती हो? खुद नहीं बालों में सजाती?"उसने पूछा.
पर वह मानी नहीं.कुछ फूल खुद मेरे बालों में गूंथने की ज़िद करने लगी.बाज़ार में और आना कानी करना ठीक न समझकर मैं मान गई.मस्तानम्मा के हाथ मे बीस रुपये रख दिए.उसने हैरान होकर पूछा,"इतने रुपये किसलिए?"
"दस हाथ के फूल लिए हैं ना?"
"नहीं जी,मैं तो सिर्फ पांच के पैसे लूंगी.मैंने उतना ही बेचा है.बाकी तो मैं तुम्हें अपनी खुशी से दे रही थी."
"अरे यह क्या बात हुई? मैं जानती हूं फूल बेचकर तुम्हारे पास कितने पैसे बचते हैं.लो,ये दस रुपये भी ले लो!"मैंने ज़बर्दस्ती दस का नोट उसे पकडाने की कोशिश की.
"हां,मैं फूल ज़रूर बेचती हूं,पर बहन के बालों में फूल लगाकर उसके पैसे वसूल नहीं कर सकती!"
मैंने उसे शुक्रिया कहा और जवाब में वह फिर फूलों की तरह हंसी.
घर पहुंचते पहुंचते सात बज गए.
"देखा मां कितना टाइम लगा दिया.पास में ही सूपर मार्केट खुल जाएगा तो वक्त ज़ाया न करना पडेगा ना?"मुझे देखते ही बेटी बोली.

                                                * * *

हमारे घर से सौ गज़ की दूरी पर फूड वर्ल्ड सूपर मार्कॆट खुल गया.उद्घाटन समारोह में कोई अभिनेत्री भी आई थी.पूरे मुहल्ले में पेंफ्लेट बांटे गए.अखबारों में बडे बडे विज्ञापन दिए गए.
मधु मचल उठी,"चलो मां ऊड वर्ल्ड चलें.खुद देख लेना कि यह कितनी शानदार दूकान है.फिर कभी तुम मंडी जाने की बात नहीं करोगी.अमेरिका जैसे देशों में तो सिर्फ ऐसी ही दूकानें होती हैं.हमारे जैसे वे सडकों के किनारे रेडियां नहीं लगाते और न ही गली गली घूमकर चीज़ें बेचते हैं.सब काम सलीके से किए जाते हैं.देखा, अमरिका से हम कितने पिछडे हुए हैं?"
"अच्छा सूपर मार्केट खोल दिए तो मतलब तरक्की कर ली,और गली गली घूमकर बेचा तो पिछड गए?मैं नहीं मानती तेरी बात!"मैंने कहा.
"सिर्फ इतना ही नहीं मां,अमेरिका में सेल फोन हमसे पहले आया था.उनके देश में आइमेक्स सिनेमा थियेटर खुलने के कई साल बाद हमारे देश में इनका दौर शुरू हुआ.इस दौड में हम रफ्तार नहीं बढाएंगे तो हमेशा के लिए पीछे ही रह जाएंगे!सोचकर ही खराब लगता है..."
"सुनो,इन्सानी रिश्ते कितने बेहतर बन रहे हैं,इसी बात से विकास को आंकना चाहिए,मशीनी प्रगति से नहीं!"
"मां वक्त बदल रहा है.हमारी पीढी की सोच अलग है...चलो बातें बाद में भी कर सकते हैं,पहले फूड वर्ल्ड देख आते हैं."
बडा विशाल आहाता,अंदर सब सामान सलीके से शेल्फों में सजाकर रखा था.दाल चावल,सब्ज़ियां,फल,सब अपनी अपनी जगह.कास्मेटिक्स के लिए अलग जगह.लगा यह विनिमय का संसार है.मधु ट्राली ले आई और उसमें अपनी ज़रूरत की चीज़ें डालने लगी.जब सब्ज़ियों के पास पहुंचे तो बोली,"देखा मां,कितनी ताज़ी हैं?इनमें खराब सब्ज़ियां बिल्कुल नहीं होतीं.ये खुद उन्हें फेंक देते हैं!"
