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आँखों की आभा जा बसी नीलकमलों में*: वरवर राव
वरवर राव
छत्तीसगढ़ में 5 जुलाई को एक आदिवासी लड़की को चंदो नामक गाँव के पास एनकाउंटर में मारा गया था। इसको लेकर लिखा तेलुगु के जनकवि वरवर राव का लेख दैनिक ‘आंध्राज्योती’ में प्रकाशित हुआ। तेलुगु से हिन्दी में इसका अनुवाद आर. शांता सुंदरी ने किया है-
घने जंगल में अपने घर के चारों ओर छाए नीरव निश्शब्द में चहकते हुए हालचाल पूछनेवाले परिंदों को तरह-तरह के नाम देना मीना खल्को को पसन्द था। न जाने कितने अनगिनत घण्टे वह इसी तरह गुज़ार देती थी। कभी-कभार दिख पड़ने वाले जानवरों को भी वह इसी तरह नाम दे देती थी।
वह सोलह साल की थी। उसने पाँचवीं तक पढा़ई करके पाठशाला जाना बन्द कर दिया। जंगल में मवेशियों के साथ घूमने की इच्छा से पढ़ाई छोड़ दी थी उसने। उरान आदिवासी जाति के बुद्धेश्वेरी खल्को और गुतियारी के दो लडकियां थीं। मीना बड़ी थी और चौदह साल की सजंति छोटी थी। उनके पास पाँच बकरियाँ थीं। उन्हीं के सहारे उस परिवार का गुजारा चलता था। मीना माँ के साथ बकरियाँ चराते दिनभर जंगल में घूमती रहती थी। घर पर रहती तो भी सारा वक्त पशु-पक्षियों के संग ही बिताती थी। उसने अपनी पाँचों बकरियों के नाम भी रखे- सुखिनि, सुक्ता, सुराइला, भूट्नी और लधगुड्नी।
मीना के घर का आसपास बड़ा सुन्दर था, बस उनकी झोपड़ी ही जर्जर थी। घर के पास ही एक तालाब था। तालाब के किनारे पहाड़ थे। हरीभरी घास के मैदान पेडों की कतार जैसे एक-दूसरे के हाथ पकड़े खडे़ हों। झारखण्ड के जंगलों को छत्तीसगढ़ से जोड़ते से चुनचुना पहाड़, उन पहाड़ों से कूदते झरने।
बिजली की बात छोडि़ये वहां अबतक आधुनिकता का पदार्पण ही नहीं हुआ। जुलाई 5 तारीख को मीना अपनी सहेली से मिलने जंगल में गई। कर्चा से दो-तीन किलोमिटर दूर स्थित चंदो नामक गाँव के पास वह एक एनकांउटर में फंस गई।
‘‘तड़के तीन बजे के करीब हमने तीन बार गोलियाँ चलने की आवा़ज सुनी। डर के मारे घर से बाहर नहीं निकले। छः बजे जाकर देखा तो बाहर पुलिस वाले दिखाई दिये।’’ एनकांउटर जहाँ किया गया था, उसके सामनेवाले घर में रहनेवाली विमला भगत ने बताया। पुलिस ने उन्हें चेतावनी दी कि उस घटना के बारे में किसी से भी कुछ न कहें। चंदो और बलरामपुर के पुलिसवाले यह नहीं मान रहे हैं कि सिर्फ तीन बार गोलियों की आवाज सुनाई दी, पर उससे ज़्यादा गोलियाँ चलने के निशान वहाँ नहीं मिले। ‘एनकाउंटर कहां हुआ था? किसी भी एनकाउंटर में दोनों तरफ से कम से कम पचास-साठ राउंड चलते हैं। यहाँ सिर्फ तीन गोलियाँ चलाई गईं। उनमें से दो मीना के शरीर के पार हो गईं।’ ये बातें सिर्फ चंदो गांव के सरपंच ही नहीं, वहाँ के लोग भी कह रहे हैं।
छत्तीसगढ़ के गृह मंत्री नानकीराम कंवर का कहना है कि मीना का इतनी रात गए जंगल में दिखाई देना ही यह सिद्ध करता है कि उसके माओवादियों से सम्बन्ध बने हुए हैं। वह एक घना बीहड जंगल है इसलिए वहाँ माओवादियों के होने की बात कही जा रही है। लेकिन पुलिस इस बात का सबूत पेश नहीं कर पा रही है कि वहाँ सचमुच माओवादी गुट छुपे हैं। अधिकारिक घोषणा के अनुसार एनकाउंटर तड़के तीन बजे हुआ था। कुछ घण्टे बाद मीना का घायल शरीर वहाँ पड़ा मिला। बलरामपुर का एस.पी. जितेन्द्र का कहना है कि बाकी नक्सलवादी भाग गए होंगे। उसका कहना है, ‘एनकाउंटर रात के अन्धेरे में किया गया था। पुलिसवालों ने सुबह छः बजे तलाशना शुरू किया, तब वह घायल स्थिति में उन्हें वहाँ दिखाई दी। उसने अपने कुछ नक्सलाइट साथियों के नाम भी बताए।’
एनकाउंटर जहाँ हुआ था उस जगह से चंदों पुलिस स्टेशन चार किलोमीटर दूर है। वह खुली जगह है जहाँ किसी तरह की ओट नहीं है।
‘‘नक्सलियों के साथ किसी के सम्बन्ध हों तो पडोसियों को ही नहीं दूर के रिश्तेदारों तक को पता चल जाता है। वह लड़की नक्सलवादी नहीं थी।’’ अयिकुराम ने कहा। वह कर्चा से बीस किलोमीटर दूर स्थित एक सरकारी पाठशाला में अध्यापक है।
इस एनकाउंटर के विरुद्ध सरगुजा के आसपास उमडे़ आन्दोलन के आगे छत्तीसगढ़ की सरकार को घुटने टेकने ही पडे़ । उसने मजिस्टीरियल जाँच कराने का आदेश दिया (छत्तीसगढ़ में एनकाउंटरों पर मजिस्टीरियल तहकीकत नहीं होती। कई बार पोस्टमार्टम भी नही होता। लाश को रिश्तेदारों के हवाले भी नहीं किया जाता)। केस सीआइडी को सौंप दिया गया। चंदों पुलिस स्टेशन के सभी पुलिस अधिकारियों को अंबिकापुर पुलिस लाइन्स में भेज दिया गया। मीना के परिवारवालों को दो लाख रुपये हर्जाना दिया गया। इस एनकाउंटर से किसी तरह का नाता न होने पर भी उसी वक्त मीना के भाई रवीन्द्र खल्को की चंदो बालिका हॉस्टल में नौकरी लग गई। पुलिस परोक्ष रूप से इसे झूठा एनकाउंटर स्वीकार कर चुकी है। यह सिद्ध करने के लिए चंदो के सरपंच ने कहा, ‘‘क्या आपने कभी नक्सलियों के भाइयों को सरकारी नौकरी मिलने की बात सुनी है।’’ जि़ला कलक्टर जी.एस. धनुंजय ने कहा, ‘‘यह नौकरी मुख्यमंत्री रमण सिंह के कहने पर ही दी गई थी। वे (खल्को जनजाति) आदिवासियों में सबसे गरीब हैं। इन्सानियत के नाते उस लडके को नौकरी दी हमने। हॉस्टल में चपरासी की जरूरत थी। योग्यता न होने के बावजूद दिहाडी पर उसे नौकरी दी। वह दसवीं पास कर लेगा तो स्थाई नौकरी मिल जाएगी। फिलहाल उसे चार हज़ार रुपये मिल रहे हैं।’’
अगर मीना के एनकाउंटर के बाद अपनी गलती सुधारने की बात पर यह किस्सा यहीं खतम हो जाती तो यह पूरी कहानी नहीं बनती। और न ही हमारे ‘हिन्दू’ देश में पुरुषों के नजरिये को समझने में इससे मदद मिल सकती। कहीं इस पुरुष स्वभाव को अपनी गलती मानना खल रहा था। अपमान की भावना जाग रही थी। राज्य सरकार, वह भी बी.जे.पी. सरकार को छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के विद्रोह को कुचल देने के लिए विपक्ष कांग्रेस और केन्द्र में कांग्रेस सरकार का समर्थन हमेशा से मिलता रहा है। केन्द्र आर्थिक और फौजी सहायता भी पहुँचा रहा है। जंगल में पूरे रूप से नक्सलियों का प्रभाव है, यह बात सारा संसार जानता है। वहाँ आदिवासी रहते हैं…अत्यंत निर्धन आदिवासी जनजातियाँ रहती हैं। और मीना ठहरी अति निर्धन आदिवासी जनजाति की लड़की। कितने ही तरह के अधिकार एक तरफ और कुचले जाने की कई योग्यताओं से युक्त एक अनाम लडकी एक तरफ। माओ ने जिन्हें चौथे जुआ का बोझ ढोने लायक कहा था, वह शायद इस तरह की स्त्री ही हों। और फिर यह तो और भी भोज डाले जाने लायक आदिवासी स्त्री थी। स्त्री भी नहीं, कुँवारी लडकी थी।
