Thursday, October 6, 2011

फिर एक बार
------------

रोज़ जाता हूं उसी रास्ते से
फिर भी आंखों से
कुछ ओझल होने का अनुभव
कटे पपीते के पेड की बची निशानी
शरीर में मीठा अहसास भर देती है

वहां एक दीवार पर
नाचते थे भित्तिचित्र
उन्हें रूप देनेवाले हाथ
पागलों की तरह भटक भटककर राहों पर
देह को मिट्टी के हवाले कर गए अचानक

कभी न पसीजने वाले दिलों को
अर्थी को कंधा देते देख
गगन अपने जलदेह से उतर आया
और मानवता को गले लगाया...

खुद गाना बन दसों दिशाओं से बतियानेवाला तानपूरा
उस घर के आगे रुक गया अचानक
तानपूरे के तार टूटकर बिखर गए
लाखों आवाज़ें बन
गायक को खो देना क्या है
यह समझ लेना
उसे सिर पर बिठाना ही तो है

बीच रास्ते में रुक जाए तो
कौन कर सकता है बरदाश्त...?
आवाज़ तो चली गई
पर कहीं से एक मीठा सुर
लगातार जागाती ही रही.

--------------------------------------------------------------------------

मूल कविता : पायला मुरलीकृष्णा

अनुवाद :आर शांता सुंदरी

No comments:

Post a Comment