"सब्ज़ियां पोलीथीन थैलियों में पेक करके रखी हुई थीं.ज़रूरी सब्ज़ियां ले लीं.वहां काम करनेवाले सभी यूनीफार्म में थे.कोई न कोई हमपर नज़र रखे रहता था.मुझे बुरा लगा.मधु से कहा,"अरे,हम क्या चोर उचक्के हैं?ये हमें इस तरह क्यों देखते हैं?"
मधु ने हंसकर कहा,"हम तो नहीं,पर यहां आनेवालों में चोर नहीं होंगे इसकी गारंटी भी तो नहीं ना?कोई छोटी मोटी चीज़ जेब में डालकर चल दिए तो?...पर तुम्हें इससे क्या? जो ज़रूरी है ले लो,फिर घर चलेंगे."
उसकी बातों से मुझे तसल्ली नहीं हुई,अब भी मुझे बुरा लग रहा था.
हम सामान लेकर काउंटर के पास खडे हो गए.चार काउंटर थे और चारों में लंबी लाइनें थीं.हमारी बारी आने में पंद्रह बीस मिनट लगे.काउंटर पर दो जने थे.एक लडकी कंप्यूटर पर बिल बना रही थी और दूसरा चीज़ों को प्लास्टिक की थैलियों में डाल रहा था.पैसे लेते समय मैंने सोचा लडकी हमें देखकर मुस्कुराएगी.पर ऐसा कुछ न हुआ तो मुझे अजीब लगा.हम दोनों थैलियां लेकर बाहर आईं तो मैंने बेटी से कहा,"कम से कम वह लडकी मुस्कुरा तो सकती थी? रोबो की तरह बस काम करती रही!"
"क्या मां तुम भी ना,क्या हम उसके दोस्त या रिश्तेदार हैं जो वह हमें देखकर मुस्कुराती?उनका काम सामान बेचना है और हम खरीदारों के सिवा और कुछ नहीं...बस यह तो व्यापार संबंध है,सिंपल!वह तो ठीक ठाक निभ गया ना?और फिर उसके मुस्कुराने या न मुस्कुराने से हमें क्या फर्क पडता है?"
मैं उन सवालों का जवाब तो नहीं दे सकी.हां उससे हमें कोई फायदा तो नहीं होगा,सच है,पर कोई इस तरह मुस्कुरा दे तो मन खुश हो जाता है.इन्सानों के बीच रह रहे हैं ऐसा अहसास मिलता है जो मन को तसल्ली देता है.एक तरह का भरोसा मिलता है.पर शायद आज की पीढी को यह सब महसूस नहीं होता होगा!
                                                * * *
पिछले तीन हफ्तों से फुड वर्ल्ड से ही सामान खरीद रहे थे.सात आठ बार वहां गए होंगे और हर बार मैं यही उम्मीद लेकर जाती कि कम से कम एक तो ऐसा होगा जो हमें देखकर मुस्कुराएगा. ग्राहक की तरह नहीं,इन्सान की तरह हमारे साथ पेश आएगा.ऐसा लगता है कि यहां इन्सान नहीं मशीनें काम कर रही हैं.सब कुछ बडे ही व्यवस्थित रूप से हो जाता है पर उसमें इन्सानियत का स्पर्श नहीं मिलता.एक तरह का शून्य...उदासी मेरे मन को घेर लेती.
रामुलम्मा,कनकय्या,और मस्तानम्मा बार बार याद आने लगे.तीन हफ्ते हो गए बडी मंडी गए.वे समझ रहे होंगे कि मैं फिर बीमार पड गई.हां,यह भी तो एक बीमारी ही है ना?सूपर मार्केट की बीमारी.पिछले तीन हफ्तों से इस सूपर सिंड्रोम से तो पीडित हूं!अब और सहा नहीं जाता.इसका इलाज तो करना ही पडेगा.