न जाने क्यों मुझे एक बारगी ‘पाथेर पांचाली’ फिल्म की दुर्गा और ‘समाप्ति’ फिल्म की मृणालिनी याद आ गई। मृणालिनी इसलिए कि उसमें भी प्रकृति के प्रति प्रेम भरा था। दुर्गा में भी यह बात थी। उसके लिए रेल एक अजूबा था। उसमें इस कदर भोलापन था कि अमीरों के आडम्बर और गहने-लत्ते देखकर अविश्वास से आँखें कमल की पंखुडियों की तरह फैल जातीं। समाज में असमानता इन्सानों पर क्या प्रभाव डालती है? दोनों पक्षों के इन्सानों को इन्सान न समझना सिखाती है। अमीरों के पास सबकुछ है। न्याय, नीति, पवित्रता, अधिकार…। अभावग्रस्त लोग चोर हैं, अपराधी हैं, पतित हैं, भ्रष्ट हैं। ये मापदण्ड कौन तय करता है? अमीर ही। जिनके पास शिक्षा है, जिनके पास अधिकार नहीं है, उनसे अधिकार प्राप्त करके वे अभावग्रस्तों के लिए एक अपराध से भरे संसार की सृष्टि करनेवाली दण्ड संहिता की रचना करते हैं।
मीना के एनकाउंटर होने के दो महीने बाद गृह मंत्री नानकीराम कंवर ने कहा, ‘‘मीना व्यभिचारिणी थी। ट्रक ड्राइवरों के साथ उसके नाजायज संबंध थे।’’ एनकाउंटर हुआ तब वह घर से दूर थी इसका कारण नक्सलियों से उसका संबंध है। इस बात की पुष्टि होती है, यह ज्ञान भी उस पुरुष सत्तात्मक पुलिस मंत्री के दिमाग में कौंध उठा। कुछ पुलिसवालों को भी यह विश्वास करने योग्य अभियोग लगा। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में ‘मूत्र नली में छेद हो गए, गर्भाशय का ऊपरी भाग चिर गया’, इस तरह के लैंगिक अत्याचार को सूचित करनेवाली बातें जोडी़ गईं। एक अधिकारी का कहना था कि चंदो पुलिस स्टेशन से पूरी टुकडी को दूसरी जगह बदलने के बाद इस तरह की पोस्टमार्टम रिपोर्ट पेश करना बडी़ हैरानी की बात है। ‘रिपोर्ट में सिर्फ घावों के बारे में और मौत की वजह के बारे में लिखा जाना चाहिए था’, यह उसका कहना था। गाँव वालों का कहना था कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मीना के शराबी होने की बात बाद में जोड़ दी होगी।
बलरामपुर के एस.पी. ने कहा कि मीना की योनि के अंश फोरेन्सिक लेब में भेजे गए हैं और नतीजे आने अभी बाकी हैं। लेकिन गृह मंत्री ने फैसला सुना दिया कि मीना बदचलन थी। सरपंच ने दुःख व्यक्त किया कि भले ही सभी गाँववाले खल्को परिवार का साथ दे रहे हों, फिर भी यह दाग उस परिवार का जीना दूभर कर देगा। क्या मीना नक्सल थी? बदचलन थी? उसकी मौत का राज़ उसके दोस्त जंगल के दिल को मालूम था। ‘‘उसपर पहले उन्होंने (पुलिस) अत्याचार किया। फिर उसे मार डाला। पहले मेरी बच्ची को उन लोगों ने नक्सल कहा। अब कहते हैं कि वह बदचलन थी। यही आरोप मुझे सबसे ज़्यादा दुःख पहुँचा रहा है’’, मौन तोड़कर बडी़ वेदना से भरी मीना की माँ बुद्धेश्वरी देवी कह रही हैं। मीना की छोटी बहन सजंति सोलह साल की अपनी बहन की पासपोर्ट साइज तसवीर हमेशा अपने पास रखती है और जो भी मिलने आता उसे दिखाती रहती है।
जुलाई छः तारीख को मीना की लाश को कन्हर नदी तट पर दफनाने के बाद उसका नेलपालिश, हेयरक्लिप, फ्राॅक और किताबों से भरी उसकी छोटी-सी संदूकची को उसके परिवार ने उसी नदी में बहा दिया। दुर्गा के (चोरी करके) छिपाये कण्ठहार को आँसू बहाते हुए जिस तरह अपू ने तालाब के पानी में छोड़ दिया था, उसी तरह इस बोझ को ढोनेवाली व्यवस्था से सजंति और उसके माँ-बाप कब मुक्त होंगे?
*तेलुगु के महाकवि गुरजाड अप्पाराव की कविता की एक पंक्ति
-Translated by R.Santha Sundari
Sunday, October 23, 2011
Thursday, October 6, 2011
गुमशुदा
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वहां कोई भी आराम और चैन से नहीं रहता
चढनेवाले,उतरनेवाले,राह देखनेवाले
बहुत शोर रहता है
वहां खडा दिखाई देता है बस स्टेंड
पर असल में ऐसा खडा होता नहीं वह बिल्कुल.
बस से उतरकर थका मांदा निकला था बाहर मैं
तो बगल की दीवार ने हाय यह क्या किया!
मेरी नज़रों को खींच लिया अपनी तरफ
इश्तहारों से हक्काबक्का वह दीवार
गुमशुदा लोगों की तस्वीरों से भरी वह दीवार
बच्चों युवाओं बूढों की तस्वीरों से अटी वह दीवार
पर गुमाशुदा होने केलिए उम्र क्या
तस्वीरों के नीचे विवरण उनकी पहचान के
नाम, गांव, कद- काठी
भाषा,वेश भूषा,रंग- रूप
अंत में...
कहीं दिख जाने पर खबर कर देने की
आंसू भरी विनती!
क्या राह भूलने से गुमशुदा हुए थे ये
या चले गए अपनी अलग राह तलाशते
या कोई राह न पाकर दुनिया छोड गए
अपमान,आक्रोश,आवेश?
नादानी,नासमझी,बेचैनी?
क्यों चले गए होंगे?
अब कहां होंगे
किस छांव में
किस धूप में
किस खेमे में
किस चौखट पर
किस नदी में
किस शहर की चकाचौंध से भरी रेगिस्तान में
इनके गांव में इनके घर
राह तकते होंगे इनकी उदास आंखों से
इस खालीपन का बखान कैसे करे कोई!
आदमी के खो जाने से घेर लेता है जो खालीपन
क्या कोई नाप सकता है उसे?
इस नाप तोल से परे हैं
विषाद से भीगे वे घर-
घरों के दरवाज़ों और खिडकियों में
खुला रहता है विश्वास
सही रास्ता पकडकर
कभी न कभी वापस ज़रूर आएंगे
अपने साथ खुशी का राग ज़रूर लाएंगे!
पर कुछ ही दिनों में
ये इश्तहार फीके पड सकते हैं
इनकी जगह नई तस्वीरें नए नारे
ताज़े झूठे विज्ञापनों के महा आफर
दिखाई दे सकते हैं
या इस दीवार को तोडकर
एक माल ही खाडा हो जाए कौन जाने!
कुछ दिन बाद
इनसानों की पहचान ही बदल जाए
कौन कह सकता है!
इन पहचानों के बूते पर
कैसे पहचान पाएंगे
कब पहुंचेगा फिर
उन घरों में खुशी का राग?
चारों तरफ नज़र दौडाई मैंने
कुछ भी नहीं चल रहा था.
चाल तो जैसे रह ही नहीं गई
भागदौड,शोर,मुखौटे,धक्कामुक्की
हर कोई ऐसा चल रहा था
मानो खो गया हो
इस मायाजाल से भरे समय में
किसका पता किसको है
कौन किसे तलाश सकता है
सब के सब पागल हैं!
इश्तहारों पर यकीन करते हैं
कौन इन पहचानों को साथ लेकर जाएगा
इन्सान तो इन्सान
आगे बढ जाने की हठीली दौड में
देश तक हो रहे हैं गुमशुदा
पर यह तो बताइए-
कहां लगाएंगे गुमशुदा देशों की तस्वीरें?
मेरे अंदर उलझे विचारों की आंधियां हैं
इन आंधियों में
क्या मैं भी गुमशुदा हो रहा हूं
या पहले से ही गुमशुदा था?
इस दीवार को फिर एक बार
देख रहा हूं गौर से
क्या मेरी भी तस्वीर है यहां?
नहीं है
पर फिर भी
मुझे जन्म देनेवाला मेरा गांव
न जाने कहां चिपकाता होगा मेरी तस्वीर
अपने मिट्टी सने हाथों से!
मैं गुमशुदा नहीं हूं
इस मिट्टी की बात बताने को
कल ही अपने गांव जाऊंगा
बस में चढकर!
