Thursday, October 6, 2011

गुमशुदा
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वहां कोई भी आराम और चैन से नहीं रहता
चढनेवाले,उतरनेवाले,राह देखनेवाले
बहुत शोर रहता है
वहां खडा दिखाई देता है बस स्टेंड
पर असल में ऐसा खडा होता नहीं वह बिल्कुल.

बस से उतरकर थका मांदा निकला था बाहर मैं
तो बगल की दीवार ने हाय यह क्या किया!
मेरी नज़रों को खींच लिया अपनी तरफ
इश्तहारों से हक्काबक्का वह दीवार
गुमशुदा लोगों की तस्वीरों से भरी वह दीवार
बच्चों युवाओं बूढों की तस्वीरों से अटी वह दीवार
पर गुमाशुदा होने केलिए उम्र क्या
तस्वीरों के नीचे विवरण उनकी पहचान के
नाम, गांव, कद- काठी
भाषा,वेश भूषा,रंग- रूप
अंत में...
कहीं दिख जाने पर खबर कर देने की
आंसू भरी विनती!
क्या राह भूलने से गुमशुदा हुए थे ये
या चले गए अपनी अलग राह तलाशते
या कोई राह न पाकर दुनिया छोड गए
अपमान,आक्रोश,आवेश?
नादानी,नासमझी,बेचैनी?
क्यों चले गए होंगे?
अब कहां होंगे
किस छांव में
किस धूप में
किस खेमे में
किस चौखट पर
किस नदी में
किस शहर की चकाचौंध से भरी रेगिस्तान में
इनके गांव में इनके घर
राह तकते होंगे इनकी उदास आंखों से
इस खालीपन का बखान कैसे करे कोई!
आदमी के खो जाने से घेर लेता है जो खालीपन
क्या कोई नाप सकता है उसे?
इस नाप तोल से परे हैं
विषाद से भीगे वे घर-
घरों के दरवाज़ों और खिडकियों में
खुला रहता है विश्वास
सही रास्ता पकडकर
कभी न कभी वापस ज़रूर आएंगे
अपने साथ खुशी का राग ज़रूर लाएंगे!

पर कुछ ही दिनों में
ये इश्तहार फीके पड सकते हैं
इनकी जगह नई तस्वीरें नए नारे
ताज़े झूठे विज्ञापनों के महा आफर
दिखाई दे सकते हैं
या इस दीवार को तोडकर
एक माल ही खाडा हो जाए कौन जाने!
कुछ दिन बाद
इनसानों की पहचान ही बदल जाए
कौन कह सकता है!
इन पहचानों के बूते पर
कैसे पहचान पाएंगे
कब पहुंचेगा फिर
उन घरों में खुशी का राग?

चारों तरफ नज़र दौडाई मैंने
कुछ भी नहीं चल रहा था.
चाल तो जैसे रह ही नहीं गई
भागदौड,शोर,मुखौटे,धक्कामुक्की
हर कोई ऐसा चल रहा था
मानो खो गया हो
इस मायाजाल से भरे समय में
किसका पता किसको है
कौन किसे तलाश सकता है
सब के सब पागल हैं!
इश्तहारों पर यकीन करते हैं
कौन इन पहचानों को साथ लेकर जाएगा
इन्सान तो इन्सान
आगे बढ जाने की हठीली दौड में
देश तक हो रहे हैं गुमशुदा
पर यह तो बताइए-
कहां लगाएंगे गुमशुदा देशों की तस्वीरें?
मेरे अंदर उलझे विचारों की आंधियां हैं
इन आंधियों में
क्या मैं भी गुमशुदा हो रहा हूं
या पहले से ही गुमशुदा था?
इस दीवार को फिर एक बार
देख रहा हूं गौर से
क्या मेरी भी तस्वीर है यहां?
नहीं है
पर फिर भी
मुझे जन्म देनेवाला मेरा गांव
न जाने कहां चिपकाता होगा मेरी तस्वीर
अपने मिट्टी सने हाथों से!

मैं गुमशुदा नहीं हूं
इस मिट्टी की बात बताने को
कल ही अपने गांव जाऊंगा
बस में चढकर!

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मूल तेलुगु कविता : दर्भशयनं श्रीनिवासाचार्या

अनुवाद :आर.शांता सुंदरी

1 comment:

  1. "मैं गुमशुदा नहीं हूं
    इस मिट्टी की बात बताने को
    कल ही अपने गांव जाऊंगा
    बस में चढकर!"

    बहुत सुंदर, सार्थक रचना।

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