अगले वीरवार को कपडे से बनी थैली लेकर घर से निकलने लगी तो बेटी ने पूछा,"कहां जा रही हो मां?"
"बडी मंडी,सब्ज़ी खरीदने."
"क्यों फुड वर्ल्ड से ले रहे हैं ना? तुमने यह भी कहा कि सब्ज़ियां ताज़ी और अच्छी हैं?"
"मैं इन्सानों से सब्ज़ियां खरीदना चाहती हूं मधू!"
"बगल में इतना बडा सूपर मर्केट है और तुम इतनी दूर सब्ज़ी खरीदने जाओ तो सब समझेंगे तुम पागल हो!"
"हां मधू,मैं पागल हूं! इन्सानों  के साथ बात करना,उनका हालचाल पूछना,दुःख सुख बांटना,यह सब पागलपन नहीं तो और क्या है?"
मैं चप्पल पहनने लगी तो मधु ने कहा,"जाओ,जाओ,बस कुछ ही महीनों की बात है.यहां भी वालमार्ट आनेवाला है.वह कम्पनी हमारे देश भर में चेन स्टोर खोलेगी तो ये मंडी वंडी सब बंद हो जाएंगे.रिलायन्स फ्रेश की दूकानें भी जगह जगह खुलनेवाली हैं.तब सब्ज़ियां खरीदने इन्हीं दूकानों में जाना पडेगा.खरीदना चाहो तो भी मंडी में नहीं खरीद सकोगी!"
मैं सन्न रह गई.अगर सचमुच ऐसा होगा तो मंडी में सब्ज़ी बेचनेवाले गरीब कहां जाएंगे,क्या करके अपना पेट भरेंगे?उनके आंसू जमते जाएंगे और फिर एक दिन फटकर उनकी ज़िंदगियों को डुबो देंगे!मेरा दिल अभी से डूबने लगा.
मंडी में आटो से उतरते ही परिचित चेहरे मुस्कुराते दिखाई दिए.ये बेचारे नहीं जानते कि इनपर कहर बरपा होने वाली है.इनकी इन्सानियत की,दुःख की परवाह करनेवाला कोई नहीं रह जाएगा.सूपर मार्केट इनका सबकुछ निगल जाएगा.
"आज कुछ परेशान दिख रही हो बहन,क्या बात है?तबीयत तो ठीक है ना?"मस्तानम्मा ने आत्मीयता दिखाते हुए पूछा.मुझे मधु का सवाल याद आया,’ये क्या हमारे रिश्तेदार या दोस्त हैं?’मस्तानम्मा मेरी क्या लगती है? बस इन्सानियत का ही तो रिश्ता है!
"हाथी जब चलता है तो उसकी चाल सबको मोह लेती है,पर कोई उन चींटियों के बारे में नहीं सोचता जो उसके पैरों के नीचे कुचलकर मर जाते हैं!"मेरा जवाब सुनकर मस्तानम्मा अचकचा गई.मेरी ओर अजीब नज़रों से देखते हुए बोली,"हम ठहरे अनपढ,तुम्हारी बातें हम क्या समझ सकेंगे?"फिर अपनी खूबसूरत हंसी बिखेर दी.
मैं सोचने लगी,क्या यह हंसी हमेशा केलिए बरकरार रहेगी?
फिर मैंने ज़रूरत की सब्ज़ियां खरीद लीं.थैली भर गई.सब्ज़ियों के साथ शायद मंडी से उन सबके दुःख,आंसू और तक्लीफें भी थैली में भरकर लाई थी,इस बार थैली हमेशा से ज़्याद भारी लगी.



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(२०१२ अक्तूबर - नवंबर अंक ’कथन’ पत्रिका में प्रकाशित.)


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