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मूल तेलुगु कविता : दर्भशयनं श्रीनिवासाचार्या
अनुवाद :आर.शांता सुंदरी
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वहां कोई भी आराम और चैन से नहीं रहता
चढनेवाले,उतरनेवाले,राह देखनेवाले
बहुत शोर रहता है
वहां खडा दिखाई देता है बस स्टेंड
पर असल में ऐसा खडा होता नहीं वह बिल्कुल.
बस से उतरकर थका मांदा निकला था बाहर मैं
तो बगल की दीवार ने हाय यह क्या किया!
मेरी नज़रों को खींच लिया अपनी तरफ
इश्तहारों से हक्काबक्का वह दीवार
गुमशुदा लोगों की तस्वीरों से भरी वह दीवार
बच्चों युवाओं बूढों की तस्वीरों से अटी वह दीवार
पर गुमाशुदा होने केलिए उम्र क्या
तस्वीरों के नीचे विवरण उनकी पहचान के
नाम, गांव, कद- काठी
भाषा,वेश भूषा,रंग- रूप
अंत में...
कहीं दिख जाने पर खबर कर देने की
आंसू भरी विनती!
क्या राह भूलने से गुमशुदा हुए थे ये
या चले गए अपनी अलग राह तलाशते
या कोई राह न पाकर दुनिया छोड गए
अपमान,आक्रोश,आवेश?
नादानी,नासमझी,बेचैनी?
क्यों चले गए होंगे?
अब कहां होंगे
किस छांव में
किस धूप में
किस खेमे में
किस चौखट पर
किस नदी में
किस शहर की चकाचौंध से भरी रेगिस्तान में
इनके गांव में इनके घर
राह तकते होंगे इनकी उदास आंखों से
इस खालीपन का बखान कैसे करे कोई!
आदमी के खो जाने से घेर लेता है जो खालीपन
क्या कोई नाप सकता है उसे?
इस नाप तोल से परे हैं
विषाद से भीगे वे घर-
घरों के दरवाज़ों और खिडकियों में
खुला रहता है विश्वास
सही रास्ता पकडकर
कभी न कभी वापस ज़रूर आएंगे
अपने साथ खुशी का राग ज़रूर लाएंगे!
पर कुछ ही दिनों में
ये इश्तहार फीके पड सकते हैं
इनकी जगह नई तस्वीरें नए नारे
ताज़े झूठे विज्ञापनों के महा आफर
दिखाई दे सकते हैं
या इस दीवार को तोडकर
एक माल ही खाडा हो जाए कौन जाने!
कुछ दिन बाद
इनसानों की पहचान ही बदल जाए
कौन कह सकता है!
इन पहचानों के बूते पर
कैसे पहचान पाएंगे
कब पहुंचेगा फिर
उन घरों में खुशी का राग?
चारों तरफ नज़र दौडाई मैंने
कुछ भी नहीं चल रहा था.
चाल तो जैसे रह ही नहीं गई
भागदौड,शोर,मुखौटे,धक्कामुक्की
हर कोई ऐसा चल रहा था
मानो खो गया हो
इस मायाजाल से भरे समय में
किसका पता किसको है
कौन किसे तलाश सकता है
सब के सब पागल हैं!
इश्तहारों पर यकीन करते हैं
कौन इन पहचानों को साथ लेकर जाएगा
इन्सान तो इन्सान
आगे बढ जाने की हठीली दौड में
देश तक हो रहे हैं गुमशुदा
पर यह तो बताइए-
कहां लगाएंगे गुमशुदा देशों की तस्वीरें?
मेरे अंदर उलझे विचारों की आंधियां हैं
इन आंधियों में
क्या मैं भी गुमशुदा हो रहा हूं
या पहले से ही गुमशुदा था?
इस दीवार को फिर एक बार
देख रहा हूं गौर से
क्या मेरी भी तस्वीर है यहां?
नहीं है
पर फिर भी
मुझे जन्म देनेवाला मेरा गांव
न जाने कहां चिपकाता होगा मेरी तस्वीर
अपने मिट्टी सने हाथों से!
मैं गुमशुदा नहीं हूं
इस मिट्टी की बात बताने को
कल ही अपने गांव जाऊंगा
बस में चढकर!
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मूल तेलुगु कविता : दर्भशयनं श्रीनिवासाचार्या
अनुवाद :आर.शांता सुंदरी
टिहिली का ब्याह
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दो पहाडियों के बीच रिश्ता बना.बाजे गाजे बजने लगे.गांव शहनाई और ढोलक के सुरों में भीग गया.पूरा गांव ’धिंसा’नाचने लगा तो रात रंगीन हो गई.हर एक पेड हाथ हिलाते हुए फूल बरसाने लगा.धरती पर चांदनी रुपहले धागों से बुनी चूनर सजाने लगी ...टिहिली के ब्याह में!
पहाडी देवताओं का ध्यान करते हुए,गाते हुए जोडी को आसीस देने की प्रार्थना करने लगा था पुरोहित.उसने दूल्हे को मंडप में लाने को कहा.लोग दूल्हे को ढूंढने लगे...घर में देखा...गली में ढूंढा.गांव का चक्कर लगाकर आए.
इस बीच एक लडका भागता आया और चिल्लाने लगा कि दूल्हा धर्मू,कहीं भी नहीं मिला.
सब उतावले होने लगे.लोग समझने लगे कि टिहिली को चिढाने केलिए कहीं जाकर छिप गया होगा.गांव का पंडित दीसरी उंगलियों पर कुछ गिनते हुए आसमान में सितारों को देखने लगा.मुहूरत में अब कुछ ही समय बाकी रह गया था,तो सब के दिलों में तरह तरह के संदेह और सवाल उठने लगे.
धर्मू के घर के सामने हरे पत्तों का चांदोवा बना था,उसके नीचे एक चारपाई थी.उसपर एक मूसल,रस्सी और अनाज मापने का एक बर्तन थे.घर के द्वार के सामने ताज़ा खोदी गई नाली थी.चांदोवा के नीचे जंगली फूलों की महक फैली थी.नई नवेली दुल्हन टिहिली ने परंपरागत विधि से साडी बांधी थी.उसकी आंखों में हल्की सी नमी थी...
शाम तक शादी की रस्मों में शरीक होता रहा था धर्मू...द्वार के सामने बनी नाली पर खडॆ होकर पुरोहित के आसीस पानेवाला धर्मू...दोनों के पैरों के बीच आग में सुगंधित धूप डालकर,उस धुएं को नाली के पार कराते वक्त,दोनों के पैरों के बीच मुर्गे की बलि देकर उस खून को नाली में बहाते वक्त...टिहिली को गिरने से बचाने केलिए उसकी कमर में हाथ डालकर गुदगुदी पैदा करनेवाला धर्मू...कहां गया?चारपाई पर बैठकर,उल्टे बर्तन पर हल्के से टिहिली के पैरों को अपने पैरों से दबानेवाला धर्मू...रिश्ते नातेदारों से जंगली फूल और पत्ते अक्षत के रूप में स्वीकार करनेवाला धर्मू...मूसल को हाथों से घेरकर टिहिली के गले में हल्दी से रंगा धागा(मंगलसूत्र)बांधने के ऐन वक्त पर वह कहां चला गया?
"मैंने पहले ही कहा ना था? वह पढा लिखा है,उसपर हम कैसे यकीन कर सकते हैं?"किसीने टिप्पणी की.
"चुप कर तू.वह ऐसा नहीं है.पता नहीं उसके साथ कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई?"
तरह तरह के सवाल,शंकाएं सर उठाने लगीं.वहां की हवा इस वजह से गरम हो गई.खुशबू बिखेरनेवाली हवा थम गई.टिहिली की आंखों से आंसुओं की बूंदें एक एक कर गिरने लगीं...
जब धर्मू डिग्री के दूसरे साल में था,तब उसके मेडम ने उसे टिहिली के पास यह कहकर भेजा था कि,इससे बात करके देख लो,तुम्हारे शोध कार्य केलिए शायद कुछ विषय मिल जाए.
धर्मू आदिवासी बस्ती में गया और टिहिली को अपना परिचय देते हुए कहा,"मेरा नाम धर्मू है.केंपस से आ रहा हूं.आदिवासी कलाओं के बारे में शोध कार्य कर रहा हूं."
"टिहिली को संकोच करते देखा तो फिर कहा,"आप इतमीनान रखिए.बस मुझे आपसे सिर्फ कुछ जानकारी लेनी है,बस."धर्मू उसे केंटीन की ओर ले गया.बातों बातों में मालूम हुआ कि धर्मू के मां बाप गुज़र गए और वह रिश्तेदारों के घर में रहकर बडा हुआ.किसी सज्जन की मदद से यहां तक पढाई कर सका,और उन्हीं के प्रोत्साहन से अब यह शोध कार्य भी शुरू किया.यह भी पता चला कि धर्मू भी आदिवासी परिवार से ही है.
"आदिवासी होकर हम इस तरह अपना रहन सहन,वेश भूषा,अपनी भाषा संस्कृति भूल रहे हैं.यह बडे दुःख की बात है,है ना?"उसने चाय की घूंट भरते हुए कहा.
