Wednesday, June 15, 2011


कोडवटिगंटि कुटुंबराव की तीन लघुकहानियां.(अनुवाद :आर.शांता सुंदरी)

अहिंसा
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राजा के भरे दरबार में अहिंसा के बारे में बहस छिड गई.दोनों पक्षों को लेकर दो विद्वानों के बीच वाद- विवाद होने लगा.बाकी सब चुपचाप इनकी दलीलें सुनने लगे.

दोनों विद्वानों में से एक दुबला पतला था, पर वह अहिंसा के पक्ष में नहीं बल्कि हिंसा के पक्ष में बढचढकर बोल रहा था.अहिंसा का समर्थक शरीर से बलिष्ठ था पर उसकी दलीलें कमज़ोर पडने लगीं और वह हारने लगा.

सभा में उपस्थित लोग धीरे धीरे दुबले पतले विद्वान की बातों से प्रभावित होकर उसका पक्ष लेने लगे.

बलवान का चेहरा तमतमा उठा.वह गुस्सा रोक नहीं पाया.अगले ही पल दुबले पर झपट पडा.उसकी गर्दन को दोनों हाथों से पकडकर झकझोरने लगा.

दुबले की आंखें उलटी हो गईं.अहिंसा की जीत हुई!

रचना काल :१९६४

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अन्याय को नहीं सहेंगे
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"चिन्नपल्लि में सोलह हरिजनों को ज़मींदार के गुंडों ने..."

" ओह...बेचारे !"

"पेद्दपर्रु में आठ हरिजन स्त्रियों के साथ तीन ज़मींदार..."

"हे भगवान !"

"मध्यकुंटा में हरिजनों की चार सौ झुग्गियों में आग लगा देने से पांच वृद्ध,बाईस बच्चे..."

"यह कैसा अत्याचार है भाइया !"

"-ज़मींदारों पर गंडासों से हमला करके दो ज़मींदारों को मार डाला और तीन को घायल करके..."

"उन सबको फांसी पर चढा देंगे.कुछ भी बर्दाश्त कर सकते हैं पर अन्याय को..."

रचना काल :१९७७

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फारेन कोलाबरेषन
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मैण् हैरान होकर देखने लगा.पापाराव की छ्ःओटी सी दुकान कहां गई?देसी तण्बाकू के च्रुट बेचनेवाले पापाराव को क्या बडी मछली निगल गई?उसकी दुकान के स्थान पर एक शीशॆ केए खिडकियों वाली दुकान खडी थी!मैं मन ही मन दुनिया को कोसते हुए पापाराव के प्रति सहानुभूति दिखाने लगा.तभी एक आदमी दुकान से बाहर निकला.लंबे बाल,आधिनिक लिबास में फेषनबल दिखाई दे रहा था.उसने मुझे आवाज़ दी.

अरे, यह तो पापाराव है!वंडरफुल !!छोटी मछली को बडी मछली ने निगला नहीं,बल्कि छोटी मछली खुद बडी हो गई! मैंने सोचा.

पर यह बदलाव आया कैसे?पापाराव के पास बडी पूंजी तो नहीं थी.कमाई भी कुछ खास नहीं थी.

पापाराव मुझे अंदर ले गया.मेरे हाथ में कोकाकोला की बोतल थमा दी.दुकान में कोकाकोला की बोतलें भरी पडी थीं.

"यह क्या हो गया?कैसे संभव हुआ?क्या तुम इस दुकान में नौकरी करने लगे?मैंने पूछा.

"अरे साहब, यह सब तो अमरीकन कॊलाबरेषन का कमाल है! एक अमरीकन जो खुद को पीसकोरवाला कहता था,मेरे पास आकर बोलाकि धंधा बढाओ,पैसे मैं लगाऊंगा!यह सब उसीकी मेहरबानी है.बिक्री दुगनी होने लगी है.पर सारा पैसा वह ले लेता है.ठीक तो है,दुकान उसकी है ना?मुझे थोडॆ पैसे रोज़ दे देता है जो मेरे लिए काफी होते हैं."

मैंने पापाराव की तारीफ की और उसे बधाई दी.

यह पिछले साल की बात थी.कुछ दिन पहले उस तरफ गया तो देखा कि वहां’इंडो अमरीकन कोकाकोला सेंटर"बन गया है.उस दुकान में पापाराव नहीं बल्कि कोई दूसर ही बैठा था.अमरीकन भारत छोडकर जाते समय दुकान किसी और के हाथ बेचकर चला गया.पापाराव का कोई अता पता अन्हीं मिला.क्या वह फिर से देसी तंबाखू की चुरुट बेचने लगेगा?नहीं!

अब कभी दोबारा पापाराव मुझे दिखाई नहीं देगा !


रचन काल : १९७७

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मेरे पिता,श्री कुटुंबराव , चंदामामा तेलुगु मासिक के मुख्य संपादक थे.इस पद पर उन्होंने लगभग ३० साल काम किया था.सैकडों कहानियां,एक दर्ज़न से भी अधिक उपन्यास,कुछ नाटक और   साहित्यिक,सामाजिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक विषयों पर आलेख लिखनेवाले कुटुंबराव जी ने अपने जीवनकाल में लगभग १४.१५ हज़ार पृष्ठों की रचना की थी.

जन्म : १९०९
मृत्यु : १९८०

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