टिहिली ने सिर हिलाकर हामी भरी.
उसके बाद अक्सर दोनों कालेज में मिलने लगे.त्योहारों के बारे में,आजकल गांवों की हालत के बारे में,किसी न किसी बात पर बोलता रहता था धर्मू.उसके रूममेट माज़ाक करते तो भी वह हमेशा गंभीर बना रहता.कभी सीमा नहीं पार करता था.
"टिहिली!"एक दिन उसने नाम लेकर लडकी को पुकारा.
टिहिली ने आंख उठाकर देखा.
"आपका नाम बडा अजीब है!"
टिहिली आंखों से हंसी.
"आपका नाम पुकारता हूं तो लगता है कोई जंगली चिडिया उड रही है...या जंगली फूल हवा में हल्के से झूम रहा है!"धर्मू ने कहा तो टिहिली शरमा गई.
गरमियों की छुट्टियों में...
गांव से दूर पहाड पर टिहिली काम कर रही थी,तभी एक आदिवासी गीत सुनाई दिया...
’आलिरोदूता पहाड पर
कंद मूल उग आए
पत्ते पर लिख भेजा संदेश
बांस की टहनी पर चढ आऊंगी!’
गीत पुराना था.लगता था कोई आदि मानव खुले गले से गा रहा है.पर आवाज़ जाना पहचाना लगा...कहां सुना था? टिहिली सोच में पड गई.
सिर उठाकर देखा ...धर्मू कुदाल लेकर मिट्टी खोद रहा था.वहां अचानक वह दिख गया तो मन के किसी कोने में छुपी खुशी बाहर प्रकट हो गई.अनायास कदम उसकी ओर चल पडे.
पहाड की चोटी...गांव बहुत दूर था.नीला आसमान,हरे भरे पेड,डालियों पर चहचहाते पंछी ,इन्हें छोडकर आसपास कोई नहीं था.
"तुम मेरी देखभाल कर सकोगे?"टिहिली ने पूछा.
"खुद परख लो,मालूम हो जाएगा!"अपने मज़बूत हाथ दिखाते हुए धर्मू ने कहा.
"इतनी दूर क्यों आए?"
"तुम्हारे लिए इन पहाडों को पार करके आ गया."
"खाना खिला सकोगे मुझे?"
"आटे का पसावन बनाकर खिलाऊंगा."
"और क्या करोगे?"
"हाट में लाल चोली का कपडा खरीद दूंगा.बस में फिल्म देखने ले जाऊंगा."
"और?"
"तुम्हें बुखार हो जाए तो दवा देकर सेवा करूंगा."
"और?"
"काले आसमान के नीचे बांहों में भींच लूंगा!"
वह शरमा गई...जैसे लाल लाल ढाक के फूल चारों ओर बिखर गए!
वह हंस पडा,जैसे हवा का झोंका बह गया...जब तक हवा का झोंका चलता रहा,ढाक के फूल गिरते रहे.
* * *
’जेके गांव की लडकी बालों में चमेली के फूल लगा आई
यहां चारपई बिछाकर किस ओर चली गई?’
हवा के साथ यह गीत कानों तक आ रहा था.पहाड,नदियां पार कर,डाली डाली से बतियाते हुए चला आ रहा था वह गीत.वह जमाई सास को संबॊधित करके गानेवाला गीत है.ब्याह से पहले रिश्ता मांगने केलिए आनेवाला यह गीत गाता चला आता है.
दीसरी जानता था कि वे शुभ दिन थे.उसने आसमान की ओर देखा. सूरज सिर के ऊपर चढ आया.ये घडियां भी अच्छी हैं.किसी गांव से लडकेवाले लडकी का हाथ मांगने आ रहे हैं.गाना पास आ गया.सामने वह युवक था.उसके साथ बुज़ुर्ग भी थे.सब अपरिचित.सीधे उसके घर की तरफ आने लगे तो वह हडबडाकर उठा और पीने केलिए पानी देकर चारपई डाली.
"कैसे हैं?कब निकले थे घर से?"दीसरी ने यह जानने के लिए पूछा कि वे किस गांव से आ रहे हैं.
"सुबह सुबह निकल गए थे संदुबडि से."
"अच्छा इसी लिए तो...ओडीशा के पहाडों के पार है ना आपका गांव?तभी कहूं पहचाने नहीं लग रहे हैं!"
देहलीज़ पर साडी और चूडियां रखीं.गिलास में शराब डाली.दीसरी समझ गया कि वे उसकी बेटी का हाथ मांगने आए हैं.
"दूल्हा कौन है?"दीसरी ने पूछा
धर्मू मुस्कुराया.दरवाज़े के पीछे से झांकती टिहिली शरमाकर अंदर भाग गई.दीसरी ने गौर किया.उस दिन पहाड पर धर्मू का गाना और उसके बाद टिहिली के सवालों के बारे में वह सुन चुका था.आदमी का गाना सुनकर औरत जवाब दे तो समझना चाहिए कि उसे आदमी पसंद है.
"आप किस जात के हैं?"दीसरी ने पूछा
"आरिकोलु,और क्या?"
दीसरी ने मन ही मन हिसाब लगाया कि इस जात में पहले कितने लोगों के साथ उसके पुरखों ने ब्याह रचाए थे.
गांव के बडे बुज़ुर्ग एक एक करके आने लगे.लडके को एक नज़र देखकर बैठने लगे.सहेलियां चिढाने लगीं तो टिहिली शरम से लाल होने लगी.दीसरी और बुज़ुर्गों के मन में एक ही सवाल हलचल मचा रहा था,कौन है यह जवान?
मौका पाकर धर्मू ने टिहिली को पकडा और पूछा,"सच बताना,क्या तुम मुझे नहीं पहचानती?"
"मैं तो जानती हूं...पर बाबूजी और गांव के बडे,उन्हें भी तो मालूम होना ज़रूरी है ना?"टिहिली ने उदास होकर कहा.दोनों जानते थे कि उस रोज़ धर्मू के बारे में सब समाचार मालूम न होने की वजह से ही दीसरी ने साडी और चूडियों को छूने नहीं दिया था.शराब को भी हाथ नहीं लगाया था.
टिहिली का बाप उस गांव का मुखिया था.सबको भला बुरा समझानेवाला वही गलत काम करे तो फिर गांव बिगड जाएगा,वहां के नीति नियम खराब हो जाएंगे!इन बातों के अलावा,धर्मू पर शक करने का असली कारण था,जब वह रिश्ता मांगने उनके गांव आया तब...उस दिन...
सारा गांव चांदनी की रोशनी में,ढोलकों के धम धम के बीच उत्सव मनाते हुए नाच रहा था...उसी रात,सोमेसु,उर्फ चम्द्रन्ना ने गांव में कदम रखा.उसके पीछे एक युवती भी थी.ढोलकों की धम धम थमने तक गांव के लोग समझ गए कि वे दोनों पुलिस के आगे आत्मसमर्पण कर चुके हैं,दोनों में प्यार हो गया था और इसलिए गुट में रहकर काम करना मुश्किल हो गया था.आम लोगों जैसा जीवन बिताने का फैसला कर लिया था.यह खबर अगले दिन अखबारों में भी छप गई.
अगले दिन गांव में पुलिस के सिपाही आ गए.एस पी के सामने दोनों ने एक दूसरे को वरमालाएं पहनाईं.एस पी साहब ने दोनों को नये कपडे और आशीश दिए,और कहा"इन्हीं की तरह बाकी लोग भी गुट को छोडकर समाज में आकर मिल जाएं,यही हमारी इच्छा है!"
तभी रिश्ता मांगने आए धर्मू पुलिसवालों से बात करते हुए सबको दिखाई दिया.उस दिन भी उनके मन में यही सवाल उठा,’कौन है यह?’इसके गांव में कदम रखते ही यह आत्मसमर्पण करनेवाले अचानक कैसे आ धमके?फौरन पुलिस,पत्रकार...! किसका आदमी है यह?सब के दिलों में डर,संदेह उठने लगे.
शादी का मंडप सुनसान हो गया...हर तरफ खामोशी छा गई.सब अपने अपने काम में मशगूल हो गए .तरह तरह की बातें करने लगे..."ब्याह में माइक सेट का होना ज़रूरी है.बेंड होना चाहिए,यह क्या है भाई पुराने ज़माने का ब्याह लगता है?"एक युवक झुंझला उठा.
"कहीं पुलिस ने तो कुछ नहीं किया...?"किसीने कहा.अचानक उस बात से मंडप में फैली खामोशी टूट गई.
"अरे क्या बात करते हो भाई?उन्हें इससे क्या लेनादेना?"धर्मू के एक दोस्त ने कहा.
"क्या जाने?हमारे गांव में वही एक पढालिखा बंदा है.बात बात पर टाउन जाता रहता है.इसी बात से कहीं उसपर उन्हें शक हो गया हो...?"
"अरे बेकार की बातें करके हमको भी डरा रहे हो...छोड ना...!"कहने को तो कह दिया पर उस आदमी के मन में भी डर घर करने लगा....कहीं यही सच ना हो...
टिहिली का दिल ज़ोरों से धडकने लगा.उसकी आंखें भर आईं.मंडप में हो रही बातें और पुरानी यादें मिलकर उसके मन में खलबली मचाने लगीं...
’सास से कहकर पिटवाया
ससुर से कहकर पिटवाया
सासू मां कहो तुम्हारी बेटी से बाहर आए
मैं फूल देकर चला जाऊंगा’
कुवी बोली में दूल्हा धर्मू गाते हुए नाचने लगा.उसके पीछे पहाड चलकर आएगा ,उसपर बहता झरना चलकर आएगा.सारे पत्ते मिलकर उसके गीत में ताल दे रहे हैं.
फिर एक दिन...
साडी और चोली देहलीज़ पर रखीं.गिलास में शराब डालकर रखा.
दीसरी ने बेटी की ओर देखा.उसके चेहरे पर उदासी थी.वह बाप की इजाज़त का इंतज़ार कर रही थी.नहीं माना तो...? आधी रात को उसके साथ...!तब वह क्या कर सकेगा?बेटी ने जो इज़्ज़त दी उसे बनाए रखना ही ठीक होगा.बिन मां की बच्ची है.उसके मन मुताबिक शादी करना ही ठीक है,यह मेरे लिए भी खुशी की बात होगी.दीसरी सोचने लगा.सब उसके फैसले के इंतज़ार में थे.
उसने सिर हिलाया...’हां’ कहा.शराब का गिलास उठाया,दो चार बूंद मुंह में डालकर दूल्हे के बाप को दिया.टिहिली की आंखों से चांदनी झरने लगी.उसकी हंसी सुनकर गली के छोर पर ढोल बज उठा.सब लोगों ने शराब पी.साडी और चूडियों की तरफ टिहिली ने प्यार से देखा.शहनाई के सुरों में सारी गलियां भीग गईं.जंगल पर से गुज़रकर वह खुशबू धर्मू के दिल को छू गई.सारा गांव पंक्तिबद्ध होकर धिंसा नाचने लगा.
बेटी के ब्याह का महूरत निश्चय किया दीसरी ने.उस धूमधाम के बीच वापस लौटते वक्त एक युवक ने आकर धर्मू के कान में कुछ कह दिया.धर्मू के चेहरे का रंग बदल गया.
"इस वक्त?"धर्मू ने पूछा.
"हां,अभी...गांव के बाहर हैं वे"युवक ने बताया.
"चल..."धर्मू उसके साथ हो लिया.
गांव के सिवानों में,सडक से दस कदम दूर पेड के नीचे एक सेंट्री खडा था.उसके पीछे भारी बैग और हाथियार लिए चट्टानों पर बैठे थे कुछ लोग...काले सायों की तरह.जंगल के अंदर कहीं एक तीतर बोलने लगा.चांद को एक बादल का टुकडे मे ढंक दिया.
"अब तुम जा सकते हो,"यह सुनते ही धर्मू वापस लौट आया.
दीसरी ने जो महूरत निशित किया वह घडी आ गई.दूल्हे का परिवार दुल्हन के घर पहुंच गया.ढोलकों का शोर,शहनाई के सुर पहाडों में गूंजने लगे.पुरोहित सभी पहाडी देवताओं का स्मरण करते हुए प्रार्थना करने लगा कि लडकी को सभी भूत प्रेतों से बचाए,वह खूब बच्चे पैदा करे और सुखी रहे.उसके बच्चे पहाड पर कामकाज करने की हालत में तंदुरुस्त रहें इस बात का आशीर्वाद देने लगा.
नई लुंगी में चावल बांधकर,मुर्गे को देवता के आगे रखकर फिर दूल्हे को पकडाया.घडियां गिनने के बाद कहा,"अब निकल पडो!"
" यह लडकी हमारे संग खेली थी
साथ मिलकर काम करती रही
अब तेरे संग चल पडी
डाल की कली कहीं मिट्टी में न गिर जाए
फूल बने
फल बने
बीज बन फिर उगे..."
अपनी बोली में, सारा गांव, यह गीत बनकर,टिहिली और धर्मू को विदा करने सिवानों तक साथ चला.नई कोंपल से भरे ढाक के पेड सी थी टिहिली.जंगल की समूची सुंदरता उसके चेहरे में रौनक पैदा कर रही थी.लोगों ने उसके सिर पर फूलों की छतरी पकडी.उसके ऊपर साडी को फैलाकर पकडा.फूल जैसी लडकी पर कोई भी फूल ना गिरे...इमली का फूल तो बिल्कुल भी ना गिरे...ऐसे उमंग से भरे गीत गाते हुए चलने लगे.
"आपकी लडकी हमारे घर का दीया होगी
सुख हो या दुःख हमारे संग रहेगी
यह हमारे घर की देवी है
इसकी आंखों को कभी भीगने नहीं देंगे हम"
दूल्हे का मामा टिहिली को कंधे पर उठाकर आगे बढा.पत्थरों पर चलते वक्त कहीं उसके पैरों का महावर बिखर न जाए इस बात का ध्यान रख रहे हैं.रास्ते भर जंगली फूलों की महक चलने के श्रम को भुला रही है.पहाड,नदियां,मेंड पार करते हुए चांदनी की धारा में आगे बढते जा रहे हैं.
बारात के मंडप में पहुंचने तक जंगल पर चांदनी छाई रही.पुरोहित और दीसरी मिलकर आधी रस्में पूरी कर चुके थे.इतने में यह खबर मिली.
टिहिली सोचने लगी...
न जाने कहां गया?किस ओर गया?
क्या मुझे धोखा देना चाहता है?
नहीं,धर्मू आएगा...ज़रूर मेरे लिए आएगा.बाकी शादी की रस्में भी पूरी होंगी.धर्मू तब मेरा अपना हो जाएगा.महूरत की घडियों के खत्म होने से पहले आ जाएगा.
ब्याह होगा.सुबह होगी.गांव छोडकर गाजे बाजे के साथ बिदा हो जाऊंगी.बहती धारा में वह मेरी कमर पर हाथ डाले मेरे पीछे खडा हो जाएगा.दोनों के पैरों के बीच पुरोहित मुर्गा रखकर उसे काटेगा.लाल रंग का पानी हमारे पैरों के बीच से होकर बहेगा.पुरोहित दोनों को आशीश देगा.धर्मू मुझपर पानी डालेगा.मैं भी डालूंगी.भीगे ,हल्दी से पीले कपडों में उसके स्पर्श से मैं सराबोर हो जाऊंगी.फिर दोनों तरफ के रिश्तेदार एक दूसरे पर नदिया का पानी छिडकेंगे.नदिया रंगों से भर जाएगी.भीगे कपडों में उसका गांव पहुंच जाएंगे.एक हरे भरे पेड के नीचे दूल्हे की बहनों और बहनोइयों को मैं हल्दी मिले पानी से स्नान कराऊंगी.
उसके बाद...
बुज़ुर्ग लेन देन की बात करेंगे.धर्मू वचन देगा कि वह मेरी अच्छी देखभाल करेगा.वचन तोडने पर जुर्माना भरने का भी वादा करेगा...
उसके खयालों में अडचन पैदा करते हुए अचानक मंडप में हलचल मच गई.
एक लडका दौडता आया.वह तेज़ दौडने से हांफ रहा था."अरे क्या बात है? क्या हुआ?"पूछते हुए सब उसके पास पहुंच गए.
"वहां...नदिया के किनारे...धर्मू बेहोश पडा है...!"उसने बताया.
सब चिंतित हो गए,घबरा गए..."कहां? बता...किधर?"वे परेशान होकर पूछने लगे.
उस लडके ने रास्ता दिखाया.उसके पीछे लोग मशाल और टार्च लेकर दौड पडे...
नदिया के किनारे...घाटी में...खून से लथपथ...शादी के कपडों में बेहोश पडा था धर्मू.उसे उठाकर बाहर लाए.पानी छिडक कर होश में लाने की कोशिश करने लगे.
ज़रा सी हरकत हुई...उसने आंखें खोलीं.उसे घेरे खडे थे उसके अपने.उनके सिरों के ऊपर घने पेडों की छतरी थी....उससे परे था नीला आसमां.आस्मान में तारे टिमटिमा रहे थे.
तारों को देखते हुए धर्मू ने पूछा,"महूरत निकल गई या अभी वक्त बाकी है?"
"अभी वक्त है बेटा...पर तू यहां कैसे गिर गया रे?क्या हुआ था?"धर्मू के रिश्तेदारों में से ऎक बुज़ुर्ग ने रुअंसे स्वर में पूछा.
"टिहिली कहां है?"धर्मू ने पूछा.
टिहिली दौडती आई.सब लोग हट गए और उसे रास्ता दिया.
धर्मू के हाथों में अधमरा खरगोश था. उसे टिहिली के आगे किया धर्मू ने.उसने कहा,"शादी से पहले अकेले शिकार करने का रिवाज है ना?"
"अरे,कमाल है बेटा...हम तो घबरा गए थे.पर आजकल यह रिवाज कहां रह गया है रे?यह तो अब पुरानी बात हो गई,सब छोड चुके हैं!"
"रिवाज तो ज़रूरी है!निभाना ही पडता है ना?"
"ठीक है...अब उठो...शुभ घडी निकल जाएगी.उससे पहले यह बांध दे,"कहकर हल्दी लगा धागा उसके हाथ में दिया पुरोहित ने.
ढोलक् बज उठा.मंजीरे ने भी साथ दिया.साथ ही धिंसा नाच भी शुरू हो गया.पहाड गूंज उठे.जंगल खुशी से झूम उठा.
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मूल कहानी : मल्लिपुरम जगदीश
अनुवाद : आर.शांता सुंदरी
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दो पहाडियों के बीच रिश्ता बना.बाजे गाजे बजने लगे.गांव शहनाई और ढोलक के सुरों में भीग गया.पूरा गांव ’धिंसा’नाचने लगा तो रात रंगीन हो गई.हर एक पेड हाथ हिलाते हुए फूल बरसाने लगा.धरती पर चांदनी रुपहले धागों से बुनी चूनर सजाने लगी ...टिहिली के ब्याह में!
पहाडी देवताओं का ध्यान करते हुए,गाते हुए जोडी को आसीस देने की प्रार्थना करने लगा था पुरोहित.उसने दूल्हे को मंडप में लाने को कहा.लोग दूल्हे को ढूंढने लगे...घर में देखा...गली में ढूंढा.गांव का चक्कर लगाकर आए.
इस बीच एक लडका भागता आया और चिल्लाने लगा कि दूल्हा धर्मू,कहीं भी नहीं मिला.
सब उतावले होने लगे.लोग समझने लगे कि टिहिली को चिढाने केलिए कहीं जाकर छिप गया होगा.गांव का पंडित दीसरी उंगलियों पर कुछ गिनते हुए आसमान में सितारों को देखने लगा.मुहूरत में अब कुछ ही समय बाकी रह गया था,तो सब के दिलों में तरह तरह के संदेह और सवाल उठने लगे.
धर्मू के घर के सामने हरे पत्तों का चांदोवा बना था,उसके नीचे एक चारपाई थी.उसपर एक मूसल,रस्सी और अनाज मापने का एक बर्तन थे.घर के द्वार के सामने ताज़ा खोदी गई नाली थी.चांदोवा के नीचे जंगली फूलों की महक फैली थी.नई नवेली दुल्हन टिहिली ने परंपरागत विधि से साडी बांधी थी.उसकी आंखों में हल्की सी नमी थी...
शाम तक शादी की रस्मों में शरीक होता रहा था धर्मू...द्वार के सामने बनी नाली पर खडॆ होकर पुरोहित के आसीस पानेवाला धर्मू...दोनों के पैरों के बीच आग में सुगंधित धूप डालकर,उस धुएं को नाली के पार कराते वक्त,दोनों के पैरों के बीच मुर्गे की बलि देकर उस खून को नाली में बहाते वक्त...टिहिली को गिरने से बचाने केलिए उसकी कमर में हाथ डालकर गुदगुदी पैदा करनेवाला धर्मू...कहां गया?चारपाई पर बैठकर,उल्टे बर्तन पर हल्के से टिहिली के पैरों को अपने पैरों से दबानेवाला धर्मू...रिश्ते नातेदारों से जंगली फूल और पत्ते अक्षत के रूप में स्वीकार करनेवाला धर्मू...मूसल को हाथों से घेरकर टिहिली के गले में हल्दी से रंगा धागा(मंगलसूत्र)बांधने के ऐन वक्त पर वह कहां चला गया?
"मैंने पहले ही कहा ना था? वह पढा लिखा है,उसपर हम कैसे यकीन कर सकते हैं?"किसीने टिप्पणी की.
"चुप कर तू.वह ऐसा नहीं है.पता नहीं उसके साथ कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई?"
तरह तरह के सवाल,शंकाएं सर उठाने लगीं.वहां की हवा इस वजह से गरम हो गई.खुशबू बिखेरनेवाली हवा थम गई.टिहिली की आंखों से आंसुओं की बूंदें एक एक कर गिरने लगीं...
जब धर्मू डिग्री के दूसरे साल में था,तब उसके मेडम ने उसे टिहिली के पास यह कहकर भेजा था कि,इससे बात करके देख लो,तुम्हारे शोध कार्य केलिए शायद कुछ विषय मिल जाए.
धर्मू आदिवासी बस्ती में गया और टिहिली को अपना परिचय देते हुए कहा,"मेरा नाम धर्मू है.केंपस से आ रहा हूं.आदिवासी कलाओं के बारे में शोध कार्य कर रहा हूं."
"टिहिली को संकोच करते देखा तो फिर कहा,"आप इतमीनान रखिए.बस मुझे आपसे सिर्फ कुछ जानकारी लेनी है,बस."धर्मू उसे केंटीन की ओर ले गया.बातों बातों में मालूम हुआ कि धर्मू के मां बाप गुज़र गए और वह रिश्तेदारों के घर में रहकर बडा हुआ.किसी सज्जन की मदद से यहां तक पढाई कर सका,और उन्हीं के प्रोत्साहन से अब यह शोध कार्य भी शुरू किया.यह भी पता चला कि धर्मू भी आदिवासी परिवार से ही है.
"आदिवासी होकर हम इस तरह अपना रहन सहन,वेश भूषा,अपनी भाषा संस्कृति भूल रहे हैं.यह बडे दुःख की बात है,है ना?"उसने चाय की घूंट भरते हुए कहा.
टिहिली ने सिर हिलाकर हामी भरी.
उसके बाद अक्सर दोनों कालेज में मिलने लगे.त्योहारों के बारे में,आजकल गांवों की हालत के बारे में,किसी न किसी बात पर बोलता रहता था धर्मू.उसके रूममेट माज़ाक करते तो भी वह हमेशा गंभीर बना रहता.कभी सीमा नहीं पार करता था.
"टिहिली!"एक दिन उसने नाम लेकर लडकी को पुकारा.
टिहिली ने आंख उठाकर देखा.
"आपका नाम बडा अजीब है!"
टिहिली आंखों से हंसी.
"आपका नाम पुकारता हूं तो लगता है कोई जंगली चिडिया उड रही है...या जंगली फूल हवा में हल्के से झूम रहा है!"धर्मू ने कहा तो टिहिली शरमा गई.
गरमियों की छुट्टियों में...
गांव से दूर पहाड पर टिहिली काम कर रही थी,तभी एक आदिवासी गीत सुनाई दिया...
’आलिरोदूता पहाड पर
कंद मूल उग आए
पत्ते पर लिख भेजा संदेश
बांस की टहनी पर चढ आऊंगी!’
गीत पुराना था.लगता था कोई आदि मानव खुले गले से गा रहा है.पर आवाज़ जाना पहचाना लगा...कहां सुना था? टिहिली सोच में पड गई.
सिर उठाकर देखा ...धर्मू कुदाल लेकर मिट्टी खोद रहा था.वहां अचानक वह दिख गया तो मन के किसी कोने में छुपी खुशी बाहर प्रकट हो गई.अनायास कदम उसकी ओर चल पडे.
पहाड की चोटी...गांव बहुत दूर था.नीला आसमान,हरे भरे पेड,डालियों पर चहचहाते पंछी ,इन्हें छोडकर आसपास कोई नहीं था.
"तुम मेरी देखभाल कर सकोगे?"टिहिली ने पूछा.
"खुद परख लो,मालूम हो जाएगा!"अपने मज़बूत हाथ दिखाते हुए धर्मू ने कहा.
"इतनी दूर क्यों आए?"
"तुम्हारे लिए इन पहाडों को पार करके आ गया."
"खाना खिला सकोगे मुझे?"
"आटे का पसावन बनाकर खिलाऊंगा."
"और क्या करोगे?"
"हाट में लाल चोली का कपडा खरीद दूंगा.बस में फिल्म देखने ले जाऊंगा."
"और?"
"तुम्हें बुखार हो जाए तो दवा देकर सेवा करूंगा."
"और?"
"काले आसमान के नीचे बांहों में भींच लूंगा!"
वह शरमा गई...जैसे लाल लाल ढाक के फूल चारों ओर बिखर गए!
वह हंस पडा,जैसे हवा का झोंका बह गया...जब तक हवा का झोंका चलता रहा,ढाक के फूल गिरते रहे.
* * *
’जेके गांव की लडकी बालों में चमेली के फूल लगा आई
यहां चारपई बिछाकर किस ओर चली गई?’
हवा के साथ यह गीत कानों तक आ रहा था.पहाड,नदियां पार कर,डाली डाली से बतियाते हुए चला आ रहा था वह गीत.वह जमाई सास को संबॊधित करके गानेवाला गीत है.ब्याह से पहले रिश्ता मांगने केलिए आनेवाला यह गीत गाता चला आता है.
दीसरी जानता था कि वे शुभ दिन थे.उसने आसमान की ओर देखा. सूरज सिर के ऊपर चढ आया.ये घडियां भी अच्छी हैं.किसी गांव से लडकेवाले लडकी का हाथ मांगने आ रहे हैं.गाना पास आ गया.सामने वह युवक था.उसके साथ बुज़ुर्ग भी थे.सब अपरिचित.सीधे उसके घर की तरफ आने लगे तो वह हडबडाकर उठा और पीने केलिए पानी देकर चारपई डाली.
"कैसे हैं?कब निकले थे घर से?"दीसरी ने यह जानने के लिए पूछा कि वे किस गांव से आ रहे हैं.
"सुबह सुबह निकल गए थे संदुबडि से."
"अच्छा इसी लिए तो...ओडीशा के पहाडों के पार है ना आपका गांव?तभी कहूं पहचाने नहीं लग रहे हैं!"
देहलीज़ पर साडी और चूडियां रखीं.गिलास में शराब डाली.दीसरी समझ गया कि वे उसकी बेटी का हाथ मांगने आए हैं.
"दूल्हा कौन है?"दीसरी ने पूछा
धर्मू मुस्कुराया.दरवाज़े के पीछे से झांकती टिहिली शरमाकर अंदर भाग गई.दीसरी ने गौर किया.उस दिन पहाड पर धर्मू का गाना और उसके बाद टिहिली के सवालों के बारे में वह सुन चुका था.आदमी का गाना सुनकर औरत जवाब दे तो समझना चाहिए कि उसे आदमी पसंद है.
"आप किस जात के हैं?"दीसरी ने पूछा
"आरिकोलु,और क्या?"
दीसरी ने मन ही मन हिसाब लगाया कि इस जात में पहले कितने लोगों के साथ उसके पुरखों ने ब्याह रचाए थे.
गांव के बडे बुज़ुर्ग एक एक करके आने लगे.लडके को एक नज़र देखकर बैठने लगे.सहेलियां चिढाने लगीं तो टिहिली शरम से लाल होने लगी.दीसरी और बुज़ुर्गों के मन में एक ही सवाल हलचल मचा रहा था,कौन है यह जवान?
मौका पाकर धर्मू ने टिहिली को पकडा और पूछा,"सच बताना,क्या तुम मुझे नहीं पहचानती?"
"मैं तो जानती हूं...पर बाबूजी और गांव के बडे,उन्हें भी तो मालूम होना ज़रूरी है ना?"टिहिली ने उदास होकर कहा.दोनों जानते थे कि उस रोज़ धर्मू के बारे में सब समाचार मालूम न होने की वजह से ही दीसरी ने साडी और चूडियों को छूने नहीं दिया था.शराब को भी हाथ नहीं लगाया था.
टिहिली का बाप उस गांव का मुखिया था.सबको भला बुरा समझानेवाला वही गलत काम करे तो फिर गांव बिगड जाएगा,वहां के नीति नियम खराब हो जाएंगे!इन बातों के अलावा,धर्मू पर शक करने का असली कारण था,जब वह रिश्ता मांगने उनके गांव आया तब...उस दिन...
सारा गांव चांदनी की रोशनी में,ढोलकों के धम धम के बीच उत्सव मनाते हुए नाच रहा था...उसी रात,सोमेसु,उर्फ चम्द्रन्ना ने गांव में कदम रखा.उसके पीछे एक युवती भी थी.ढोलकों की धम धम थमने तक गांव के लोग समझ गए कि वे दोनों पुलिस के आगे आत्मसमर्पण कर चुके हैं,दोनों में प्यार हो गया था और इसलिए गुट में रहकर काम करना मुश्किल हो गया था.आम लोगों जैसा जीवन बिताने का फैसला कर लिया था.यह खबर अगले दिन अखबारों में भी छप गई.
अगले दिन गांव में पुलिस के सिपाही आ गए.एस पी के सामने दोनों ने एक दूसरे को वरमालाएं पहनाईं.एस पी साहब ने दोनों को नये कपडे और आशीश दिए,और कहा"इन्हीं की तरह बाकी लोग भी गुट को छोडकर समाज में आकर मिल जाएं,यही हमारी इच्छा है!"
तभी रिश्ता मांगने आए धर्मू पुलिसवालों से बात करते हुए सबको दिखाई दिया.उस दिन भी उनके मन में यही सवाल उठा,’कौन है यह?’इसके गांव में कदम रखते ही यह आत्मसमर्पण करनेवाले अचानक कैसे आ धमके?फौरन पुलिस,पत्रकार...! किसका आदमी है यह?सब के दिलों में डर,संदेह उठने लगे.
शादी का मंडप सुनसान हो गया...हर तरफ खामोशी छा गई.सब अपने अपने काम में मशगूल हो गए .तरह तरह की बातें करने लगे..."ब्याह में माइक सेट का होना ज़रूरी है.बेंड होना चाहिए,यह क्या है भाई पुराने ज़माने का ब्याह लगता है?"एक युवक झुंझला उठा.
"कहीं पुलिस ने तो कुछ नहीं किया...?"किसीने कहा.अचानक उस बात से मंडप में फैली खामोशी टूट गई.
"अरे क्या बात करते हो भाई?उन्हें इससे क्या लेनादेना?"धर्मू के एक दोस्त ने कहा.
"क्या जाने?हमारे गांव में वही एक पढालिखा बंदा है.बात बात पर टाउन जाता रहता है.इसी बात से कहीं उसपर उन्हें शक हो गया हो...?"
"अरे बेकार की बातें करके हमको भी डरा रहे हो...छोड ना...!"कहने को तो कह दिया पर उस आदमी के मन में भी डर घर करने लगा....कहीं यही सच ना हो...
टिहिली का दिल ज़ोरों से धडकने लगा.उसकी आंखें भर आईं.मंडप में हो रही बातें और पुरानी यादें मिलकर उसके मन में खलबली मचाने लगीं...
’सास से कहकर पिटवाया
ससुर से कहकर पिटवाया
सासू मां कहो तुम्हारी बेटी से बाहर आए
मैं फूल देकर चला जाऊंगा’
कुवी बोली में दूल्हा धर्मू गाते हुए नाचने लगा.उसके पीछे पहाड चलकर आएगा ,उसपर बहता झरना चलकर आएगा.सारे पत्ते मिलकर उसके गीत में ताल दे रहे हैं.
फिर एक दिन...
साडी और चोली देहलीज़ पर रखीं.गिलास में शराब डालकर रखा.
दीसरी ने बेटी की ओर देखा.उसके चेहरे पर उदासी थी.वह बाप की इजाज़त का इंतज़ार कर रही थी.नहीं माना तो...? आधी रात को उसके साथ...!तब वह क्या कर सकेगा?बेटी ने जो इज़्ज़त दी उसे बनाए रखना ही ठीक होगा.बिन मां की बच्ची है.उसके मन मुताबिक शादी करना ही ठीक है,यह मेरे लिए भी खुशी की बात होगी.दीसरी सोचने लगा.सब उसके फैसले के इंतज़ार में थे.
उसने सिर हिलाया...’हां’ कहा.शराब का गिलास उठाया,दो चार बूंद मुंह में डालकर दूल्हे के बाप को दिया.टिहिली की आंखों से चांदनी झरने लगी.उसकी हंसी सुनकर गली के छोर पर ढोल बज उठा.सब लोगों ने शराब पी.साडी और चूडियों की तरफ टिहिली ने प्यार से देखा.शहनाई के सुरों में सारी गलियां भीग गईं.जंगल पर से गुज़रकर वह खुशबू धर्मू के दिल को छू गई.सारा गांव पंक्तिबद्ध होकर धिंसा नाचने लगा.
बेटी के ब्याह का महूरत निश्चय किया दीसरी ने.उस धूमधाम के बीच वापस लौटते वक्त एक युवक ने आकर धर्मू के कान में कुछ कह दिया.धर्मू के चेहरे का रंग बदल गया.
"इस वक्त?"धर्मू ने पूछा.
"हां,अभी...गांव के बाहर हैं वे"युवक ने बताया.
"चल..."धर्मू उसके साथ हो लिया.
गांव के सिवानों में,सडक से दस कदम दूर पेड के नीचे एक सेंट्री खडा था.उसके पीछे भारी बैग और हाथियार लिए चट्टानों पर बैठे थे कुछ लोग...काले सायों की तरह.जंगल के अंदर कहीं एक तीतर बोलने लगा.चांद को एक बादल का टुकडे मे ढंक दिया.
"अब तुम जा सकते हो,"यह सुनते ही धर्मू वापस लौट आया.
दीसरी ने जो महूरत निशित किया वह घडी आ गई.दूल्हे का परिवार दुल्हन के घर पहुंच गया.ढोलकों का शोर,शहनाई के सुर पहाडों में गूंजने लगे.पुरोहित सभी पहाडी देवताओं का स्मरण करते हुए प्रार्थना करने लगा कि लडकी को सभी भूत प्रेतों से बचाए,वह खूब बच्चे पैदा करे और सुखी रहे.उसके बच्चे पहाड पर कामकाज करने की हालत में तंदुरुस्त रहें इस बात का आशीर्वाद देने लगा.
नई लुंगी में चावल बांधकर,मुर्गे को देवता के आगे रखकर फिर दूल्हे को पकडाया.घडियां गिनने के बाद कहा,"अब निकल पडो!"
" यह लडकी हमारे संग खेली थी
साथ मिलकर काम करती रही
अब तेरे संग चल पडी
डाल की कली कहीं मिट्टी में न गिर जाए
फूल बने
फल बने
बीज बन फिर उगे..."
अपनी बोली में, सारा गांव, यह गीत बनकर,टिहिली और धर्मू को विदा करने सिवानों तक साथ चला.नई कोंपल से भरे ढाक के पेड सी थी टिहिली.जंगल की समूची सुंदरता उसके चेहरे में रौनक पैदा कर रही थी.लोगों ने उसके सिर पर फूलों की छतरी पकडी.उसके ऊपर साडी को फैलाकर पकडा.फूल जैसी लडकी पर कोई भी फूल ना गिरे...इमली का फूल तो बिल्कुल भी ना गिरे...ऐसे उमंग से भरे गीत गाते हुए चलने लगे.
"आपकी लडकी हमारे घर का दीया होगी
सुख हो या दुःख हमारे संग रहेगी
यह हमारे घर की देवी है
इसकी आंखों को कभी भीगने नहीं देंगे हम"
दूल्हे का मामा टिहिली को कंधे पर उठाकर आगे बढा.पत्थरों पर चलते वक्त कहीं उसके पैरों का महावर बिखर न जाए इस बात का ध्यान रख रहे हैं.रास्ते भर जंगली फूलों की महक चलने के श्रम को भुला रही है.पहाड,नदियां,मेंड पार करते हुए चांदनी की धारा में आगे बढते जा रहे हैं.
बारात के मंडप में पहुंचने तक जंगल पर चांदनी छाई रही.पुरोहित और दीसरी मिलकर आधी रस्में पूरी कर चुके थे.इतने में यह खबर मिली.
टिहिली सोचने लगी...
न जाने कहां गया?किस ओर गया?
क्या मुझे धोखा देना चाहता है?
नहीं,धर्मू आएगा...ज़रूर मेरे लिए आएगा.बाकी शादी की रस्में भी पूरी होंगी.धर्मू तब मेरा अपना हो जाएगा.महूरत की घडियों के खत्म होने से पहले आ जाएगा.
ब्याह होगा.सुबह होगी.गांव छोडकर गाजे बाजे के साथ बिदा हो जाऊंगी.बहती धारा में वह मेरी कमर पर हाथ डाले मेरे पीछे खडा हो जाएगा.दोनों के पैरों के बीच पुरोहित मुर्गा रखकर उसे काटेगा.लाल रंग का पानी हमारे पैरों के बीच से होकर बहेगा.पुरोहित दोनों को आशीश देगा.धर्मू मुझपर पानी डालेगा.मैं भी डालूंगी.भीगे ,हल्दी से पीले कपडों में उसके स्पर्श से मैं सराबोर हो जाऊंगी.फिर दोनों तरफ के रिश्तेदार एक दूसरे पर नदिया का पानी छिडकेंगे.नदिया रंगों से भर जाएगी.भीगे कपडों में उसका गांव पहुंच जाएंगे.एक हरे भरे पेड के नीचे दूल्हे की बहनों और बहनोइयों को मैं हल्दी मिले पानी से स्नान कराऊंगी.
उसके बाद...
बुज़ुर्ग लेन देन की बात करेंगे.धर्मू वचन देगा कि वह मेरी अच्छी देखभाल करेगा.वचन तोडने पर जुर्माना भरने का भी वादा करेगा...
उसके खयालों में अडचन पैदा करते हुए अचानक मंडप में हलचल मच गई.
एक लडका दौडता आया.वह तेज़ दौडने से हांफ रहा था."अरे क्या बात है? क्या हुआ?"पूछते हुए सब उसके पास पहुंच गए.
"वहां...नदिया के किनारे...धर्मू बेहोश पडा है...!"उसने बताया.
सब चिंतित हो गए,घबरा गए..."कहां? बता...किधर?"वे परेशान होकर पूछने लगे.
उस लडके ने रास्ता दिखाया.उसके पीछे लोग मशाल और टार्च लेकर दौड पडे...
नदिया के किनारे...घाटी में...खून से लथपथ...शादी के कपडों में बेहोश पडा था धर्मू.उसे उठाकर बाहर लाए.पानी छिडक कर होश में लाने की कोशिश करने लगे.
ज़रा सी हरकत हुई...उसने आंखें खोलीं.उसे घेरे खडे थे उसके अपने.उनके सिरों के ऊपर घने पेडों की छतरी थी....उससे परे था नीला आसमां.आस्मान में तारे टिमटिमा रहे थे.
तारों को देखते हुए धर्मू ने पूछा,"महूरत निकल गई या अभी वक्त बाकी है?"
"अभी वक्त है बेटा...पर तू यहां कैसे गिर गया रे?क्या हुआ था?"धर्मू के रिश्तेदारों में से ऎक बुज़ुर्ग ने रुअंसे स्वर में पूछा.
"टिहिली कहां है?"धर्मू ने पूछा.
टिहिली दौडती आई.सब लोग हट गए और उसे रास्ता दिया.
धर्मू के हाथों में अधमरा खरगोश था. उसे टिहिली के आगे किया धर्मू ने.उसने कहा,"शादी से पहले अकेले शिकार करने का रिवाज है ना?"
"अरे,कमाल है बेटा...हम तो घबरा गए थे.पर आजकल यह रिवाज कहां रह गया है रे?यह तो अब पुरानी बात हो गई,सब छोड चुके हैं!"
"रिवाज तो ज़रूरी है!निभाना ही पडता है ना?"
"ठीक है...अब उठो...शुभ घडी निकल जाएगी.उससे पहले यह बांध दे,"कहकर हल्दी लगा धागा उसके हाथ में दिया पुरोहित ने.
ढोलक् बज उठा.मंजीरे ने भी साथ दिया.साथ ही धिंसा नाच भी शुरू हो गया.पहाड गूंज उठे.जंगल खुशी से झूम उठा.
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मूल कहानी : मल्लिपुरम जगदीश
अनुवाद : आर.शांता सुंदरी
फिर एक बार
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रोज़ जाता हूं उसी रास्ते से
फिर भी आंखों से
कुछ ओझल होने का अनुभव
कटे पपीते के पेड की बची निशानी
शरीर में मीठा अहसास भर देती है
वहां एक दीवार पर
नाचते थे भित्तिचित्र
उन्हें रूप देनेवाले हाथ
पागलों की तरह भटक भटककर राहों पर
देह को मिट्टी के हवाले कर गए अचानक
कभी न पसीजने वाले दिलों को
अर्थी को कंधा देते देख
गगन अपने जलदेह से उतर आया
और मानवता को गले लगाया...
खुद गाना बन दसों दिशाओं से बतियानेवाला तानपूरा
उस घर के आगे रुक गया अचानक
तानपूरे के तार टूटकर बिखर गए
लाखों आवाज़ें बन
गायक को खो देना क्या है
यह समझ लेना
उसे सिर पर बिठाना ही तो है
बीच रास्ते में रुक जाए तो
कौन कर सकता है बरदाश्त...?
आवाज़ तो चली गई
पर कहीं से एक मीठा सुर
लगातार जागाती ही रही.
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मूल कविता : पायला मुरलीकृष्णा
अनुवाद :आर शांता सुंदरी
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रोज़ जाता हूं उसी रास्ते से
फिर भी आंखों से
कुछ ओझल होने का अनुभव
कटे पपीते के पेड की बची निशानी
शरीर में मीठा अहसास भर देती है
वहां एक दीवार पर
नाचते थे भित्तिचित्र
उन्हें रूप देनेवाले हाथ
पागलों की तरह भटक भटककर राहों पर
देह को मिट्टी के हवाले कर गए अचानक
कभी न पसीजने वाले दिलों को
अर्थी को कंधा देते देख
गगन अपने जलदेह से उतर आया
और मानवता को गले लगाया...
खुद गाना बन दसों दिशाओं से बतियानेवाला तानपूरा
उस घर के आगे रुक गया अचानक
तानपूरे के तार टूटकर बिखर गए
लाखों आवाज़ें बन
गायक को खो देना क्या है
यह समझ लेना
उसे सिर पर बिठाना ही तो है
बीच रास्ते में रुक जाए तो
कौन कर सकता है बरदाश्त...?
आवाज़ तो चली गई
पर कहीं से एक मीठा सुर
लगातार जागाती ही रही.
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मूल कविता : पायला मुरलीकृष्णा
अनुवाद :आर शांता सुंदरी
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